Friday, December 20, 2013
Monday, November 11, 2013
Tuesday, October 22, 2013
खुले में शौच से मुक्ति अभी संभव नहीं
2015 तक पूरा नहीं होगा 'निर्मल प्रदेश Óका सपना
रूबी सरकार
मध्यप्रदेश के 240 विकासखण्डों में आज भी 75 फीसदी लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। वहीं 40 फीसदी शहरी परिवार खुले में शौच के लिए मजबूर बताये जा रहे हैं। जबकि 2001 की जनगणना के मुकाबले 2011 की जनगणना पर गौर करें, तो प्रदेश में करीब 20 लाख नये शौचालयों के निर्माण हुआ है और ग्रामीण क्षेत्रों में 12.2 फीसदी परिवारों ने नये शौचालयों का निर्माण करवाया है। बावजूद इसके प्रदेश में 24 लाख लोग बाहर शौच के लिए जा रहे हैं।
यूनिसेफ ने प्रदेश में पानी और शौचालय की स्थिति पर अध्ययन के बाद यह रिपोर्ट जारी की है। शहरों और गांवों दोनों में 64 फीसदी शौचालय का अभाव है। 33 जिलों में अध्ययन में यह पाया गया , कि सिर्फ चार जिलों इ्रदौर, भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर में स्थिति कुछ बेहतर है। इंदौर में जहां 78 फीसदी घरों में शौचालय का निर्माण हुआ है, वहीं भोपाल में 71 फीसदी, ग्वालियर में 59 फीसदी और जबलपुर में 53 फीसदी घरों में शौचालय हैं। बाकी जिलों में शौचालय निर्माण काम बहुत धीमी गति से चल रहा है। 19 जिलों की हालत तो बदतर है। प्रदेश के कुछ जिले जैसे- शिवपुर, श्योपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, मण्डला, डिंडौरी, उमरिया, सीधी, सिंगरौली, अलीराजपुर और झाबुआ में तो 15 फीसदी घरों में ही शौचालय है। वहीं मंदसौर, बड़वानी, पश्चिमी निमाड़, पूर्व निमाड़, बैतूल, छिन्दवाड़ा, सिवनी, बालाघाट, शाजापुर, राजगढ़, विदिशा, सागर, गुना, अशोकनगर, छतरपुर, कटनी अनूपपुर, शहडोल,रीवा, मुऱैना, दतिया और भिण्ड 25 फीसदी घरों में शौचालय है। इसी तरह नीमच, रतलाम, उज्जैन, धार, बुरहानपुर, देवास, हरदा, होशंगाबाद, सीहोर, रायसेन, नरसिंहपुर और सतना में करीब 50 फीसदी घरों में शौचालय है। आश्चर्य इस बात की है, कि इन्हीं में कुछ जिले ऐसे हैं, जहां घरों में शौचालय होते हुए भी आदतन खुले में शौच के लिए जाते है। यह स्थिति गांव में अधिक है। जबकि सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में सरकार ने खुले में शौच से मुक्ति का आश्वासन दिया है।
2015 तक पूरा नहीं होगा 'निर्मल प्रदेश Óका सपना
रूबी सरकार
मध्यप्रदेश के 240 विकासखण्डों में आज भी 75 फीसदी लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। वहीं 40 फीसदी शहरी परिवार खुले में शौच के लिए मजबूर बताये जा रहे हैं। जबकि 2001 की जनगणना के मुकाबले 2011 की जनगणना पर गौर करें, तो प्रदेश में करीब 20 लाख नये शौचालयों के निर्माण हुआ है और ग्रामीण क्षेत्रों में 12.2 फीसदी परिवारों ने नये शौचालयों का निर्माण करवाया है। बावजूद इसके प्रदेश में 24 लाख लोग बाहर शौच के लिए जा रहे हैं।
यूनिसेफ ने प्रदेश में पानी और शौचालय की स्थिति पर अध्ययन के बाद यह रिपोर्ट जारी की है। शहरों और गांवों दोनों में 64 फीसदी शौचालय का अभाव है। 33 जिलों में अध्ययन में यह पाया गया , कि सिर्फ चार जिलों इ्रदौर, भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर में स्थिति कुछ बेहतर है। इंदौर में जहां 78 फीसदी घरों में शौचालय का निर्माण हुआ है, वहीं भोपाल में 71 फीसदी, ग्वालियर में 59 फीसदी और जबलपुर में 53 फीसदी घरों में शौचालय हैं। बाकी जिलों में शौचालय निर्माण काम बहुत धीमी गति से चल रहा है। 19 जिलों की हालत तो बदतर है। प्रदेश के कुछ जिले जैसे- शिवपुर, श्योपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, मण्डला, डिंडौरी, उमरिया, सीधी, सिंगरौली, अलीराजपुर और झाबुआ में तो 15 फीसदी घरों में ही शौचालय है। वहीं मंदसौर, बड़वानी, पश्चिमी निमाड़, पूर्व निमाड़, बैतूल, छिन्दवाड़ा, सिवनी, बालाघाट, शाजापुर, राजगढ़, विदिशा, सागर, गुना, अशोकनगर, छतरपुर, कटनी अनूपपुर, शहडोल,रीवा, मुऱैना, दतिया और भिण्ड 25 फीसदी घरों में शौचालय है। इसी तरह नीमच, रतलाम, उज्जैन, धार, बुरहानपुर, देवास, हरदा, होशंगाबाद, सीहोर, रायसेन, नरसिंहपुर और सतना में करीब 50 फीसदी घरों में शौचालय है। आश्चर्य इस बात की है, कि इन्हीं में कुछ जिले ऐसे हैं, जहां घरों में शौचालय होते हुए भी आदतन खुले में शौच के लिए जाते है। यह स्थिति गांव में अधिक है। जबकि सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में सरकार ने खुले में शौच से मुक्ति का आश्वासन दिया है।
Wednesday, August 14, 2013
Friday, June 21, 2013
Friday, May 31, 2013
Saturday, March 30, 2013
Monday, February 18, 2013
Monday, January 14, 2013
Friday, January 11, 2013
मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना : पानी के निजीकरण का समर्थन
रूबी सरकार
मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना के माध्यम से पानी के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। मुख्यमंत्री ने इस योजना के लिए विश्व बैंक से कर्ज लेने की गुहार लगाई है । जबकि भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पानी के निजीकरण के ऐसे प्रस्ताव का विरोध किया है। खण्डवा में भी पानी के निजीकरण का नागरिकों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा है। हाल ही पारित राष्ट्रीय जलनीति ने पानी को सम्पत्ति माना है, जिसका व्यापक विरोध हो रहा है।
क्या है मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना
मध्यप्रदेश सरकार ने प्रदेश के सभी नगरीय इकाईयों के मानक मात्रा में जलप्रदाय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना की घोषणा की है। इस योजना में एक लाख से अधिक आबादी वाले नगरों में पीपीपी के माध्यम से ही पेयजल योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाने का प्रावधान है। प्रदेश की पेयजल व्यवस्था में बड़े बदलाव के इरादे के साथ यह हो रहा है। प्रदेश के 37 शहरों में इन दिनों 493 करोड़ रुपये की लागत से मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना पर काम चल रहा है।
मुख्यमंत्री की वाशिंगटन यात्रा और कर्ज की मांग
अक्टूबर 2012 में मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना के अंतर्गत चैबीसों घंटे भुगतान युक्त जल आपूर्ति की सुविधा शुरू के लिए मुख्यमंत्री द्वारा विश्व बैंक मुख्यालय वाशिंगटन जाकर 38 करोड़ डॉलर (करीब 2 हजार करोड़ रुपए) के कर्ज की मांग की गई। इसमें मुख्यमंत्री की ओर से 20 करोड़ डॉलर के बराबर राशि प्रदेश सरकार द्वारा अपनी ओर से खर्च करने का आश्वासन भी विश्व बैंक को दिया गया है। सरकार द्वारा विश्व बैंक को दिए गए आश्वासन की राशि 20 करोड़ डॉलर (करीब 1 हजार करोड़ रुपए) उतनी ही हैं,जितनी उसने नाबार्ड से कर्ज लेनेे की घोषणा की है। जाहिर है, कि इतनी विशाल योजना के लिए प्रदेश सरकार के पास कोई आर्थिक संसाधन उपलब्ध नहीं है। विश्व बैंक को जितनी राशि का अंशदान अपने संसाधनों से जुटाने का आश्वासन दिया है, वह भी नाबार्ड के कर्ज से लेने का इरादा सरकार का दिखाई देता है।
चूंकि आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण योजना के लिए विश्व बैंक से कर्ज लिया जाना प्रस्तावित था, इसलिए योजना की शर्तों में पानी के निजीकरण को बढ़ावा दिया जाना शामिल किया गया, ताकि विश्व बैंक को कर्ज हेतु राजी किया जा सके। योजना स्वीकृति की ताजा शर्तों के अनुसार 1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरीय निकायों को अपनी जलप्रदाय योजना पीपीपी के तहत निजी कंपनियों को सौंपना आवश्यक होगा।
यदि कोई नगरीय निकाय 1 लाख से कम जनसंख्या वाला है, लेकिन उसके 20 किमी के दायरे में अन्य निकाय है, जिनकी कुल जनसंख्या 1 लाख से अधिक होती है, तो वहां समूह योजना संचालित कर पीपीपी के तहत योजना का निजीकरण किया जा सके। जबकि, अन्य निकायों को चरणबद्ध एवं समयद्ध तरीके से सुधार की प्रक्रिया जारी रखनी होगी।
नगरीय निकायों द्वारा सुधार प्रक्रिया नहीं अपनाए जाने पर राज्य से मिलने वाले अनुदान और कर्ज में कमी कर दी जाएगी। योजना का लाभ लेने वाले नगरीय निकायों को आगामी 3 वर्षों में संपत्ति कर की वसूली 85 फीसदी तक बढ़ानी होगी। विश्व बैंक के कर्ज आधारित इस वित्तीय व्यवस्था से सभी नगरनिकायों को योजना लागत का 17.5 फीसदी हिस्सा कर्ज लेना पड़ेगा। यह कर्ज राशि नगरनिकायों के आर्थिक स्थिति के हिसाब से अधिक है। इस प्रकार की वित्तीय व्यवस्था स्थानीय निकायों और उनके निवासियों पर बहुत भारी पड़ेगी, ऐसी आशंका जताई जा रही है।
उल्लेखनीय है, कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियां अपनी नीति के अनुसार अब संपूर्ण योजना लागत के बराबर कर्ज नहीं देता है तथा कर्ज चाहने वालों से उसमें अपने संसाधनों से निवेश करने का आग्रह करता है। वर्ष 2004 में स्वीकृत 43.9 करोड़ डॉलर की 'जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना' में से 39.6 करोड़ डॉलर का ही कर्ज स्वीकृत किया था। शेष 4.3 करोड़ डॉलर की राशि का निवेश राज्य सरकार को अपने संसाधनों से करना पड़ा।
एडीबी ने 30.35 करोड़ डॉलर की मध्यप्रदेश शहरी जलापूर्ति एवं पर्यावरण सुधार परियोजना के लिए केवल 20 करोड़ डॉलर का ही कर्ज स्वीकृत किया था।
मुख्यमंत्री पेयजल योजना के संबंध में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की अध्यक्षता में पहली बार 23 नवंबर 2011 को भोपाल में नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग की एक समीक्षा बैठक हुई थी, जिसमेंं पेयजल के लिए विभाग के बजट से वित्तीय संसाधन उपलब्ध करवाने पर चर्चा भी हुई थी। तब विभाग के पास उपलब्ध वित्तीय संसाधनों को ध्यान में रखते हुए योजनाएं स्वीकृत की गई थी। इस योजना में भी यूआईडीएसएसएमटी की तरह नगरीय निकायों से अंशदान प्रस्तावित किया गया तथा इसके लिए संबंधित निकायों से संकल्प पारित करवाए गए। 50 हजार से कम जनसंख्या वाले नगरीय निकायों के लिए योजना लागत का 10 फीसदी तथा शेष नगरनिकायों
के लिए 20 फीसदी अंशदान लिए जाने का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना की वित्तीय व्यवस्था में बदलाव
मुख्यमंत्री शहरी जलप्रदाय योजना की घोषणा के समय सितंबर 2011 में इस योजना के लिए आवश्यक शासकीय अनुदान विभागीय बजट से पूरा करने की बात कही गई थी। अगले 10 वर्षों के लिए बनाई गई योजना के लिए वित्तीय वर्ष 2011-12 में विभागीय बजट से 100 करोड़ रुपयों का आंकलन किया गया था। इतनी राशि की उपलब्धता के आधार पर 300 करोड़ रुपए की योजनाओं को स्वीकृति दिए जाने का लक्ष्य रखा गया था।
सितंबर 2012 में जारी विभागीय दिशा निर्देशों से योजना की वित्तीय व्यवस्था में बदलाव किए गए, जिसके तहत सभी स्थानीय निकायों को योजना लागत का 30 फीसदी राज्य शासन से अनुदान दिया जाएगा तथा 70 फीसदी राशि का नगर निकायों को कर्ज लेना होगा,
जिसके लिए राज्य सरकार गारंटी देने के साथ मिलेगा। कर्ज राशि तथा ब्याज का 75 फीसदी राज्य तथा शेष 25 फीसदी संबंधित निकाय भुगतान करेगा। राज्य शासन ने नगरनिकायों को नाबार्ड से कर्ज दिलवाने की तैयारी दर्शाते हुए इसकी ब्याज दर 11.25 फीसदी घोषित की थी।
सीएसई के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ने पानी का निजीकरण नहीं होने का दिया था आश्वासन
जबकि प्रारंभ से ही निजीकरण थोपने वाली सरकार के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 6 जुलाई, 12 को विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई)द्वारा तैयार की गई पद्मश्री सुनीता नारायण की मल-जल रिपोर्ट के लोकार्पण के अवसर पर सार्वजनिक रूप से प्रदेश में पानी का निजीकरण नहीं होने देने की घोषणा कर वाहवाही बटोर चुके हैं । मुख्यमंत्री ने कहा था-पानी पर सबका ह$क है और जनता को यह नि:शुल्क मिलना चाहिए। इसके लिए प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप जरूरी नहीं। केंद्र सरकार ने हमें पीपीपी का मॉडल सुझाया था। लेकिन यह पानी पर लागू नहीं होगा। चौबीस घण्टे और सातों दिन पानी नहीं मिले, तो भी चलेगा।
मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना के माध्यम से पानी के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। मुख्यमंत्री ने इस योजना के लिए विश्व बैंक से कर्ज लेने की गुहार लगाई है । जबकि भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पानी के निजीकरण के ऐसे प्रस्ताव का विरोध किया है। खण्डवा में भी पानी के निजीकरण का नागरिकों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा है। हाल ही पारित राष्ट्रीय जलनीति ने पानी को सम्पत्ति माना है, जिसका व्यापक विरोध हो रहा है।
क्या है मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना
मध्यप्रदेश सरकार ने प्रदेश के सभी नगरीय इकाईयों के मानक मात्रा में जलप्रदाय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना की घोषणा की है। इस योजना में एक लाख से अधिक आबादी वाले नगरों में पीपीपी के माध्यम से ही पेयजल योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाने का प्रावधान है। प्रदेश की पेयजल व्यवस्था में बड़े बदलाव के इरादे के साथ यह हो रहा है। प्रदेश के 37 शहरों में इन दिनों 493 करोड़ रुपये की लागत से मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना पर काम चल रहा है।
मुख्यमंत्री की वाशिंगटन यात्रा और कर्ज की मांग
अक्टूबर 2012 में मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना के अंतर्गत चैबीसों घंटे भुगतान युक्त जल आपूर्ति की सुविधा शुरू के लिए मुख्यमंत्री द्वारा विश्व बैंक मुख्यालय वाशिंगटन जाकर 38 करोड़ डॉलर (करीब 2 हजार करोड़ रुपए) के कर्ज की मांग की गई। इसमें मुख्यमंत्री की ओर से 20 करोड़ डॉलर के बराबर राशि प्रदेश सरकार द्वारा अपनी ओर से खर्च करने का आश्वासन भी विश्व बैंक को दिया गया है। सरकार द्वारा विश्व बैंक को दिए गए आश्वासन की राशि 20 करोड़ डॉलर (करीब 1 हजार करोड़ रुपए) उतनी ही हैं,जितनी उसने नाबार्ड से कर्ज लेनेे की घोषणा की है। जाहिर है, कि इतनी विशाल योजना के लिए प्रदेश सरकार के पास कोई आर्थिक संसाधन उपलब्ध नहीं है। विश्व बैंक को जितनी राशि का अंशदान अपने संसाधनों से जुटाने का आश्वासन दिया है, वह भी नाबार्ड के कर्ज से लेने का इरादा सरकार का दिखाई देता है।
चूंकि आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण योजना के लिए विश्व बैंक से कर्ज लिया जाना प्रस्तावित था, इसलिए योजना की शर्तों में पानी के निजीकरण को बढ़ावा दिया जाना शामिल किया गया, ताकि विश्व बैंक को कर्ज हेतु राजी किया जा सके। योजना स्वीकृति की ताजा शर्तों के अनुसार 1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरीय निकायों को अपनी जलप्रदाय योजना पीपीपी के तहत निजी कंपनियों को सौंपना आवश्यक होगा।
यदि कोई नगरीय निकाय 1 लाख से कम जनसंख्या वाला है, लेकिन उसके 20 किमी के दायरे में अन्य निकाय है, जिनकी कुल जनसंख्या 1 लाख से अधिक होती है, तो वहां समूह योजना संचालित कर पीपीपी के तहत योजना का निजीकरण किया जा सके। जबकि, अन्य निकायों को चरणबद्ध एवं समयद्ध तरीके से सुधार की प्रक्रिया जारी रखनी होगी।
नगरीय निकायों द्वारा सुधार प्रक्रिया नहीं अपनाए जाने पर राज्य से मिलने वाले अनुदान और कर्ज में कमी कर दी जाएगी। योजना का लाभ लेने वाले नगरीय निकायों को आगामी 3 वर्षों में संपत्ति कर की वसूली 85 फीसदी तक बढ़ानी होगी। विश्व बैंक के कर्ज आधारित इस वित्तीय व्यवस्था से सभी नगरनिकायों को योजना लागत का 17.5 फीसदी हिस्सा कर्ज लेना पड़ेगा। यह कर्ज राशि नगरनिकायों के आर्थिक स्थिति के हिसाब से अधिक है। इस प्रकार की वित्तीय व्यवस्था स्थानीय निकायों और उनके निवासियों पर बहुत भारी पड़ेगी, ऐसी आशंका जताई जा रही है।
उल्लेखनीय है, कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियां अपनी नीति के अनुसार अब संपूर्ण योजना लागत के बराबर कर्ज नहीं देता है तथा कर्ज चाहने वालों से उसमें अपने संसाधनों से निवेश करने का आग्रह करता है। वर्ष 2004 में स्वीकृत 43.9 करोड़ डॉलर की 'जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना' में से 39.6 करोड़ डॉलर का ही कर्ज स्वीकृत किया था। शेष 4.3 करोड़ डॉलर की राशि का निवेश राज्य सरकार को अपने संसाधनों से करना पड़ा।
एडीबी ने 30.35 करोड़ डॉलर की मध्यप्रदेश शहरी जलापूर्ति एवं पर्यावरण सुधार परियोजना के लिए केवल 20 करोड़ डॉलर का ही कर्ज स्वीकृत किया था।
मुख्यमंत्री पेयजल योजना के संबंध में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की अध्यक्षता में पहली बार 23 नवंबर 2011 को भोपाल में नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग की एक समीक्षा बैठक हुई थी, जिसमेंं पेयजल के लिए विभाग के बजट से वित्तीय संसाधन उपलब्ध करवाने पर चर्चा भी हुई थी। तब विभाग के पास उपलब्ध वित्तीय संसाधनों को ध्यान में रखते हुए योजनाएं स्वीकृत की गई थी। इस योजना में भी यूआईडीएसएसएमटी की तरह नगरीय निकायों से अंशदान प्रस्तावित किया गया तथा इसके लिए संबंधित निकायों से संकल्प पारित करवाए गए। 50 हजार से कम जनसंख्या वाले नगरीय निकायों के लिए योजना लागत का 10 फीसदी तथा शेष नगरनिकायों
के लिए 20 फीसदी अंशदान लिए जाने का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना की वित्तीय व्यवस्था में बदलाव
मुख्यमंत्री शहरी जलप्रदाय योजना की घोषणा के समय सितंबर 2011 में इस योजना के लिए आवश्यक शासकीय अनुदान विभागीय बजट से पूरा करने की बात कही गई थी। अगले 10 वर्षों के लिए बनाई गई योजना के लिए वित्तीय वर्ष 2011-12 में विभागीय बजट से 100 करोड़ रुपयों का आंकलन किया गया था। इतनी राशि की उपलब्धता के आधार पर 300 करोड़ रुपए की योजनाओं को स्वीकृति दिए जाने का लक्ष्य रखा गया था।
सितंबर 2012 में जारी विभागीय दिशा निर्देशों से योजना की वित्तीय व्यवस्था में बदलाव किए गए, जिसके तहत सभी स्थानीय निकायों को योजना लागत का 30 फीसदी राज्य शासन से अनुदान दिया जाएगा तथा 70 फीसदी राशि का नगर निकायों को कर्ज लेना होगा,
जिसके लिए राज्य सरकार गारंटी देने के साथ मिलेगा। कर्ज राशि तथा ब्याज का 75 फीसदी राज्य तथा शेष 25 फीसदी संबंधित निकाय भुगतान करेगा। राज्य शासन ने नगरनिकायों को नाबार्ड से कर्ज दिलवाने की तैयारी दर्शाते हुए इसकी ब्याज दर 11.25 फीसदी घोषित की थी।
सीएसई के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ने पानी का निजीकरण नहीं होने का दिया था आश्वासन
जबकि प्रारंभ से ही निजीकरण थोपने वाली सरकार के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 6 जुलाई, 12 को विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई)द्वारा तैयार की गई पद्मश्री सुनीता नारायण की मल-जल रिपोर्ट के लोकार्पण के अवसर पर सार्वजनिक रूप से प्रदेश में पानी का निजीकरण नहीं होने देने की घोषणा कर वाहवाही बटोर चुके हैं । मुख्यमंत्री ने कहा था-पानी पर सबका ह$क है और जनता को यह नि:शुल्क मिलना चाहिए। इसके लिए प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप जरूरी नहीं। केंद्र सरकार ने हमें पीपीपी का मॉडल सुझाया था। लेकिन यह पानी पर लागू नहीं होगा। चौबीस घण्टे और सातों दिन पानी नहीं मिले, तो भी चलेगा।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का प्रस्ताव
वहीं भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने 16-18 मार्च को नगपुर में हुई बैठक में इस जल नीति को नकारते हुए एक प्रस्ताव पारित किया- जिसमें कहा गया, कि हवा की तरह जल भी प्रकृति द्वारा नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाता है और मानव इसका लाखों वर्षों से इस्तेमाल करता आ रहा है। देश की प्राकृतिक संपदा पर सभी जीवित प्राणियों का अधिकार है। इसमें जल व हवा ही नहीं, बल्कि मिट्टी, खनिज, पशु धन, जैव विविधता एवं अन्य प्राकृतिक संसाधन पर नागरिकों का अधिकार है। इन्हें वाणिज्यिक लाभ के साधन के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।
खण्डवा में पानी के निजीकरण पर उपभोक्ता फोरम ने लगाई रोक
गौर करने वाली बात यह है, कि पानी के निजीकरण की शुरुआत खण्डवा जिले से शुरू हुई। पिछले अप्रैल से पानी के निजीकरण के खिलाफ स्थानीय समुदाय विरोध कर रहे हैं। विरोध प्रदर्शन में स्थानीय सामाजिक संगठनों के अलावा अधिवक्ता संघ, पेंशनर एसोसिएशन, व्यापारी संघ, नागरिक संगठन, राजनैतिक कार्यकर्ता सभी शामिल हैं। इस बीच आयुक्त नगर निगम की ओर से पानी के संबंध में एक अधिसूचना जारी कर दी गई। सरकार इस योजना को आगे बढ़ाने की हड़बड़ी को देखते हुए एक जनहित याचिका उपभोक्ता फोरम में दायर की गई थी। जिसपर सुनवाई के बाद फोरम ने पाया, कि अधिसूचना में कई कमियां है और इसे दूर किये जाने की जरूरत है। अपने 31 दिसम्बर के आदेश में फोरम ने आयुक्त नगर निगम को निर्देश दिया, कि वे इन आपत्तियों का निस्तारण करें।
क्या कहता है राष्ट्रीय जलनीति
सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के मुताबिक केंद्र सरकार 2015 तक सभी नागरिकों को स्वच्छ पेयजल की उपलब्ध करवाने के वायदा किया है। इसी क्रम में राष्ट्रीय जल नीति का मसौदा तैयार किया गया है।
28 दिसंबर 2012 राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करने के प्रधानमंत्री के आश्वासन और कई राज्यों के असहमति जताने के बावजूद राष्ट्रीय जल नीति को स्वीकार कर लिया गया।
प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ सकती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर आम आदमी पानी जैसी मूलभूत ज़रूरत के लिए तरस जाएगा। खेती ही नहीं पीने का पानी भी दुर्लभ हो जाएगा। नई जल नीति में नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है।
नीति के मुताबिक यह बात मान्य है , कि राज्यों को पानी के संबंध में उचित नीतियां, कानून और नियम बनाने का अधिकार है, लेकिन जल पर सामान्य सिद्धांतों की व्यापक राष्ट्रीय कानूनी रूपरेखा बनाने की जरूरत महसूस की गई ताकि प्रत्येक राज्य में जल प्रबंधन पर जरूरी विधेयक का रास्ता साफ हो और पानी को लेकर स्थानीय हालात से निपटने के लिए सरकार के निचले स्तरों पर जरूरी अधिकार हस्तांतरित किए जा सकें। जलीय क़ानूनों के लिए कानूनी रूपरेखा का सुझाव देने के साथ नीति में सभी राज्यों में जल नियामक प्राधिकरण (डब्लूआरए) बनाने का भी प्रस्ताव है, जो पानी के मूल्य तय कर सकें।
खण्डवा में पानी के निजीकरण पर उपभोक्ता फोरम ने लगाई रोक
गौर करने वाली बात यह है, कि पानी के निजीकरण की शुरुआत खण्डवा जिले से शुरू हुई। पिछले अप्रैल से पानी के निजीकरण के खिलाफ स्थानीय समुदाय विरोध कर रहे हैं। विरोध प्रदर्शन में स्थानीय सामाजिक संगठनों के अलावा अधिवक्ता संघ, पेंशनर एसोसिएशन, व्यापारी संघ, नागरिक संगठन, राजनैतिक कार्यकर्ता सभी शामिल हैं। इस बीच आयुक्त नगर निगम की ओर से पानी के संबंध में एक अधिसूचना जारी कर दी गई। सरकार इस योजना को आगे बढ़ाने की हड़बड़ी को देखते हुए एक जनहित याचिका उपभोक्ता फोरम में दायर की गई थी। जिसपर सुनवाई के बाद फोरम ने पाया, कि अधिसूचना में कई कमियां है और इसे दूर किये जाने की जरूरत है। अपने 31 दिसम्बर के आदेश में फोरम ने आयुक्त नगर निगम को निर्देश दिया, कि वे इन आपत्तियों का निस्तारण करें।
क्या कहता है राष्ट्रीय जलनीति
सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के मुताबिक केंद्र सरकार 2015 तक सभी नागरिकों को स्वच्छ पेयजल की उपलब्ध करवाने के वायदा किया है। इसी क्रम में राष्ट्रीय जल नीति का मसौदा तैयार किया गया है।
28 दिसंबर 2012 राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करने के प्रधानमंत्री के आश्वासन और कई राज्यों के असहमति जताने के बावजूद राष्ट्रीय जल नीति को स्वीकार कर लिया गया।
प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ सकती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर आम आदमी पानी जैसी मूलभूत ज़रूरत के लिए तरस जाएगा। खेती ही नहीं पीने का पानी भी दुर्लभ हो जाएगा। नई जल नीति में नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है।
नीति के मुताबिक यह बात मान्य है , कि राज्यों को पानी के संबंध में उचित नीतियां, कानून और नियम बनाने का अधिकार है, लेकिन जल पर सामान्य सिद्धांतों की व्यापक राष्ट्रीय कानूनी रूपरेखा बनाने की जरूरत महसूस की गई ताकि प्रत्येक राज्य में जल प्रबंधन पर जरूरी विधेयक का रास्ता साफ हो और पानी को लेकर स्थानीय हालात से निपटने के लिए सरकार के निचले स्तरों पर जरूरी अधिकार हस्तांतरित किए जा सकें। जलीय क़ानूनों के लिए कानूनी रूपरेखा का सुझाव देने के साथ नीति में सभी राज्यों में जल नियामक प्राधिकरण (डब्लूआरए) बनाने का भी प्रस्ताव है, जो पानी के मूल्य तय कर सकें।
Monday, January 7, 2013
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