Friday, January 15, 2016

आजाद सिंह डबासःलोकतंत्र को लीलने वाली माफिया ताकतों से जंगल बचाने की जद्दोजहद
आजाद सिंह डबासःलोकतंत्र को लीलने वाली माफिया ताकतों से जंगल बचाने की जद्दोजहद
आरक्षण की समीक्षा के मोहन भागवत के बयान से पूरी तरह सहमत
-आलोक सिंघई-
भोपाल,14 जनवरी। अफसर अपनी प्रशासनिक क्षमता का उपयोग नहीं करते। गलत फैसला होगा इस डर से निर्णय टालते हैं। इससे अदालतों में बेवजह प्रकरणों की तादाद बढ़ रही है। पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी मध्यप्रदेश लघु वनोपज संघ में अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक आईएफएस आजाद सिंह डबास के लिए दिशाबोध बन गई है। उन्होंने इसी से प्रेरित होकर सिस्टम परिवर्तन अधिकारी कर्मचारी संगठन(स्पाक्स) बना डाला है। उनका कहना है कि ये संगठन माफिया ताकतों से प्रताड़ित अफसरों और आम नागरिकों के पक्ष में व्हिसिल ब्लोअर की तरह कार्य करेगा। जागरूक नागरिकों का ये मंच जनहित के मामलों में दबाव समूह का काम करेगा।
सिस्टम परिवर्तन अधिकारी कर्मचारी संगठन (स्पाक्स) की तुलना पहले बने अन्य जातिवादी संगठनों से करके इसके औचित्य को कटघरे में खड़ा करने वाले लोग इसे शिवराज सिंह चौहान सरकार के लिए एक चुनौती बताने में जुट गए हैं। आईएएस रमेश थेटे और शशि कर्णावत के धरने को देखकर सरकार से असंतुष्ट लोगों ने स्पाक्स को भी सरकार के खिलाफ खम ठोंकने वाला कदम बताना शुरु कर दिया है। जबकि हकीकत इससे अलग है। खुद डबास कहते हैं कि उनका मकसद किसी सरकार का विरोध करना नहीं है। वे तो कार्यपालिका की उपलब्धियों में आ रही गिरावट को दूर करने वाला दबाव समूह बनाने निकले हैं। इसमें हर जाति वर्ग के अधिकारी और कर्मचारी शामिल हो रहे हैं। सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलना हमारा काम नहीं है। पिछले तीस सालों की नौकरी में हमने महसूस किया है कि शासनहित और जनहित दोनों के लिए जरूरी है कि ईमानदार अफसरों की प्रताड़ना और उन्हें निशाना बनाने के प्रयासों पर रोक लगे।
श्री डबास ने बताया कि वे स्वयं दो बार निलंबन की सजा झेल चुके हैं। एक बार जब 1990 में उन्होंने रायगढ़ (छग) में तेंदूपत्ता चोरी पकड़ी थी और दूसरी बार तब जब 2012 में उन्होंने चंबल क्षेत्र में वन भूमि के अवैध उत्खनन पर कार्रवाई की थी। दोनों ही बार भारत सरकार ने उन्हें निलंबन के दिन से ही बहाल माना। प्रदेश सरकार के आदेश को भारत सरकार ने अब-इनीशियो- वॉयड बताकर लागू होने वाले दिन से ही खारिज कर दिया। वे कहते हैं कि तीस साल की सेवाओं में उनके 32 तबादले किए गए। नागरिक सेवाओं की संहिता में भी किसी अफसर को कम से कम दो सालों तक न हटाए जाने की सिफारिश की गई है। इसके बावजूद राज्य शासन रात के 12 बजे तबादला सूचियां जारी करता है। जबकि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। जबलपुर टेप कांड का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इस मामले में संबंधित अफसर का तबादला आठ महीने में ही करके उसे तथाकथित अच्छी पोस्टिंग दी गई थी लेकिन वहां तो पांसे ही उल्टे पड़ गए।
भारतीय वन सेवा एसोसिएशन या अन्य संगठनों से अलग संगठन बनाए जाने की जरूरत क्यों पड़ी इसके बारे में पूछे जाने पर श्री डबास ने बताया कि मौजूदा संगठनों का काम सर्विस हितों की रक्षा करने का तो था ही साथ में जंगलों के संरक्षण और संवर्धन से जुड़ी बारीक समस्याओं को दूर करना भी इसका मकसद था। इसके विपरीत इन संगठनों ने अपनी जवाबदारी निभाने के लिए कोई जतन नहीं किए। उनकी वजह से ही जिन अफसरों को पच्चीस सालों में पदोन्नति पा लेनी थी वे तीस साल तक विचाराधीन ही बने रहे। यदि ये संगठन अपना औचित्य साबित करते तो प्रदेश को ज्यादा प्रतिभाशाली अफसरों की सेवाओं का लाभ मिलता।
आरएसएस के सरसंघ चालक मोहन भागवत के बयान से सहमति जताते हुए श्री डबास ने कहा कि आरक्षण के मौजूदा हालात की समीक्षा होनी ही चाहिए। जो लोग आज तीन पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ लेते हुए क्रीमी लेयर में आ चुके हैं वे वास्तविक दलितों की राह में रोड़ा बन गए हैं। उन्हें अब आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है लेकिन मौजूदा प्रावधानों में उन पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। पद सीमित हैं और पहले से सक्षम हो चुके लोग कमजोर दलितों का हक मार रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनका संगठन तो दूषित व्यवस्था से पीड़ित लोगों को संरक्षण दिलाने का काम करेगा। इसमें सभी जाति के योग्य अफसरों को संरक्षण दिया जाएगा।
उन्होंने कहा कि मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्था में दंड के विविध प्रावधान किए गए हैं। अफसरों की क्षमता पहचानने के लिए उनके कामकाज के आकलन की भी व्यवस्था है। इसके बावजूद अफसर न काहू से बैर वाली मानसिकता के चलते कड़वे फैसले नहीं लेते हैं। यदि प्रशासनिक व्यवस्था ही अपने अधीनस्थों को न्याय देने लगे तो लोग अदालत क्यों जाएंगे।
श्री डबास कहते हैं कि आमतौर पर व्हिसल ब्लोअर बहुत कमजोर होते हैं क्योंकि किसी अफसर की गलती को अदालत में प्रमाणित करने की जवाबदारी उस संसाधन विहीन व्यक्ति के गले पड़ जाती है। इसी वजह से हमने इस कदम को संस्थागत रूप देने की तैयारी की है। इससे व्हिसिल ब्लोअर असफल नहीं होंगे और एक दबाव समूह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगा। हमारा लक्ष्य है कि प्रशासन संवेदनशील, पारदर्शी और जवाबदेह बने। हम किसी के विरोध में नहीं बल्कि मुख्यधारा के साथ खड़े हैं।
सरकारी योजनाओं की धींगामुश्ती से क्षुब्ध जनता के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि सरकार को जनता की परेशानी का अहसास हो रहा है इसीलिए अफसरों की कार्यप्रणाली को भी कसौटी पर कसा जा रहा है। उन्होंने कहा कि मुक्त बाजार व्यवस्था देश के आर्थिक विकास के लिए जरूरी है। इसके लिए ब्यूरोक्रेसी को अपना दिल और दिमाग दोनों बदलना पड़ेगा। लालफीताशाही की आदत छोड़नी होगी। यदि वह विकास की गतिविधियों में सहयोगी (फेसिलिटेटर) की भूमिका नहीं अपनाएगी तो अप्रासंगिक हो जाएगी। देश में आर्थिक सुधार तो हो गए पर उसके अनुरूप प्रशासनिक, न्यायिक, पुलिस और श्रमिक सुधार नहीं हो पाए हैं। प्रशासनिक सुधारों की रिपोर्टें आज भी धूल खा रहीं हैं।
वन विभाग की वार्षिक पत्रिका ग्रीन अलर्ट का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि आंकड़े बताते हैं कि वनों से होने वाली आय घटी है जबकि सरकार ने वन विकास के नाम पर करोडों रुपयों का निवेश किया है। जब तक वन विभाग के अमले में काबिल लीडरशिप नहीं बढ़ेगी तब तक न तो अनुशासन आएगा और न ही उत्पादन बढ़ेगा। वन विभाग के पास 11 अनुसंधान और विस्तार केन्द्र हैं लेकिन उनकी योजनाओं को जमीन पर उतारना जरूरी है। उन्होंने बताया कि मौजूदा व्यवस्था में ही उन्होंने 11 लाख पौधे लगवाकर उल्लेखनीय काम किया है।
वे कहते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नदी जोड़ो अभियान चला रहे हैं लेकिन वह तभी सफल होगा जब नदियों में साल भर पानी रहेगा। जो रिपोर्ट आ रहीं हैं उनके मुताबिक नर्मदा के जलस्तर में ही भारी गिरावट आई है। वे कहते हैं कि हमारी नदियां जंगलों पर आधारित हैं। उनमें गंगा ,यमुना की तरह बर्फ का पानी नहीं आता है।इसलिए जंगलों को बढ़ाकर जमीन की कठोरता घटानी जरूरी है।
लघुवनोपज संघ जैसी संस्था की उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास कर रहे श्री डबास कहते हैं कि यदि वन विभाग जंगलों से उत्पादकता बढ़ाने के लिए जमीनी प्रयास करे तो पांच सौ करोड़ का उत्पादन बढ़कर पांच हजार करोड़ तक पहुंच सकता है। अभी तेंदूपत्ता तुड़ाई से लोगों को दो हफ्तों का रोजगार मिलता है जबकि वनों में पेड़ पौधों की सैकड़ों जातियों पर काम करके साल भर का रोजगार आसानी से उपलब्ध कराया जा सकता है। वैज्ञानिक तौर तरीकों से वनों का दोहन जहां हमारी वन संपदा को समृद्ध कर सकता है वहीं विनाशकारी विदोहन आगामी पीढ़ियों को बहुत मंहगा सौदा साबित होगा।

Alok Singhai
Editor of Press Information Centre (www.picmp.com)