Thursday, September 23, 2010
बेटियों को भी मौका दीजिए
रूबी सरकार
24 सितम्बर अंतर्राष्टÑीय बालिका दिवस घोषित करने के पीछे लैंगिक असमानता खत्म करना और दुनियाभर में हाशिए पर जीवन जी रही लड़कियों को स्थाई
समाम्मान के प्रति लोगों को जागरूक करना है । भारत में 1000 पुरुषों के पीछे 933 महिलाएं समाज के सामने एक चुनौती है। 1981 से यह लिंग अनुपात लगातार गिर रहा है, बालिकाओं के पक्ष में यह आंकड़ा निरंतर कम से कम होता जा रहा है। शहरी क्षेत्रों में यह गिरावट और भी तेजी से हो रही है। हरियाणा में
एक हजार बालकों के पीछे 803 बालिकाएं ही है, जबकि पंजाब में मात्र 775 हैं। राजस्थान, बिहार उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश में लिंगानुपात आठ
सौ का आंकड़ा पार नहीं कर पाया है। केवल केरल ही ऐसा राज्य हैं जहां एक हजार बालकों के पीछे 1058 लड़कियां हैं। इसके पीछे सबसे मुख्य कारण
रूढ़िवादिता,अशिक्षा ही है।
दुनिया अब भारत की बढ़ती ताकत को सलाम कर रही है। अमेरिका की एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया का तीसरा सबसे ताकतवर राष्टÑ है। रिपोर्ट में यह
संभावना व्यक्त की गई है कि 2025 तक भारत का दबदबा और बढ़ेगा। लेकिन क्या यह लैंगिक असमानता, अशिक्षा को दूर किए बिना संभव है? आच्छी आबादी को
नजरअंदाज कर भारत कभी भी पूरी तरह ताकतवर नहीं हो पाएगा। महिलाओं से जुड़े अनेक मुद्दे ऐसे है, जो अभी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। अगर शिक्षा
की ही बात की जाए, तो समाज के विकास , आ.ाुनिकीकर.ा, उद्योग और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि देश का हर नागरिक शिक्षित हों।
60 फीसदी महिलाएं निरक्षर
महिलाओं को शिक्षित बनाने में कई योजनाएं पहले से ही काम कर रही है। इसमें मीसा पहल प्रमुख है। हर राज्य के ब्लाक स्तर तक मी.ाा उत्सव के माध्यम से
लड़कियों को स्कूल भेजने का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। स्कूली स्तर पर शिक्षकों को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे शिक्षा के मायम से कन्या भ्रूण हत्या और लिंग
अनुपात कम करने की दिशा में पहल करें। साथ ही स्वास्थ्य और स्वच्छता, मध्याहन भोजन की गुणवत्ता की निगरानी , कलस्टर स्तर पर बाल मेलों के आयोजन कर शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें। प्रत्येक जिले में शिक्षा के साथ-साथ कालीन बुनाई, हस्तशिल्प, खाद्य प्रसंस्करण, चित्रकला और आत्म रक्षा के प्रशिक्षण पर जोर दिया गया। देश में सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में 60 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं। इनमें करीब 40 फीसदी महिलाएं शहरी हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद
अनुसूचित जाति की बालिकाओं में साक्षरता दर अप्रत्याशित रूप से 60 फीसदी से कम है। करीब 21 फीसदी लड़कियां बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। हालांकि हाल के वर्षों में कम हुई है। फिर भी बिहार महिलाओं को शिक्षित करने में सबसे पीछे है। यहां 33 फीसदी महिलाएं ही शिक्षित हैं। बिहार के अलावा हिन्दी भाषी प्रदेशों में राजस्थान 44 फीसदी, उत्तर प्रदेश 43 फीसदी, झारखण्ड 40 फीसदी और मध्यप्रदेश में 77 फीसदी लड़कों के मुकाबले मात्र 50 फीसदी महिलाएं ही शिक्षित हैं। जबकि केंद्र शासित दादरा नागर हवेली में 43 फीसदी, अरूणाचल में 44 और जम्मू-कश्मीर में 42 फीसदी महिलाएं ही शिक्षित हैं। बेटियों के प्रति उदासीनता,गरीबी, परेशानी, स्कूल की दूरी, स्वास्थ्य संबंधी परेशानी या काम में ज्यादा रुचि, स्कूल में शैचालय न होना या कभी-कभी शिक्षकों का व्यवहार भी लड़कियों को स्कूल छोड़ने पर मजबूर करने के मुख्य कारण हैं। नियमों के अनुसार आज भी 24 फीसदी स्कूल एक किलोमीटर के दायरे में नहीं है।
लिहाजा दूरी के कारण माता-पिता लड़कियों को स्कूल नहीं भेज पाते। पढ़ाई के बजाय ये लड़कियां खेत या .ार के काम में ज्यादा व्यस्त रहती है।
अनिवार्य शिक्षा अधिनियम
आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का प्रावधान राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत
किया। बाद में वर्ष 2002 में संविधान संशोधन के जरिए 6 से 14 साल के बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया। इस मौलिक अधिकार की गारंटी देने के लिए नया कानून मुफ्त और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 बनाया गया और देश में यह एक अप्रैल, 2010 से प्रभावशील हो गया है।
इस कानून के तहत शिक्षा,पोषण आहार के साथ-साथ स्वास्थ्य की जांच को भी शामिल किया गया है। साथ ही प्राईवेट स्कूलों में 25 फीसदी स्थान कमजोर वर्गों के लिए
आरक्षित रखने का निर्देश भी दिया है। सरकार के पास 16 लाख प्राइमरी स्कूल है और इनमें से 43 फीसदी स्कूलों में ही कम्प्यूटर सुविधा उपलब्ध है। अगर 40 करोड़ बच्चे स्कूल जाना चाहे, तो सरकार के पास अभी भी इतने बच्चों के लिए स्कूल नहीं है। इसके अलावा 65 लाख औपचारिक शिक्षकों के सामने स्कूलों में पढ़ाई के साथ-साथ स्वच्छता और स्वास्थ्य की जांच करवाना भी चुनौती है। लड़कियों के शरीर में हार्मोनल परिवर्तन के कारण उनके लिए यौन शिक्षा की व्यवस्था भी सरकार को करनी होगी । हालांकि शहरी स्कूल के पाठ्यक्रमों में यौन शिक्षा पहले से ही मौजूद है।
भारत में अधिकतर लड़कियां रक्त अल्पतासे ग्रस्त हैं और कम उम्र में शादी और मां बनना उनकी नियति बन गई है। शिक्षा के माध्यम से इस अभिशाप को खत्म करना
एक अलग तरह चुनौती है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए मानव संसाधान विकास मंत्रालय ने अंबानी घराने की नीता अंबानी, सांसद सुप्रिया सुले, स्व. राजीव गांधी की
बेटी प्रियंका वाड्रा एवं सांसद कानिमोझी को दूत बनाया है। बेहतर होता यदि इन महिलाओं को बालिकाओं की बुनियाद मजबूत करने में किया गया होता । यदि
महिलाएं शिक्षित और जागरूक होगी, तो निश्चित रूप से देश मजबूत होगा।
रूबी सरकार
खामोशी से गायब होतीं बेटियां
- भारत में प्रति एक हजार बालकों में 933 बालिकाएं
- मध्यप्रदेश में प्रति एक हजार बालकों में 912 बालिकाएं
- छत्तीसगढ़ राज्य बेहतर एक हजार बालकों के पीछे 990 बालिकाएं
भोपाल। भारत में लड़कियों की जनसंख्या लड़कों के मुकाबले लगातार गिरता जा रहा है। विषम लिंग अनुपात से सामाजिक ढांचा बिगड़ने का खतरा मंडराने लगा है। 2005 में जहां लड़कियों की जन्मदर 33 फीसदी थी, वहीं 2005 में यह 31.9 फीसदी ही रह गयी है। मध्यप्रदेश में यह गिरावट लगातर जारी है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में अब एक हजार लड़कों के मुकाबले मात्र 912 लड़कियां ही रह गई हैं। भिंड, मुरैना, ग्वालियर और दतिया में यह स्थिति और भी भायावह है। मुरैना में 1000 लड़कों के पीछे 837 लड़कियां, भिंड में 832, ग्वालियर में 853 और
दतिया में यह मात्र 874 ही रह गई है। शहरी क्षेत्रों में यह गिरावट बहुत तेजी से बढ़ रही है। जबकि सुखद आश्चर्य यह है कि छत्तीसगढ़ पिछड़ा
राज्य होने के बावजूद यहां लिंगानुपात बहुत कम है। मध्यप्रदेश सरकार दावे के साथ कहती है कि लाडली लक्ष्मी योजना से लोगों के सोच में बदलाव आया है। सरकार के अनुसार अब समाज बेटियों को बोझ न मानकर इस योजना का लाभ ले रहे हैं, जिससे लिंगानुपात पहले के मुकाबले अब सुधारने लगा है।
24 सितम्बर को अंतर्राष्टÑीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाना है। लेकिन इसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मंदिर-मस्जिद विवाद का फैसला सुनाया जाना है, जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई हैं। लिहाजा केंद्र और प्रदेश सरकारें कानून व्यवस्था बनाए रखने की जद्दोजहद में जुटी हुई हैं। नतीजा यह है कि कहीं बेटियों के पक्ष में कोई आयोजन होने पर संदेह जताया जा रहा है। इस दिन स्कूलों एवं अन्य संस्थाओं में बेटियों को बचाने के लिए भरवाए जाने वाले शपथ-पत्र भी कानून व्यवस्था के चपेटे में आ सकता है। रस्मी आयोजनों की अनुमति को लेकर भी सरकार भी दुविधा में हैं। जाहिर है कि बेटियां इस समय सरकार की राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा नहीं है। बेटियों को बचाने के लिए सरकार के पास कोई समग्र दृष्टिकोण नहीं है। जिससे परिणाममूलक ढांचा खड़ा किया जा सके। विडम्बना यह है कि केंद्र के पास भी लिंगानुपात को रोकने के लिए कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है। 1994 में बनी पीएनडीटी एक्ट भी कन्या भ्रूण को सुरक्षित रखने में सफल नहीं है।
उत्तर केंद्र सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दूत के रूप में नीता अंबानी, प्रियंका गांधी वाड्रा, सुप्रिया सुले और कानीमोझी को नियुक्त किया है। ये महिलाएं शक्तिशाली पुरुषों की बेटियां या बीवीयां हैं। बेहतर होता अगर सरकार इनका उपयोग बेटियों को बचाने के लिए करे।
उत्तर, यूनिसेफ के अनुसार दो दशकों में पांच वर्ष की उम्र से पहले ही बच्चों की मौत होने के मामले में कोई खास कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्टÑ बाल कोष शाखा के मुताबिक 70 फीसदी बच्चों की मौत एक पहले साल में ही हो जाती है। अगर शिशु मृत्यु दर में कमी लाने की गति ऐसी ही रही, तो 2015 तक इसमें कमी लाने के लिए निर्धारित सहस्रादी विकास लक्ष्यों को हासिल कर पाना मुश्किल होगा।
रूबी सरकार
Thursday, August 19, 2010
‘है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं’
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित साहित्यिक-मासिक पत्र नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक जिसे उसके संपादक रवीन्द्र कालिया ने सुपर बेवफाई विशेषांक दो कहा है, में प्रकाशित हिन्दी कााकार एवं महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय का, उसी विश्वविद्यालय में कार्यरत राकेश मिश्र द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। जो इन दिनों विवाद का विषय बना हुआ है। उस साक्षात्कार में श्री राय ने हिन्दी जगत में जारी नारी विमर्श को स्त्री लेखकों के बीच छेड़ी सबसे बड़ी छिनाल कौन प्रतिस्पर्द्धा तक सीमित करके देखा है, एक लेखिका की सद्य प्रकाशित आत्मकाा को अपनी ओर से ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ का शीर्षक भी दे दिया है। साक्षात्कार में आगे हंस के संपादक एवं कााकार राजेन्द्र यादव और कााकार दूधनाथ सिंह पर भी आक्रामक वक्तव्य हैं। यह तो खैर साहित्य के गुटबंदी या कि खेमेबाजी का परिचायक है, लेकिन छिनाल शब्द के इस्तेमाल ने हिन्दी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं की लेखिकाओं को भी उत्तेजित कर दिया है। कहना न होगा कि अपने साक्षात्कार में राय भारतीय समाज की जिस पितृसथात्मक संरचना और सामंती मानसिकता को नारी की दोयम दर्जे की सिति के लिए जिम्मेदार ठहराते है, यह शब्द वहीं से निकलकर आया हुआ है। स्वयं राय की पृष्ठभूमि सामंती रही है और ऊपर से वे भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं, गोया करैला और ऊपर से नीमचढ़ा ।
हालांकि राय ने छिनाल को संस्कृत के ‘छिन्ननाल’ यानी मूल से कटा हुआ से संबंधित करके अपना बचाव करने की कोशिश की है। मेरी दृष्टि में ‘छिनाल’ शब्द मूलत: छिनार है, जो नार यानी स्त्री के पहले निन्दासूचक उपसर्ग छि यानी संस्कृत में छि: लगाने से बना है। संस्कृत में जिसे पुंश्चली कहते है, देशज जबान में उसी को छिनाल कहा जाता है।
बेशक यह नारी निंदक शब्द है। तो हिन्दी की लेखिकाएं , पाठिकाएं, छात्राएं और सचेत स्त्रियां ही नहीं, बल्कि स्त्री को समादर देने वाले पुरुष लेखक और पाठक भी अतिशय क्षुब्ध हैं। कुलपति पद से उनके इस्तीफे की मांग की जा रही है। नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया पर भी बूरी बीत रही है, उन्हें भी नया ज्ञानोदय के संपादक तथा भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक के पद से हटाने की मांग उठ रही है।
जो भी हो, इस वाक्य से भारतीय समाज में स्त्री को- विशेषकर मानसिक आजादी की जीवन जीना चाहती स्त्री को- किन निगाहों से देखा जाता है- इस तय की झलक मिलती है। अगर साहित्यिक समाज में ही स्त्री की कलम पर अघोषित पाबंदी लगी हो तो शेष समाज में मुंहदुब्बर स्त्री पर बलात् लादे गए गूंगेपन कल्पना की जा सकती है। यह वही भारतीय स्त्री है, जिसने तमाम लोकगीत रचे हैं और वेदों के रचनाकाल में भी ऋषिका के रूप में सक्रिय रही हैं। आज वह अपना जीया हुआ सच लिख रही है तो आपका जी क्यों कूढ़ता है मिस्टर राय? यह तो पूछा ही जा सकता है।
रूबी सरकार
Thursday, July 29, 2010
उर्मिला सिंह: रियासत से राजभवन तक
अनुसूचित जाति- जनजाति की पूर्व राष्टÑीय अध्यक्ष और वरिष्ठ कांग्रेस नेता श्रीमती उर्मिला सिंह 25 जनवरी, 2010 को हिमाचल प्रदेश की राज्यपाल का पदभार संभाला और इस तरह वे श्रीमती सिंह देश की प्रथम महिलाधिन आदिवासी राज्यपाल बन गर्इं।
सदियों से शोषण और उत्पीड़न झेलते आ रहे आदिवासी समाज को शिक्षा के साधन उपलब्ध करवाने और उन्हें मुख्यधारा में लाने के उर्मिला जी के प्रयास सराहनीय हैं। अपनी सरलता और मृदुभाषिता से वे मिलने वाले व्यक्ति को पहली मुलाकात में ही प्रभावित कर लेती हैं। कठिन से कठिन समय में भी उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रहती है। वे जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंदजी की समर्पित शिष्या भी हैं।
भारत की आजादी के एक वर्ष पूर्व 6 अगस्त, 1946 को अपनी मौसी के घर फिंगेश्वर, रायपुर (छत्तीसगढ़) में उर्मिला जी का जन्म हुआ। प्राथमिक शिक्षा फिंगेश्वर से ग्रहण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे रायपुर आ गर्इं और यहीं से उन्होंने बीए, एलएलबी की उपाधि प्राप्त की। उनका विवाह राजनीति में गहरी पकड़ रखने वाले सरायपाली (अब छत्तीसगढ़ में) के राजपरिवार में हुआ। उनकी सास श्याम कुमारी देवी सांसद थीं और पति वीरेन्द्र बहादुर सिंह अविभाजित मध्यप्रदेश में विधायक रहे। हालांकि उर्मिला जी को राजनीति विरासत में ही मिल गई थी। उनके दादा शहीद राजा नटवर सिंह उर्फ लल्ला को ब्रिटिश शासकों ने फांसी की सजा दी थी । परिवार के अन्य सदस्यों को भी कालापानी की सजा मिली थी।
सामाजिक न्याय एवं आदिवासी कल्याण मंत्री रहते हुए उर्मिला जी ने सुदूर ग्रामीण अंचलों में आदिवासी छात्रावास शुरू करवाने के लिए जो बीड़ा उठाया था, वह आगे चलकर मील का पत्थर साबित हुआ। आदिवासियों के प्रति उनकी संवेदना इस हद तक है, कि हिमाचल प्रदेश में राज्यपाल का पद ग्रहण करते ही वे सबसे पहले शिमला स्थित आदिवासी छात्रावास देखने गर्इं, जहां अनियमितताओं और यौन शोषण का गंभीर मामला उनके सामने आया। उनके इस आकस्मिक निरीक्षण से हिमाचल प्रदेश में हलचल मच गई थी।
पहली बार उर्मिला जी 1977 में जनता पार्टी की टिकट पर घंसौर से चुनाव लड़ी, लेकिन वे चुनाव जीतने में असफल रहीं। 1985 में वे पुन: घंसौर (सिवनी) से ही कांग्रेस पार्टी की ओर से विधानसभा चुनाव लड़ीं और विधान सभा सदस्य बनीं। इसके बाद इसी क्षेत्र से वे 1990 में भाजपा के डालसिंह से चुनाव हार गर्इं। पुन: 1998 में वे इसी विधान सभा क्षेत्र से सदस्य चुनी गर्इं। प्रदेश सरकार के मंत्रिमण्डल में 1993 में उन्हें शामिल कर वित्त और दुग्ध विकास की जिम्मेदारी सौंपी गई। उर्मिला जी पहली ऐसी महिला हैं, जो मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी में 1996-98 तक अध्यक्ष रहीं। उनके अध्यक्ष पद पर रहते हुए कांग्रेस पार्टी को विधान सभा चुनाव में प्रदेश की सभी आदिवासी क्षेत्र में विजय हासिल हुई थी। संभवत: इसलिए उन्हें 1998 में सामाजिक न्याय एवं आदिवासी कल्याण मंत्री का पदभार सौंपा गया। इस मंत्री पद पर वे 2003 तक रहीं। इस विभाग का दायित्व मिलने पर आदिवासियों के हित में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय- जिसमें आदिवासी क्षेत्रों में जल संरक्षण एवं प्रबंधन का कार्य उल्लेखनीय है, उन्होंने लिए। उनकी क्षमता को देखते हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने उन्हें राष्टÑपति चुनाव के दौरान उड़ीसा का निर्वाचन अधिकारी बनाया था। श्रीमती उर्मिला सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी तथा अनुशासनात्मक कार्यवाही समिति में निर्विवाद सदस्य के रूप में भी जानी जाती हैं। 18 जून, 2007 से 24 जनवरी, 2010 तक वे अनुसूचित जाति एवं जनजाति राष्टÑीय आयोग की अध्यक्ष रही हैं।
श्रीमती सिंह मध्य प्रदेश में समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष (1988-89),
केन्द्र सरकार में समाज कल्याण बोर्ड की सदस्य (1978-90), सदस्य
मध्यप्रदेश अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण सलाहकार समिति (1978-80), सदस्य राष्टÑीय खाद्य एवं पोषण बोर्ड (1986-88), संस्थापक सदस्य उज्जैन सिटीजन फोरम (1988), अध्यक्ष मध्य प्रदेश आदिवासी महिला संगठन (1993) के साथ ही प्रदेश के अनेक सामाजिक संगठनों से जुड़कर स्वैच्छिक सेवा प्रदान करती रही हैं। भारतीय संविधान समिति की सदस्य के रूप में वे प्राय: सभी यूरोपीय देशों का दौरा कर चुकी हैं।
Saturday, July 24, 2010
प्रदेश की पहली पैंटालून फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल नेहा हिंगे
पैंटालून फेमिना मिस इंडिया 2010 प्रतियोगिता में देवास की नेहा हिंगे मिस इंडिया इंटरनेशनल चुनी गर्इं। इत्तेफाक से इसी दिन 30 अप्रैल, 1986 को नेहा का जन्म हुआ था। 5 फीट आठ इंच लम्बाई के कारण महात्वाकांक्षी नेहा जब आठ वर्ष की थी, तभी से ग्लैमर दुनिया में जाने का सपना देखती रही। स्कूल में उसने पढ़ाई के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों, खेल-कूद में भी वे बढ़चढ़ कर भाग लेती रही।
उनकी प्राथमिक शिक्षा सेंट मेरी कॉनवेंट में हुई। इसी कॉनवेंट से 10वीं की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बीसीएम स्कूल में दाखिला लिया। 86 फीसदी अंकों के साथ उसने 12वीं की परीक्षा पास की। इसके बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए नेहा ने पुणे डीवाय पाटिल कॉलेज में प्रवेश लिया। सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही उसने मिस इंडिया प्रतियोगिता में भाग लिया। नेहा के पिता श्री दिलीप हिंगे टाटा एक्सपोर्ट कंपनी में मुलाजिम हैं और मां श्रीमती प्रतिभा हिंगे साधारण गृहिणी।
इंदौर में प्रतियोगिता के लिए चुने जाने के बाद नेहा को 40 दिन तक औपचारिक प्रशिक्षण से गुजरना पड़ा। जहां उसने आत्मविश्वास के साथ प्रतियोगिता में जीत हासिल करने की बारीकियां सीखीं। प्रतियोगिता के दौरान जब मंच पर उससे पूछा गया कि उनका ड्रीम रोल कौन सा है, तो उसने फिल्म ब्लैक में रानी मुखर्जी की भूमिका का उल्लेख किया।
Tuesday, July 20, 2010
नर्मदा घाटी आंदोलन की सर्वेसर्वा मेधा पाटकर
साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम भारत में क्षेत्र के विकास की बातें चल रही थी। सरकार को लगा, बड़े-बड़े बांध बना देने से नर्मदा घाटी क्षेत्र का विकास होगा। इसी योजना के तहत 1979 में सरदार सरोवर परियोजना बनाई गई। परियोजना के अंतर्गत 30 बड़े, 135 मझोले और 3000 छोटे बांध बनाये जाने का प्रावधान था। परियोजना के अवलोकन के लिए 1985 में मेधा पाटकर नेअपने कुछ सहकर्मियों के साथ नर्मदा घाटी क्षेत्र का दौरा किया। उन्होंने पाया, कि परियोजना के अंतर्गत बहुत सी जरूरी चीजों को नजरअंदाज किया जा रहा है। मेधा इस बात को पर्यावरण मंत्रालय के संज्ञान में लाई । फलस्वरूप परियोजना को रोकना पड़ा, क्योंकि पर्यावरण के निर्धारित मापदण्डों पर वह खरी नहीं उतर रही थी और बांध निर्माण में व्यापक तौर पर क्षेत्र का अध्ययन नहीं किया गया था।
मेधा ने यह भी पाया, कि बांध के कारण डूब में आने वाले इलाकों के लोग अपने अस्तित्व को लेकर सशंकित थे। मेधा ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए उनकी चिंताओं से सरकार को अवगत कराया तथा सरकार की बात लोगों तक पहुंचाई। मेधा ने सार्वजनिक रूप में कहा कि वह बांध का विरोध नहीं कर रही हैं, विस्थापितों के समुचित पुर्नवास के लिए सरकार से उनकी लड़ाई जारी रहेगी। देखते ही देखते मेधा नर्मदा घाटी आंदोलन की सर्वेसर्वा बन गर्इं।
मेधा का जन्म पहली दिसम्बर,1954 को हुआ । स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्राी वसंत खानोलकर और सामाजिक कार्यकर्ता इंदु खानोलकर जो महिलाओं के शैक्षिक, आर्थिक और स्वास्य के विकास के लिए काम करती थीं-की इस बेटी की परवरिश मुबंई के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में हुई। माता-पिता की प्रेरणा से वह उपेक्षितों की आवाज बनीं ।
शुरू से ही समाजिक कार्य में रुचि के कारण मेधा टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस, मुबंई से 1976 में समाज सेवा की मास्टर डिग्री हासिल की। तत्पश्चात् पांच साल तक मुंबई और गुजरात की कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं के साथ जुड़कर काम करना शुरू किया। साथ ही टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस में स्रातको?ार विद्यार्थियों को पढ़ाने लगी। तीन साल 1977-1979 तक उन्होंने इस संस्थान में अध्यापन का काम किया। विद्यार्थियों को समाज विज्ञान के मैदानी क्षेत्र में काम करने का तरीका भी उन्होंने सिखाया। अध्यापन के दौरान ही शहरी और ग्रामीण सामुदायिक विकास में पीएचडी के लिए पंजीकृत हुई । इस बीच वे परिणय-सूत्र में बंधी, लेकिन यह रिश्ता ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाया और दोनों आपसी सहमति से अलग हो गए।
समाज कार्य में सक्रिय मेधा की पीएचडी की तैयारी भी चल रही थी, लेकिन पढ़ाई को अपने काम में बाधक बनते देख उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और पूरी तरह समाज सेवा में जुट गर्इं।
1986 में जब विश्व बैंक ने राज्य सरकार और परियोजना के प्रमुख लोगों को परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहायता मुहैया कराने की बात की तो मेधा पाटकर ने सोचा कि बिना संगठित हुए विश्व बैंक को नहीं हराया जा सकता। उन्होंने मध्य प्रदेश से सरदार सरोवर बांध तक अपने साथियों के साथ मिलकर 36 दिनों की यात्रा की। यह यात्रा राज्य सरकार और विश्व बैंक को खुली चुनौती थी। इस यात्रा ने लोगों को विकास के वैकल्पिक स्रोतों पर सोचने के लिए मजबूर किया। यह यात्रा पूरी तरह गांधी के आदर्श अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित थी। यात्रा में शामिल लोग सीने पर दोनों हाथ मोड़कर चलते थे। जब यह यात्रा मध्य प्रदेश से गुजरात की सीमा पर पहुंचीं तो पुलिस ने यात्रियों के ऊपर हिंसक प्रहार किए और महिलाओं के कपड़े भी फाड़े। यह सारी बातें मीडिया में आते ही मेधा के संघर्ष की ओर लोगों का ध्यान गया औैर उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत की। मेधा पाटकर ने परियोजना रोकने के लिए संबंधित अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के सामने धरना-प्रदर्शन करना शुरू किया। सात सालों तक लगातार विरोध के बाद विश्व बैंक ने हार मान ली और परियोजना को आर्थिक सहायता देने से मना कर दिया। लेकिन विश्व बैंक के हाथ खींच लेने के बाद केंन्द्र सरकार अपनी ओर से परियोजना को आर्थिक मदद देने के लिए आगे आ गई।
जब नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे बांध की ऊंचाई बढ़ाने का सरकार ने फैसला लिया, तो इसके विरोध में मेधा पाटकर 28 मार्च,2006 को अनशन पर बैठ गईं। उनके इस कदम ने एक बार फिर पूरी दुनिया का ध्यान उनकी तरफ खींचा। उन्होंने बांध बनाए जाने के खिलाफ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन वह खारिज कर दी गई। मध्य प्रदेश और गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र के जरिए नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाया कि वे प्रभावित परिवारों के लिए चल रहे राहत व पुर्नवास कार्यों में विदेशियों की मदद से बाधा पहुंचा रहे हैं। दोनों राज्य सरकारों ने उनपर राष्टÑद्रोह का आरोप लगाते हुए सीबीआई से जांच की मांग की। आज भी मेधा विस्थापितोंं की लड़ाई लड़ रही हैं। उनका कहना है कि सालों से चल रही यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक सभी प्रभावित परिवारों का पुर्नवास सही ढंग से नहीं हो जाता।
पुरस्कार एवं सम्मान
1-निसर्ग प्रतिष्ठान, सांगली द्वारा निसर्ग भूषण पुरस्कार-1994
2- श्रीमती राजमति नेमगोण्डा पाटिल ट्रस्ट द्वारा जनसेवा पुरस्कार-1995
3- स्व. श्री रामचंद्र रघुवंशी काकाजी स्मृति, उज्जैन क ी ओर से राष्टÑीय क्रांतिवीर अवार्ड- 2008
4- रूईया कॉलेज एल्यूमिनी एसो. की ओर से %वैल आॅफ रूईया-2009
5- सोसाइटी आॅफ वैनगार्ड, औरंगाबाद की ओर से श्री प्रकाश चि?ागोपेकर स्मृति पुरस्कार- 1995
6- जस्टिस केएस हेगडे फाउण्डेशन अवार्ड, मैंगलोर-1994
7- प्रेस क्लब, अंजड़ की ओर से अवार्ड आॅफ आॅनर- 1994
8- स्व. जमुनाबेन कुटमुटिया महाराष्टÑ गो विज्ञान समिति, मालेगांव, नासिक की ओर से लोक सेवक पुरस्कार- 1995
9- स्वर्गीय बेरिस्टर नाथ पई अवार्ड
10- छात्र भारती अवार्ड
11- प्रभा पुरस्कार
12- जमुनाबेन कुटमुटिया स्त्री शक्ति पुरस्कार-1995
13- निसर्ग सेवक पुरस्कार- 1995
14- डॉ एमए थॅमस ह्यूमन राइट्स अवार्ड- 1999
15- महात्मा फुले अवार्ड- 1999
16- दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड- 1999
17- जनसेवा पुरस्कार- 1995
18-राइट लाइफहुड अवार्ड (आल्टरनेटिव नोबेल प्राइज),स्वीडेन-1992
19- गोल्डन एन्वायरमेंट प्राइज-1993
20-बेस्ट इंटरनेशनल पॉलिटिकल केम्पेनर, बीबीसी, इंग्लैण्ड की ओर से ग्रीन रिवन अवार्ड - 1995
21- एमीनेस्टी इंटरनेशनल, जर्मनी की ओर से ह्यूमन राइट्स डिफेन्डर अवार्ड - 1999
Thursday, July 15, 2010
नारी जीवन की चितेरी मेहरुन्निसा परवेज
श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज मानवीय संवेदनाओं की मार्मिके अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती हैं। उनकी रचनाओं में महिलाओं और आदिवासियों की दयनीय स्थिति, गरीबी और शोषण की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।
मेहरुन्निसा जी के पूर्वज करीब सौ साल पहले पेशावर से हिन्दुस्तान आए थे। दादा अ?दुल हबीब खान लाँजी तहसील के बहेला गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। पिता अ?दुल हमीद खान बालाघाट में डिप्टी कलेक्टर और अम्मी मुगलिया खानदान की बेटी शहजादी बेगम एक कुशल गृहिणी रहीं।
श्रीमती परवेज के जन्म की कहानी भी दिलचस्प है। मां शहजादी बेगम प्रसव के लिए 10 दिसम्बर,1944 को बैलगाड़ी से गोंदिया (जो उस वक्त अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था) जा रही थीं। बीच रास्ते में ही आम गांव नदी के किनारे मेहरुन्निसा ने जन्म लिया। वहीं से तुरंत पालकी द्वारा उन्हें बहेला गांव लाया गया। बचपन में अपने परिवेश से निर्भयता, उदारता और लगनशीलता के गुण अर्जित कर चुकी मेहरुन्निसा जी ने बस्तर कॉलेज से हिन्दी साहित्य में स्रातको?ार की उपाधि हासिल की और तभी से ही वे निरंतर उपन्यास एवं लघु कहानियां लिख रही है।
उनकी पहली कहानी 1963 में हिन्दी साप्ताहिक धर्मयुग में प्रकाशित हुई। राष्टÑीय-अन्तर्राष्टÑीय स्तर की अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मेहरुन्निसा जी को भारत सरकार ने उनके असाधारण लेखन और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 2005 में पद्मश्री अलंकरण से अलंकृत किया। इस तरह पद्मश्री सम्मान पाने वाली मध्य प्रदेश की वे पहली लेखिका बन गर्इं।
सन् 1978 में उनकी मुलाकात भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भागीरथ प्रसाद से हुई। दोनों एक-दूसरे के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए, कि परिणय सूत्र में बंध गए। विवाह के बाद उन्होंने दो बच्चों को जन्म दिया । लेकिन उनका बेटा समर 18 वर्ष की अल्प आयु में ही चल बसा। बेटे की आखिरी दिनों में मेहरुन्निसा जी के मन में मची सम्पूर्ण उथल-पुथल और स्मृतियों को उन्होंने समरांगण उपन्यास में चित्रित किया है। उनकी बेटी सिमाला प्रसाद रा%य पुलिस सेवा की अधिकारी हैं।
15 से अधिक साहित्यिक कृतियों की लेखिका मेहरुन्निसा परवेज को ‘कोरजा’ उपन्यास पर वर्ष 1980 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा अखिल भारतीय महाराजा वीरसिंह देव पुरस्कार प्रदान किया गया है। इसी उपन्यास पर उ?ार प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ ने भी इन्हें सम्मानित किया । ‘आंखों की दहलीज’ ‘अकेला पलाश’, ‘पासंग’, ‘समरांगण’, ‘समर’, ‘लाल गुलाब’, ‘सोने का बेसर’, ‘उसका घर’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। अतीत के टुकड़ों को जोड़कर उन्होंने बस्तर की कहानियां लिखीं। रतलाम के पास बसे बांछड़ा समुदाय की महिलाओं की वेदना पर उन्होंने शोध किया है। ‘म्हारा गोरी सी हथेली छाला पड़ गया म्हारोजी ’नामक पुस्तक में स्त्रियों की दशा का चित्रण किया है।
‘आदम और हव्वा’, ‘गलत पुरुष’ ‘टहनियों पर धूप’, ‘फाल्गुनी’ एवं ‘अम्मी’ उनके कहानी संग्रह है। उनकी कहानियां धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका आदि राष्टÑीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। कुछ कहानियां मध्य प्रदेश, दिल्ली, आगरा, केरल के शिक्षा मंडल विश्वविद्यालय द्वारा पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं।
उनकी प्राय: सभी रचनाएं भारतीय भाषाओं में अनुदित हुई हैं। 1982-83 में उनके उपन्यास ‘उसका घर’, ‘आंखों की देहलीज’ कन्नड़ भाषा में प्रकाशित हुई है। पंजाब, मेरठ, जयपुर विश्वविद्यालयों में इनकी रचनाओं पर शोध कार्य
हुआ है। सन् 1995 में उनकी कहानियों ‘झूठन’, ‘सोने का बेसर’ और ‘फाल्गुनी’ पर दिल्ली दूरदर्शन ने धारावाहिक का निर्माण किया है। इसके अलावा मेहरुन्निसा जी स्वयं वेश्यावृ?िा पर ‘लाजो बिटिया’ 1997 में एवं निर्माण किया है।
वीरांगना रानी अवंतीबाई’ पर 1998 में धारावाहिक का निर्माण किया है।
वे सन् 1974 में बाल एवं परिवार कल्याण परियोजना, जिला बस्तर की अध्यक्ष रही हैं। आकाशवाणी सलाहकार समिति की सदस्य, 1977 में बस्तर जिले की ओर से समाज कल्याण परिषद मध्य प्रदेश की सदस्य नियुक्त हुईं तथा जिले की महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रही हैं।
2003 में चरारे शरीफ की घटना पर मध्यप्रदेश शासन ने उन्हें शांति पीठ मिशन में शामिल किया। 1975-78 तक श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज रा%य बैंकिंग भर्ती बोर्ड की सदस्य रही हैं। 1993 से 1996 तक वे मध्यप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग की सदस्य तथा महू में अम्बेडकर शोध संस्थान की कार्यकारिणी की सदस्य रही हैं। वे महात्मा गांधी ट्रस्ट की न्यासी सदस्य भी हैं। उनकी रचनाओं के लिए उन्हें देश और विदेश में अनेक पुरस्कार व सम्मान मिले और उन्होंने लगभग पूरे यूरोप और रूस की साहित्यिक यात्राएं की हैं। आज भी मेहरुन्निसा जी बहुत सक्रिय हैं। उनकी रुचि लेखन के अलावा छोटी-छोटी फिल्में बनाने में हैं। बचपन में बेडमिंटन खिलाड़ी रहीं मेहरुन्निसा जी खेल में भी रुचि लेती हैं।
पुरस्कार व सम्मान :
1- 2005 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अलंकरण।
2- 2003 में श्रेष्ठ पत्रिका समर के लिए रामेश्वर गुरु पुरस्कार ।
3- 1999 में राष्टÑभाषा स्वर्ण जयंती के अवसर पर हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए लंदन में विश्व हिन्दी सम्मा।
4- 1995 में महात्मा गांधी के 125वीं जयंती पर रायपुर में सम्मानित।
5- 1995 में उ?ार प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण अलंकरण ।
6- 1980 में कोरजा उपन्यास पर उ?ार प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं मध्यप्रदेश शासन द्वारा अखिल भारतीय महाराजा वीरसिंह देव पुरस्कार।
Wednesday, July 14, 2010
स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर
भारतरत्न लता मंगेशकर के बिना भारतीय फिल्म संगीत की चर्चा अधूरी है। बुलबुले हिन्द लता जी का जन्म 28 सितम्बर,1929 को इंदौर के सिख मोहल्ले में हुआ। उनके पिता पं. दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय गायक के साथ-साथ मुंबई में एक थिएटर कंपनी के मालिक थे। मधुबाला से लेकर हिन्दी सिनेमा के स्क्रीन पर शायद ही ऐसी कोई बड़ी नायिका रही हो जिसे लता मंगेशकर ने अपनी अत्यंत प्रभावशाली आवाज से न संवारा हो। लताजी आज भी संगीतप्रेमियों के दिलों में राज कर रही हैं।
बीस से अधिक भारतीय भाषाओं में लता ने 30 हजार से अधिक गाने गाए। 1991 में ही गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिर्कार्ड्स ने माना था कि लताजी दुनिया भर में सबसे अधिक रिकार्ड की गई गायिका हैं। भजन, गजल, कव्वाली , शास्त्रीय संगीत हो या फिर आम फिल्मी गाने, लता जी ने सबको एक जैसी महारत के साथ गाया।
मूल रूप में कोंकणी भाषी लता जी का पुश्तैनी शहर मंगेशी था और मंगेशी से ही इनके परिवार की पहचान थी, इसलिए पं दीनानाथ मंगेशकर ने अपने अंतिम नाम हार्डिकर के स्थान पर मंगेशकर लिखना शुरू किया। लताजी की मां सौदामिनी, पंडित दीनानाथ की दूसरी पत्नी थी और लताजी इनकी पहली संतान है। इसके बाद क्रमश: हृदयनाथ, आशा, ऊषा और मीना। लताजी की पहली संगीत शिक्षा पांच साल की उम्र में पिता की शार्गिदी में शुरू हुई । स्कूल में उनकी औपचारिक शिक्षा मात्र एक दिन की ही रही। 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था, तब लता जी के पिता दिल की बीमारी से इस दुनिया से चल बसे। लताजी के कंधों पर पूरे परिवार का बोझ आ गया। 1942 में 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने एक मराठी फिल्म ‘किली हासिल’ में गाना गाकर अपने करियर की शुरुआत की, लेकिन बाद में यह गाना फिल्म से हटा दिया गया। लताजी बचपन में पिता के ड्रामा कंपनी में छोटे बच्चों के रोल किया करती थी। पिताजी के जीवित रहने तक यह शौक था। पिता के न रहने पर नवयुग फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड के लिए एक मराठी फिल्म ‘पहली मंगला गौड़’ में लता हीरोइन की बहन बनी थी। इसके बाद उन्होंने कभी फिल्मों में अभिनय नहीं किया। इस फिल्म के बाद वह कोल्हापुर आ गयी और यहां मराठी फिल्मों में एक प्रतिष्ठित नाम मास्टर विनायक की कंपनी में दौ सौ रुपए पर नौकरी कर ली। उस समय भाई हृदयनाथ मंगेशकर बहुत बीमार था। उस्ताद अमान अली खान और अमानत खान से संगीत की शिक्षा लेने वाली लताजी को रोजी-रोटी चलाने के लिए संघर्ष शुरू करना पड़ा। लताजी को शोहरत 1949 में मिली, जब उनकी चार फिल्में इसी वर्ष रिलीज हुईं। श्रोताओं ने पहली बार उनकी जादुई आवाज में बरसात, दुलारी , महल और अंदाज के गाने सुने। शुरुआती दिनों में शोहरत हासिल करने में लता जी को काफी कठिनाई हुई। प्रोड्यूसरों और संगीत निर्देशकों ने यह कहकर उनकी आवाज को खारिज कर दिया था कि उनकी आवाज बहुत महीन है। यह वह दौर था जब हिन्दी सिनेमा में शमशाद बेगम, नूरजहां और जोहराबाई अंबालेवाली जैसी वजनदार आवाज वाली गायिकाओं का राज चलता था। फिर भी गुप्त अंत: प्रेरणा से वह बिना रूके, बिना थके गाती रहीं और आत्मा से उनका संवाद जारी रहा। उनकी आवाज में मदनमोहन की गजलें और सी. रामचंद्र के भजन लोगों के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं। पहली बार 1958 में उन्हें हिन्दी सुपरहिट फिल्म मधुमती में ‘आजा रे परदेसी’ गाने के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। बेमिसाल और सदा शीर्ष पर रहने के बावजूद लताजी ने बेहतरीन गायन के लिए रियाज के नियम का हमेशा पालन किया। उन्हें फिल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान दादा साहेब फाल्के अवार्ड और देश का सबसे बड़ा सम्मान भारतरत्न मिल चुका है। आज करोड़ों प्रशंसकों के बीच उनका दर्जा एक पूजनीय व्यक्ति का है।
शुरू में लताजी उस समय की सर्वाधिक लोकप्रिय गायिका नूरजहां की नकल किया करती थी । लेकिन बाद में उन्होंने स्वयं अपनी शैली विकसित कर ली। उर्दू शब्दों के सही उच्चारण के लिए उन्होंने शफी साहब से उर्दू का सबक लिया। अपने अस्तित्व के लिए दृढ़ संकल्पित लताजी 1960 के दशक में हिन्दी सिनेमा में निर्विवाद प्रमुख महिला पार्श्व गायक बन गईं। 1999 में भारत के महामहिम राष्टÑपति ने उन्हें राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया। सदन में नियमित रूप से उपस्थित न हो पाने के कारण उन्होंने सरकार से वेतन और भत्ता स्वीकार नहीं किया, केवल दिल्ली में एक आवास स्वीकार किया। इसी वर्ष स्वर कोकिला लता के ब्रांड नाम से 1999 में एक परफ्यूम बाजार में पेश किया गया। भारत सरकार ने 2001 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ से उन्हें सम्मानित किया । उनके परिवार की ओर से लता मंगेशकर मेडिकल फाउण्डेशन ने 1989 में मास्टर दीनानाथ मंगेशकर के नाम से पुणे में एक अस्पताल स्थापित किया है। 2005 में एक भारतीय हीरा निर्यात कंपनी ने उनके नाम पर एक आभूषण संग्रह ‘स्वरांजलि’ तैयार किया । निर्माता के रूप में उनकी फिल्म ‘लेकिन’ को समीक्षकों ने काफी सराहा। कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए लता मंगेशकर को 250 से अधिक सम्मान मिले। ई एम आई लंदन ने भी उन्हें सम्मानित किया। मध्यप्रदेश सरकार ने उनकी असाधारण प्रतिभा और सेवाओं को मान्यता देते हुए उनके नाम से राष्टÑीय सुगम संगीत पुरस्कार की स्थापना 1984 में की । इसमें सम्मान स्वरूप चयनित कलाकार को एक लाख रुपए नकद राशि एवं प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाता है। अब तक यह पुरस्कार किशोर कुमार, जयदेव, मन्ना डे, खय्याम, आशा भोंसले, भूपेन हजारिका, महेन्द्र कपूर, संध्या मुखर्जी, संगीतकार ओपी नैयर को मिल चुका है। महाराष्टÑ सरकार ने भी उनके नाम से 1992 से एक पुरस्कार की घोषणा की है।
पुरस्कार एवं सम्मान
1- देश का सर्वोच्च
नागरिक सम्मान भारतरत्न- 2001
2- दादा साहेब फाल्के अवार्ड- 1989
3- नूरजहां पुरस्कार- 2001
4- महाराष्टÑ रत्न - 2001
5- संगीत और फिल्म उद्योग में योगदान के लिए सीआईआई द्वारा सम्मानित- 2002
6- महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन की ओर से हाकिम खान राष्टÑीय एकता पुरस्कार- 2002
7- खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की ओर से डॉक्टरेट की उपाधि
फिल्म फेयर पुरस्कार
1- आजा रे परदेसी- फिल्म मधुमती - 1958
2- कहीं दीप जले कहीं दिल- फिल्म बीस साल बाद-1962
3- तुम्ही मेरे मंदिर- फिल्म खानदान- 1965
4- आप मुझे अ%छे लगने लगे- फिल्म‘जीने की राह- 1969
5- लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड- 1993
6- फिल्मफेयर 50 वर्ष पूर्ण होने पर सम्मानित-1993
7- दीदी तेरा देवर दीवाना- फिल्म हम आपके है कौन के लिए विशेष राष्टÑीय पुरस्कार - 1994
राष्टÑीय पुरस्कार: सर्वश्रेष्ठ स्त्री पार्श्वगायक
१- फिल्म कोरा कागज- 1975
3- फिल्म लेकिन - 1990
महाराष्टÑ राज्य : सर्वश्रेष्ठ स्त्री पार्श्वगायक
1- फिल्म साधी मनसा- 1966
2- फिल्म जयति पुन: जयति- 1967
बंगाल फिल्म पत्रकार संघ: सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
1-वो कौन थी -1964
2-मिलन - 1967
3-राजा और रंक- 1968
4-सरस्वतीचंद्र- 1969
5-दो रास्ते- 1970
6-तेरे मेरे सपने- 1971
7- बांगला फिल्म - मरजिना-अबदुल्ला, अभिमान - 1973
8-कोरा कागज- 1975
9- एक दूजे के लिए - 1981
फिल्म निर्माण
1- 1953- बादल (मराठी)
2- 1953- झांझर (हिन्दी) (सी रामचंद्रजी के साथ सह निर्माता)
3- 1955- कंचन (हिन्दी)
4- 1990- लेकिन (हिन्दी)
Sunday, July 11, 2010
पुरुषार्थ के बल पर कामयाब राजनीतिज्ञ जमुना देवी
आदिवासी समाज के स्थायी विकास व महिला समाज को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में जमुना देवी का संघर्ष सराहनीय है। समय को लांघकर सोचने वाली निडर, राजनीतिज्ञ, जुझारू, दृढ़ता और ईमानदार राजनीतिज्ञ, के रूप में उन्होंने अपने आप को स्थापित किया है। पुरुषार्थ के बल पर प्रदेश की राजनीति के शिखर तक पहुंचने वाली जमुना देवी का जन्म 19 नवम्बर,1929 को धार जिले के सरदारपुर में सदियों से उपेक्षित, धर्नुंविद्या में निपुण एकलव्य के वंशज माने जाने वाले भील समाज में हुआ। उनके पिता श्री सुखजी सिंधार को अपनी इकलौती पुत्री जमुना को दसवीं तक की शिक्षा दिलाने में विरोधों को सामना करना पड़ा था। उनकी शादी 1946 में एक शिक्षित एवं बड़वानी में शिक्षक के पद पर कार्यरत युवक से 17 वर्ष की उम्र में कर दी गई।
1950 में भारत का अपना संविधान लागू हुआ और मालवा के भील आदिवासी क्षेत्र में जब समाजवादी नेता मामा बालेश्वर दयाल दीक्षित लोगों को संविधान के अनुरूप उनके अधिकारों की जानकारी दे रहे थे, उन्हें मदद के लिए जमुना देवी की आवश्यकता महसूस हुई, क्योंकि जमुना देवी ही उस क्षेत्र में पढ़ी-लिखी और समाजकार्य में सक्रिय थीं। मामा बालेश्वर दयाल ने अपने मित्र खेमा सुबेदार के जरिए उनके दामाद सुखजी सिंधार को कहलवाया,कि वह अपनी पुत्री जमुना देवी को समाज को जगाने के काम में लगायें। इस तरह जमुना देवी का राजनीति में पदार्पण हुआ। 1950 से 1952 तक वह समाजकार्य में सक्रिय रहीं । उनकी सक्रियता देखकर मामा बालेश्वर दयाल ने उन्हें 1952 में विधान सभा चुनाव लड़ाने का फैसला लिया। चूंकि उस समय वह विवाहित थीं और उनकी ढाई साल की एक बेटी भी थी, इसलिए पति ने इसका विरोध किया, लेकिन वे नहीं मानी। उनका वैवाहिक जीवन तनावग्रस्त रहने लगा। जमुना देवी आदिवासी बाहुल्य और अत्यंत पिछड़े झाबुआ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर सबसे कम उम्र की विधायक निर्वाचित हुर्इं। 1957 में जमुना देवी धार जिले के कुक्षी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ीं, लेकिन क्षेत्र बदलने के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। जमुना देवी ने महसूस किया, कि चुनाव क्षेत्र बदलना राजनीतिक जीवन के लिए ठीक नहीं, इसलिए उन्होंने झाबुआ को ही अपना स्थायी निवास बनाया। इस बीच तपेदिक की बीमारी के कारण उनके पेट में दर्द रहने लगा। 1957 में उनका आॅपरेशन हुआ। आॅपरेशन के बाद स्वास्थलाभ कर वे फिर जनसेवा में जुट गर्इं। 1960 में कांग्रेस अध्यक्ष मूलचंद देशलहरा ने उन्हें कांग्रेस में शामिल कर लिया। 1962 में झाबुआ से कांग्रस प्रत्याशी की हैसियत से लोकसभा चुनाव लड़ी और विजयी हुर्इं। उन्हें तत्कालीन वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मोरारजी भाई देसाई का अ%छा सहयोग मिला। लेकिन पति गुलाबचंद मकवाना को अब भी अपनी पत्नी का समाजसेवा और राजनीति में भाग लेना पसंद नहीं था। बात इतनी बढ़ गई, कि अंंतत: संबंध वि%छेद हो गया, जिसका असर उनके राजनैतिक जीवन पर भी पड़ा। 1967 के लोकसभा चुनाव में प्रतिद्वंद्वियों ने जमुना देवी का इतना विरोध किया,कि वे धार लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गर्इं। असफलताओं के बावजूद उन्होंने धैर्य नहीं खोया और उनका संघर्ष जारी रहा।
कांग्रेस विभाजन के बाद जमुना देवी, श्री मोरारजी भाई देसाई के साथ रहीं तथा उन्हीं की पार्टी से 1972 में चुनाव लड़ीं। लेकिन फिर चुनाव हार गर्इं। 1977 में जब श्री मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री बने,तो उन्हें रा%यसभा का टिकट मिला। वह विजयी रहीं। रा%यसभा सांसद रहते हुए, जब 1978 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार बनी, तो हरिजन-आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षण की
अवधि 10 साल बढ़ाने के प्रस्ताव के पक्ष में उन्होंने जनता पार्टी की विचारधारा से हटकर मतदान किया। बाद में श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें कांग्रेस में शामिल कर लिया और उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का संयुक्त सचिव नियुक्त किया। सन् 1985 में वह कुक्षी विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुनी गईंं और तभी से लगातार इसी क्षेत्र से निर्वाचित हो रही हैं, जो अपने आप में एक रिकार्ड है। वे दिग्विजय सिंह की सरकार में आदिवासी, अनुसूचित जाति तथा पिछड़ा वर्ग कल्याण,समाज कल्याण के अलावा महिला एवं बाल विकास मंत्री रही हैं। इसी दौरान श्री सिंह ने उन्हें बुआजी का संबोधन दिया और यही फिर उनकी पहचान बन गया। उन्होंने 1998 से 2003 तक उप मुख्यमंत्री का पद भी संभाला। 16 दिसम्बर,2003 से वे निरंतर मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी संभाल रही हैं।
श्रीमती जमुना देवी के खाते में ढेर सारी उपल?िधयां दर्ज हैं। आदिवासियों के उत्थान के लिए उनकी ईमानदार कोशिशों को देखते हुए 1963 में उन्हें आदिवासी केंद्रीय सलाहकार बोर्ड का सदस्य नियुक्त किया गया। उल्लेखनीय कार्य के लिए 1997 में उन्हेें उत्कृष्ट मंत्री का पुरस्कार मिला। 2001 में महिला सशक्तीकरण वर्ष में इंटरनेशनल फ्रेंडशिप सोसाइटी ने उन्हें भारत %योति पुरस्कार से सम्मानित किया। 2003 में संसदीय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण करने पर संसदीय जीवन सम्मान उन्हें प्रदान किया गया।
जमुना देवी की दृष्टि में सफलता एवं विजय का मापदण्ड पुरुषार्थ एवं प्रयत्न ही है। बिना परिश्रम अथवा पुरुषार्थ के विरासत अथवा संयोग या प्रार?ध से मिलने वाली धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा को सफल व्यक्तियों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। आज जमुना देवी जिस मुकाम पर हैं, वह उनके संकल्प, साहस और संघर्ष का ही परिणाम है।
उपल?िययां एवं सम्मान :
‘उत्कृष्ट मंत्री पुरस्कार’- 1997
‘भारत %योति सम्मान’- 2001
संसदीय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण करने पर‘संसदीय जीवन सम्मान’- 2003
सम्प्रति- 7 जनवरी,2009 से नेता प्रतिपक्ष मध्यप्रदेश विधानसभा
Friday, July 9, 2010
संघर्ष के बीच नित नए आयाम गढ़ने वाली गुलदी
कला-संस्कृति के क्षेत्र में गुल बर्धन का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं । ता-उम्र इस क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान के लिए वर्ष 2009 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा है। हालांकि यह सम्मान उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था, लेकिन देर आयद-दुरुस्त आयद।
पद्मश्री गुल बर्धन और कला की दुनिया में श्रद्धा की पात्र गुल दी का जन्म 19 नवम्बर,1928 को मुंबई में गुजराती वैश्य परिवार में हुआ।
विवाह से पूर्व उनका कुलनाम झवेरी था। उनके पिता हंसराज शाह सौराष्टÑ से कारोबार के सिलसिले में मुंबई आकर बसे थे। गुल दी ने स्रातक की शिक्षा मुंबई से हासिल की। बचपन में चंचल स्वभाव की गुल झवेरी अंग्रेजों से नफरत करती थी। उनके मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था। गुल झवेरी, इंदिरा गांधी की वानर सेना का नेतृत्व मुंबई में किया करती थी, जो हिन्दुस्तान को आजाद कराने के लिए दृढ़संकल्पित थी। यह सेना स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को खुफिया सूचनाएं पहुंचाया करती थी। 1947 में देश आजाद हुआ और गुल दी का अंग्रेजों के साथ लुका-छिपी का खेल खत्म हुआ । अब गुल झवेरी युवा अवस्था में पहुंच चुकी थी। मान्य परंपरा में नया जोड़ने की ललक उन्हें नित नए विचारों की दुनिया में ले आयी। शास्त्रीय नृत्य विद्या में कुछ नया करने के लिए वे इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गर्इं और नाट्य गीतों एवं नाटकों में भाग लेने लगी। पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी आॅफ इण्डिया पर केंद्रित बैले नाटक की तैयारी के दौरान जो उदयशंकर जी के शिष्य शांति बर्धन के निर्देशन में चल रहा था तथा जिसका प्रदर्शन दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू के समक्ष किया जाना था, की रिहर्सल के दौरान गुल दी, शांति बर्धन के सान्निध्य में आई। उनके काम, विचार और धैर्य देखकर गुल दी इतनी प्रभावित हुर्इं कि तपेदिक से ग्रस्त शांति बर्धन से उन्होंने विवाह कर लिया। दोनों ने मिलकर लिटिल बैले ग्रुप की स्थापना की। कला के प्रति शांति बर्धन के अप्रतिम समर्पण से नाट्यशाला की ख्याति दुनिया में फैलने लगी। 1954 में शांति बर्धन का निधन हो गया। नाट्यशाला की सारी जिम्मेदारी गुल बर्धन पर आ गई। तब से कर्मठ गुल दी ने अपना जीवन रंग श्री लिटिल बैले ट्रूप को समर्पित कर दिया।
रंग श्री लिटिल बैले ग्रुप की स्थापना 1952 में मुंबई में हुई थी। उसके बाद क्रमश: यह ग्रुप माधवराव सिंधिया के पिता के अनुरोध पर 1964 में ग्वालियर आ गया। यहां इसे लिटिल बैले ट्रूप नाम दिया गया। ग्वालियर में कलाकारों के वर्चस्व की लड़ाई के बीच गुल दी इतनी आहत हुर्इं कि उन्होंने ग्वालियर छोड़ भोपाल को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। यहां पर भी कलाकारों द्वारा इसे तोड़ने की कोशिश की गई। लेकिन गुल दी की जीवटता इस बात का साक्ष्य है, कि आज भी दुनिया का सबसे उम्रदराज बैले ग्रुप उनके नेतृत्व में लोक परंपराओं से प्रेरणा ग्रहण करते हुए निरंतर प्रयोगशील है। यहां केरल, ओड़िसा, बंगाल और मणिपुर के कलाकार अपनी कला प्रतिभा का प्रदर्शन गुलबर्धन के नेतृत्व में कर रहे हैं। शांति बर्धन के कलाकर्म पर गुल दी ने एक पुस्तक ताल अवतार की रचना की है। यह पुस्तक नृत्यकला को समृद्ध करने की दिशा में मूल्यवान है। ताल अवतार में गुल दी लिटिल बैले ट्रूप की विशेषताओं के साथ-साथ नृत्य गुरु शांति बर्धन की अनोखी विशिष्टता का उल्लेख किया है। पुस्तक में रामायण जैसे नए नृत्य नाटकों की खोज ,जो देश का अद्वितीय श्रृंगार के रूप में जाना जाता है, का खूबसूरती से वर्णन है।
कला पर उनकी दृष्टि, नवीनता और प्रयोगधर्मिता का सम्मान करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 2001 में सर्वाेच्च शिखर सम्मान प्रदान किया । इसके अलावा फ्रेंच केबिनेट ने 1964 में उनकी विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए उन्हें सम्मानित किया। गुल दी अब तक अनेक राष्टÑीय अर्न्तराष्टÑीय पुरस्कारों ने नवाजी जा चुकी हैं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी ने रचनात्मक नृत्य के लिए 2001 में, गुजरात संगीत नाटक अकादमी ने गौरव पुरस्कार 1979 में गुल बर्धन के नेतृत्व में रामायण बैले को यूएसएसआर का पुरस्कार 1975 में मिला। इसके अतिरिक्त गुल दी कर्इ्र फिल्मों में नृत्य प्रदर्शन कर चुकी हैं। इसमें राजकपूर निर्देशित अवारा, चेतन आनंद निर्देशित अंजलि, बलराज साहनी निर्देशित लालब?ाी, केए अ?बास निर्देशित धरती के लाल, विजय भट्ट निर्देशित समाज को बदल डालो और राम रा%य, फणी मजूमदार निर्देशित बंधन और बिमल राय निर्देशित सुजाता शामिल है। विश्व के कई देशों में लिटिल बैले ट्रूप के प्रदर्शन को प्रशंसा-पत्र प्राप्त हुए हैं। इनमें फ्रांस, हालैण्ड, मेक्सिको, चायना, नेपाल, बेल्जियम, मोरक्को, ट्यूनिसिया, ब्राजील, चिली, अरजेंटिना, यूनाईटेड किंगडम, लेबनान, बुलगारिया,जापान, थाईलैण्ड, हांगकांग, साऊथ कोरिया, पुर्तगाल, इटली तथा जर्मनी प्रमुख हैं।
राष्टÑीय,अन्तर्राष्टÑीय पुरस्कार:
1- पद्मश्री सम्मान- 2009
2- मध्यप्रदेश सरकार की ओर से शिखर सम्मान- 2001
3- संगीत नाटक अकादमी, गुजरात की ओर से गौरव पुरस्कार-1979
4- फ्रांस केबिनेट की ओर से व्यक्तिगत सम्मान- 1964
5- रामायण बैले के निर्देशक के रूप में जीआईटीआईएस,यूएसएसआर-1975
रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप की उपल?िधयां:
अर्न्तराष्टÑीय फेस्टिवल अवार्ड
1- थिएटर नेशन- फ्रांस
2- एडिनबरो फेस्टिवल
3- हॉलैण्ड फेस्टिवल
4- मेक्सिको फेस्टिवल
टूअर अवार्ड:
1- चायना- 1955
2- नेपाल-1956
3- यूएसएसआर, जर्मनी- 1957
4- फ्रांस, बेल्जियम, हॉलैण्ड, मोरक्को, ट्यूनिसिया, ब्राजिल, चिली, अर्जेंटिना, यूनाईटेड किंगडम-1960
5- लेबनन, यूएसएसआर, बुलगारिया- 1964
6- मेक्सिको- 1968
7- इंडोनेशिया, बर्मा- 1971
8- जापान, थाईलैण्ड- 1975
9- साउथ कोरिया, थाईलैण्ड- 1975
10- बेल्जियम, ईस्ट जर्मनी, पुर्तगाल, इटली-1982
11- यूएसएसआर- 1988
12- मॉरीशस-1990
13- थाईलैण्ड- 1995
(मध्य प्रदेश महिला संदर्भ के लिए रूबी सरकार द्वारा लिखा गया है)
Thursday, July 8, 2010
मध्यप्रदेश की विशिष्ठ अवदान वाली महिलाएं, जिन्होंने
मान्य परंपरा में कुछ जोड़ते हुए नवाचारी दृष्टि विकसित की है।
मान्य परंपरा में कुछ जोड़ते हुए नवाचारी दृष्टि विकसित की है।
चंचल चुलबुली गुड्डी से हजार चौरासी की मां तक का सफर
शुद्ध भारतीय सौंदर्य की प्रतिमूर्ति पद्मश्री जया भादुड़ी हिन्दी फिल्मों में नरगिस, मीना कुमारी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली अभिनेत्री हैं। जया भादुड़ी बच्चन का जन्म मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में 9 अप्रैल,1948 को हुआ। इंदिरा और लेखक-पत्रकार तरुण कुमार भादुड़ी की बेटी जया ने बॉलीवुड की चमक-दमक भरी दुनिया में बगैर शरीर प्रदर्शन के अपनी हैसियत बनाई और चोटी की अभिनेत्री बनी। उनकी सादगी और कला के क्षेत्र में विशिष्ठ पहचान के आधार पर समाजवादी पार्टी ने 2004 में उन्हें पार्टी की ओर से रा%ससभा में भेजा। लेकिन जया का राजनीतिक जीवन विवादों से परे नहीं रहा। हिन्दी- मराठी के मुद्दे पर राज ठाकरे से टकराव हो या नेहरू-गांधी परिवार के बारे में टिप्पणी, उनके पति अमिताभ को हर मामले में सफाई देने आगे आना पड़ा। दूसरी ओर बच्चन परिवार को समाजवादी पार्टी में लाने वाले अमर सिंह खुद पार्टी से अलग हो गए, लेकिन जया मुलायम सिंह के साथ बनी रहीं। इस बीच वे राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ के एक नेता द्वारा आयोजित नदी महोत्सव में भी विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल हुर्इं।
हिन्दी फिल्मों में आने के पहले जया ने तीन बंगला फिल्में की थी। सत्यजीत राय की फिल्म महानगर में जया ने पहली बार कैमरे का सामना किया। उस समय वह स्कूल में पढ़ती थी। स्कूली शिक्षा पूरी कर जया ने पुणे फिल्म संस्थान से अभिनय का प्रशिक्षण लिया और ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में गुड्डी में काम किया। गुड्डी 1971 में रिलीज हुई। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ही जया की मुलाकात अमिताभ से हुई। 1973 में जंजीर की सफलता के बाद दोनों ने विवाह कर लिया। तब तक जया स्टार बन चुकी थी और अमिताभ संघर्ष कर रहे थे। दोनों ने अभिमान, मिली, चुपके-चुपके में साथ काम किया और जया ने अपनी अभिनय क्षमता का परचम लहरा दिया। शोले तो दोनों की बाद की फिल्म है। जया ने जीतेंद्र के साथ परिचय के अलावा संजीव कुमार के साथ कई फिल्में की और सभी सफल रही। नायिका के रूप में सिलसिला उनकी आखिरी फिल्म थी। जया ने चंचल चुलबुली लड़की का रोल किया तो कभी बेहद गंभीर भूमिका भी निभाई। लेकिन दो बच्चों अभिषेक और श्वेता की मां बनने के बाद अचानक उन्होंने फिल्मों को अलविदा कह दिया। बेटे और बेटी की बेहतर परवरिश के लिए उन्होंने यह निर्णय लिया। जब बच्चे बड़े हो गए तो उन्होंने फिल्मों में फिर से प्रवेश किया। 18 साल के अंतराल के बाद अपनी नई पारी में जया ने नक्सली पृष्ठभूमि पर आधारित हजार चौरासी की मां फिल्म में यादगार भूमिका की। यह फिल्म 1998 में रिलीज हुई । 2000 में फिल्म फिजा जो मिशन कश्मीर पर आधारित थी में ऋतिक रोशन की मां की भूमिका की । इस फिल्म में उत्कृष्ट अभिनय के लिए जया को सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। जया अपने पति अमिताभ के साथ भी कभी खुशी कभी गम में काम किया । कल हो न हो,द्रोण और लागा चुनरी में दाग के रिलीज के बाद उनकी दूसरी पारी अभी चल रही है । बेहद साधारण चेहरा मोहरे, किंतु बेजोड़ भाव प्रदर्शन से जयाजी ने जो मुकाम हासिल किया, वह अपने आप में एक मिसाल है।
पुरस्कार, सम्मान:
1992 - भारत सरकार की ओर से चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री
1998- ओमेगा लाइफटाइम एचीवमेंट
2004-उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से सर्वोच्च नागरिक सम्मान यश भारती
2004- सन्सुई लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
2004- उत्तर प्रदेश फिल्म डेवलप कौन्सिल की अध्यक्ष
2004- राज्यसभा सदस्य
1974- फिल्मफेयर : सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री अभिमान के लिए
1975- फिल्मफेयर: सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री कोरा कागज के लिए
1980- फिल्मफेयर: सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री नौकर के लिए
1998- फिल्म फेयर: फिल्म उद्योग में विशेष योगदान के लिए
2001- फिल्मफेयर और जी सिने अवार्ड: सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री फिजा के लिए
2002- फिल्मफेयर: सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री कभी खुशी कभी गम के लिए
2004- फिल्मफेयर: सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री कल हो न हो के लिए
2007- फिल्मफेयर: लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड
अन्तर्राष्टÑीय भारतीय फिल्म अकादमी
2001- आई आई एफ ए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री फिजा के लिए
2002- आई आई एफ ए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री कभी खुशी कभी गम के लिए
2004- आई आई एफ ए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री कल हो न हो के लिए
2010- लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड लंदन में जीभ पर आग फिल्म फेस्टिवल में
(मध्यप्रदेश महिला संदर्भ के लिए रूबी सरकार ने लिखा है)
Wednesday, July 7, 2010
भावनाओं की कथाकार मन्नू भंडारी
मन्नू भण्डारी हिन्दी की सुविख्यात बहुपठित अत्यंत महत्वपूर्णऔर बहुत सारी भाषाओं की रचनाकार हैं। जीवन जीने, उसे संभालने और संजोने की उनकी क्षमता और उनका बेहद निजी तौर तरीका आज की पीढ़ी के लिए एक मिसाल बन सकता है।
उनका जन्म 3 अप्रैल,1931 को मध्य प्रदेश के भानपुरा गांव जिला मंदसौर में हुआ । लेकिन कार्यक्षेत्र कलक?ाा और नई दिल्ली रहा। उनके बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था, लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। 1949 में स्रातक की पढ़ाई कलक?ाा विश्वविद्यालय से करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह वाराणसी आ गर्इं और यहीं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1952 में एम. ए. की उपाधि हासिल की।
कलात्मकता उनके समूचे व्यक्तित्व से लेकर उनके लेखन तक में व्याप्त है। अजमेर के ठेठ मारवाड़ी और संबंधों में निष्ठा रखने वाले संयुक्त एकजुट परिवार जहां लड़कियों का नौकरी करना तौहीन समझी जाती थी, वहां मन्नूजी ने स्कूल में नौकरी कर पहली सीमा लांघी।
मन्नूजी अपनी हर रचनाओं में किसी न किसी रूप में उपस्थित रहती हैं। कभी विचारों, मान्यताओं और पक्षधरता के स्तर पर, तो कभी भावना और संवेदना के स्तर पर । ‘आपका बंटी’ उपन्यास में वह बताती है कि एक औरत जब अपनी अस्मिता का संधान करने लगती है, तो सक्षम भी हो जाती है और यही बात पुरुष के लिए चुनौती बन जाती है और तभी दाम्पत्य संबंधों में तनाव पैदा होता है, जो अलगाव तक पहुंच जाता है, इस तनाव और अलगाव की त्रासदी में पिसते हैं निर्दोष बच्चे।
‘एक इंच मुस्कान’ और ‘आपका बंटी’ जैसे संवेदनशील उपन्यास की लेखिका मन्नू भण्डारी न तो अपने जीवन में और न लेखन में कोई विशेष राजनीतिक रूझान रखती है, लेकिन शासन व्यवस्था के दोहरे चरित्र ने उन जैसी मानवीय सम्वेदना रखने वाली लेखिका को सृजनात्मक रूप से इतना विचलित किया कि उन्होंने इसी मन से ‘महाभोज’ जैसे उपन्यास की रचना कर डाली, जिसे राजनैतिक उपन्यास माना जाने लगा। मन्नूजी विजुअल मीडिया की भी गहरी समझ रखती हैं।
बालीगंज सदन, कोलकाता (1952-1961) से उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू किया। तत्पश्चात् रानी बिड़ला क ॉलेज, कोलकाता (1961-64) में अध्यापन कार्य के बाद सन् 1964 में वे मिरांडा कॉलेज,नई दिल्ली में हिन्दी की प्राध्यापक बनी और अवकाश प्राप्त करने (1991) तक कार्यरत रहीं। अवकाश प्राप्त करने के उपरांत 1992-94 तक वे उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की निदेशक रहीं।
संयोग से उनका राजेन्द यादव से प्रेम विवाह हुआ था। विवाह के पैतीस साल बाद 1994 में राजेन्द्र जी से अलग होने के बाद ही उन्होंने अपने लिए जीना सीखा। जिंदगी के कड़वे अनुभवों और अपने निर्णय पर डटे रहने की मिसाल मन्नू जी का अकेलापन उनका अपना चुनाव है। उनका कहना है, कि जब किसी के साथ रहते हुए भी अकेले ही जीना हो, तो उस साथ के होने का भरम टूट जाना ही अ%छा होता है।
बहुमुखी प्रतिभा की धनी मन्नू भंडारी ने कहांनियां, उपन्यास, पटकथा, नाटक लिखे हैं। उनकी कहानियां कई भारतीय भाषाओं में अनुदित हुई। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे। उनकी रचनाओं में ‘एक प्लेट सैलाब’ (1962),‘मैं हार गई’ (1957), ‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’, ‘यही सच है’ (1966), ‘त्रिशंकु’ और ‘आंखों देखा झूठ’ उनके महत्वपूर्ण कहानी संगह हैं। विवाह वि%छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चों को केन्द्र में रखकर लिखा गया उनका उपन्यास ‘आपका बंटी’ (1971) हिन्दी के सफलतम उपन्यासों में गिना जाता है।
आपका बंटी धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था। लेखक राजेन्द्र यादव के साथ लिखा गया उनका उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ (1962) पढ़े लिखे आधुनिक लोगों की एक दुखांत प्रेमकथा है, जिसका एक-एक अध्याय लेखक-द्वय ने क्रमानुसार लिखा था। ‘बिना दीवारों का घर’ (1966) शीर्षक से एक नाटक भी लिखा है।
नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार दोहरे चरित्र वाली राजनीति के बीच आम आदमी की पीड़ा और दर्द की गहराई को उद्घाटित करने वाले उनके उपन्यास ‘महाभोज’ (1979) पर आधारित नाटक अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था । इसी प्रकार ‘यही सच है’ पर आधारित ‘रजनीगंधा’ नामक फिल्म अत्यंत लोकप्रिय हुई थी और इसे 1974 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।
उनकी रचनाधर्मिता का सम्मान करते हुए हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने उन्हें शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से भवभूति अलंकरण, बिरला व्यास सम्मान (2008) और उ?ार-प्रदेश हिंदी संस्थान ने अलंकृत किया।
प्रकाशित कृतियाँ:
कहानी-संग्रह : एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, त्रिशंकु, श्रेष्ठ कहानियाँ, आँखों देखा झूठ, नायक खलनायक विदूषक।
उपन्यास : आपका बंटी, महाभोज, स्वामी, एक इंच मुस्कान और कलवा, फिल्म पटकथाएँ : रजनीगंधा, निर्मला, स्वामी, दर्पण।
नाटक : बिना दीवारों का घर(1966), महाभोज का नाट्य रूपान्तरण(1983)
आत्मकथा: कहानी यह भी (2007)
प्रौढ़ शिक्षा के लिए: सवा सेर गेहूं (1993) (प्रेमचन्द की कहानी का रूपान्तरण)
Tuesday, July 6, 2010
कुशल सभा संचालन की सौम्य नेता नजमा हेपतुल्ला
डॉ. नजमा हेपतुल्ला उन राजनीतिज्ञों में से हैं, जिनका व्यक्तित्व बहुत समय तक राजनैतिक मंचों पर हलचल पैदा करता रहा है।
कहना न होगा, कि इसके पीछे उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, अध्ययन की व्यपकता और वक्तृत्व क्षमता का मुख्य योगदान रहा है। रा%यसभा उपाध्यक्ष के नाते उनका विधि सम्मत और निष्पक्ष सभा संचालन सदस्यों को बहुत प्रभावित करता रहा। इसीलिए उनकी लोकप्रियता दलीय सीमाओं को लांघते हुए सर्वव्यापी हो गई।
नजमा जी स्वाधीनता संग्राम सेनानी, शिक्षाविद् एवं आजाद भारत के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम की नवासी हैं। उनका जन्म 13 अप्रैल,1940 को भोपाल में हुआ । उनके पिता सैयद युसूफ अली और मां श्रीमती फातिमा युसूफ अली ने नजमाजी को बचपन से ही उच्च लक्ष्य निर्धारित करने की सीख दी। 1960 में उन्होंने मोतीलाल नेहरू विज्ञान महाविद्यालय (विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से सम्बद्ध) से एमएससी %युलॉजी प्रथम श्रेणी से उतीर्ण हुईं। विक्रम विश्वविद्यालय से उन्होंने 1962 में %युलॉजी में पीएचडी प्राप्त की। उन्हें आगरा विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की।
7 दिसम्बर,1966 को नजमाजी का निकाह श्री अकबर अली हेपतुल्ला से हुआ। आज वह तीन पुत्रियों की मां हैं।
डॉ हेपतुल्ला 1973 में कांग्रेस से जुड़ी । सौम्य और मिलनसार होने के कारण अन्तर्राष्टÑीय स्तर पर उनका प्रभाव फैलता गया। कुशल नेतृत्व और कार्यक्षमता के बल पर उन्होंने 1980 में पार्टी में युवा गतिविधियों में कई नए आयाम जोड़े। इसी वर्ष महासचिव के पद पर रहते हुए उन्होंने भारतीय राष्टÑीय छात्रसंघ के प्रभारी का दायित्व भी संभाला। 1980 में पहली बार महाराष्टÑ से वे रा%यसभा के लिए चुनी गर्इं और 2004 तक इस सदन की सदस्य रहीं। इतना ही नहीं नजमा जी 1985-86 तथा 1988 से 2004 तक लगातार रा%यसभा की उपसभापति भी निर्वाचित हुर्इं।
उपसभापति पद पर रहते हुए उन्होंने 1993 में अंतर संसदीय संघ के महिला संसदीय समूह की संस्थापक अध्यक्ष बनीं और 16 अक्टूबर ,1999 से 27 सितम्बर, 2002 तक लगातार इस समूह की अध्यक्षता करती रहीं।
डॉ. हेपतुल्ला को इस बीच भारतीय सांस्कृतिक परिषद का प्रमुख भी मनोनीत किया गया । संयुक्त राष्टÑ विकास कार्यक्रम की मानद राजदूत रहीं और उन्होंने 1997 तक संयुक्त राष्टÑ आयोग के महिला समूह के प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व किया।
उनके अध्ययन और राजनीतिक उपल?िधयों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। नजमा जी 1982-96 तक हारवर्ड विश्वविद्यालय के मिडिल ईस्टर्न स्टडीज़ में सलाहकार रहीं। वह लंदन %युलॉजिकल सोसाइटी से जुड़ी हैं। उन्होंने एड्स शीर्षक से एक पुस्तक लिखी, जिसमें मनुष्य के सामाजिक सुरक्षा,स्थायित्व, विकास, पर्यावरण, पश्चिम एशिया और भारतीय महिलाओं के सुधार पर तुलनात्मक अध्ययन जैसे विषय शामिल हैं।
मध्य एशिया से उनका विशेष संबंध रहा। वह इण्डो- अरब सोसाइटी की अध्यक्ष रही हैं। एक कुशल कूटनीतिज्ञ की तरह उन्होंने भारतीय संस्कृति और व्यापार को मध्य एशिया में नये आयाम दिए।
श्रीमती हेपतुल्ला ने 2004 में भारतीय राष्टÑीय कांग्रेस ‘आई’ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। कांग्रेस पार्टी छोड़ते समय उन्होंने सोनिया गांधी पर कई आरोप भी लगाए। उन्होंने कहा कि उपराष्टÑपति पद के लिए वह कांग्रेस पार्टी की ओर से चुनाव लड़ना चाहती थी, लेकिन सोनियाजी का कहना था कि चूंकि राष्टÑपति पद पर डॉ. एपीजे अबुल कलाम आसीन है, दोनों उच्च संवैधानिक पदों पर अल्पसंख्यकों का होना ठीक नहीं होगा । सोनिया गांधी के इस निर्णय से वह आहत हुई और
उन्होंने संयुक्त जनतांत्रिक गठबंधन की ओर से हामिद अंसारी के खिलाफ उपराष्टÑपति का चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें मात्र 222 मत ही मिले, जबकि हामिद अंसारी को 455 मत प्राप्त हुए।
नजमा जी का सार्वजनिक जीवन निर्विवाद नहीं रहा। उन पर नवम्बर,2006 में आरोप लगा कि वे भारतीय सांस्कृतिक परिषद के अध्यक्ष पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार और आर्थिक अनियमितताएं की है। साथ ही उस समय प्रकाशित ‘जर्नी आॅफ द लीजेंड’ पुस्तक में काफी टेबल पर बैठे शाह इरान और मौलाना अबुल कलाम आजाद के बीच अपनी तस्वीर चस्पा करवाया था। सत्यता की जांच के लिए यह मामला सीबीआई को सौंपा गया था।
इसमें कोई शक नहीं है, कि नजमा जी वैश्विक सांसदों के बीच बहुत प्रभावशाली और लोकप्रिय रहीं उनके बहुत सारे लेख और शोध पत्र भारतीय और विदेशी जर्नल्स में प्रकाशित हुए। उन्होंने भारतीय और विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में महिलाएं और सामाजिक विकास से जुड़ी समसामयिक लेखन कार्य किया है। वे द इण्डियन जनरल आॅफ %युलॉजी एटोनॉमी विषयों पर प्रकाशित शोध-पत्रों की सलाहकार समिति व संपादकीय मण्डल में भी रहीं। उन्होंने त्रैमासिक पत्रिका डायलॉग टुडे 1986 में प्रारंभ की, जिसकी वह संपादक और प्रकाशक दोनों रहीं। इसके अलावा इण्डिया प्रोग्रेस साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी, कन्टीन्यूटी एण्ड चेंज 1985, इण्डो-वेस्ट एशियन रिलेशन- द नेहरू एरा 1992, रिफार्म फॉर वुमन फ्यूचर आॅफ्शन 1992, इनवॉयरमेंट प्रोडक्शन आॅफ डेवलपमेंट कंट्रीज 1993, ह्युमन सोशल सिक्युरिटी एण्ड सस्टेनेबल डेवलपमेंट1995, और एड्स एप्रोच टू प्रिवेन्सशंस 1996 और डेमोक्रेसी द ग्लोबल प्रोस्पेक्टिव 2004 जैसी अनेक पुस्तक लिखीं।
समाज सेवा और विज्ञान शोध में अग्रणी भूमिका निभाने वाली नजमाजी के साक्षरता, कला और विज्ञान सहित कई विषय विशेष रुचि के हैं। उन्होंने हमेशा विज्ञान संबंधी जानकारी, अन्तर्राष्टÑीय आर्थिक समन्वय, अन्तर्राष्टÑीय समझ, महिलाओं के उत्थान और उनसे संबंधित अन्य विषयों जैसे सद्भाव, मूल्यों, मानव विकास तथा पर्यावरण आदि क्षेत्रों में काम किया है, जिसे अन्तर्राष्टÑीय स्तर पर सराहा भी गया है।
उन्हें मोरक्को का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘ग्राण्ड कार्डोन आफ अलवई-अल-वामस’ से मोरक्को के राजा अलालुम वाफ्मम्स ने नवाजा। इजिप्त के राष्ट्रपति हुस्त्रे मुबारक ने भी नजमा जी को अपने देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्रदान किया। सेन मेरिनो के कैप्टन रीजेंट ने लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजा।
उनकी दिलचस्पी खेल में भी है। बेडमिंटन और स्क्वायश जैसे खेल उन्हें प्रिय है।नजमाजी जिमखाना क्लब दिल्ली, मुंबई प्रेसिडेंसी रेडियो क्लब, मुंबई, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, दिल्ली, सी रॉक होटल क्लब मुंबई, इंडिया हेबिटाट सेंटर और इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर, नई दिल्ली की सदस्य हैँ।
लिखने-पढ़ने अलावा पत्रकारिता, विभिन्न भाषाओं और विभिन्न देशों के संगीत सुनने में भी वे रुचि रखती हैं। उन्होंने पूरे विश्व की यात्रा की हैं। 4 सितम्बर, 2007 को उन्होंने अपने पति को हमेशा के लिए खो दिया। नजमा जी तीन बेटियों की मां हैं और फिलहाल राजस्थान से रा%यसभा की सदस्य हैं।
(मध्यप्रदेश महिला संदर्भ के लिए रूबी सरकार ने लिखा है)
Monday, July 5, 2010
अपनी गवाह खुद मृणाल पाण्डे
वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पाण्डे कथाकार, राजनीतिक-सामाजिक, आर्थिक
विश्लेषक के रूप में जानी जाती हैं। प्रतिगामी ताकतों के खिलाफ बेबाक कलम चलाने वाली मृणालजी वर्तमान में प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष हैं। लम्बे अर्से से कथा लेखन और पत्रकारिता से जुड़ी मृणाल पाण्डे वामा टाइम्स आॅफ इण्डिया की पत्रिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और दैनिक हिन्दुस्तान की समूह सम्पादक के अलावा एनडीटीवी और दूरदर्शन में एंकर और समाचार वाचक के पद कार्य कर चुकी हैं । पत्रकारिता के क्षेत्र में बेबाक टिप्पणियों से उन्होंने नया अध्याय रचा और दुनिया को स्त्री पक्ष से देखने के लिए विवश किया। जहां उन्होंने कचरा बीनने, स?िजयां बेचने और घरों में काम करने वाली महिलाओं के पक्ष में कई सवाल उठाए, वहीं दैनिक हिन्दुस्तान अखबार को व्यवसायिक संस्कृति भी दी। उनके पत्रकारिता जीवन की शुरुआत1984 से हुई, जब वे पहली बार वामा पत्रिका की संपादक बनीं। इससे पूर्व उनका रूझान साहित्य की ओर था। मृणाल पाण्डे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक चुनौतियों की गहराई और समग्रता से पड़ताल कर खूब लिखती हैं। टीवी पर उनकी राजनीतिक टिप्पणी और बातचीत काफी पसंद की जाती है।
मृणालजी का जन्म मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में 26 फरवरी,1946 को हुआ। लेखन का संस्कार उन्हें अपनी मां और सुविख्यात लेखिका गौरा पंत शिवानी से मिला। उनके पिता सुखदेव पंत शिक्षा विभाग, उ?ार प्रदेश में कार्यरत थे। पिता के असामयिक निधन के बाद चारों भाई-बहन मां के संरक्षण में ही पले। मृणालजी की प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। जहां उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी साहित्य और प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विषय के साथ स्रातक की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ कारकोरन कॉलेज आॅफ आर्ट एण्ड डिजाइन, वाशिंगटन डीसी से विजुअल आर्ट की उपाधि प्राप्त की। उनकी पहली कहानी प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग में तब प्रकाशित हुई जब वे मात्र 21 वर्ष की थी।
1984 में पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखते ही पत्रकार की छवि उनकी साहित्यकार की छवि से बड़ी हो गई। शायद इसलिए अनेक रचनाओं के बाद भी उनके साहित्य का जो मूल्यांकन होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया।
हिन्दी में षटरंग पुराण उनका चर्चित उपन्यास है। जिसमें उन्होंने पीढ़ियों के अंतराल और बदलाव की विशेषता को रेखांकित किया है। उनकी कहानियां
पैनी है तथा शिल्प और भाषा की प्रयोगात्मकता इन कहानियों की विशेषता है। इनमें एकल किस्सागोई भी है, और सामूहिक हुंकार भी। मृणाल जी संभवत: अकेली ऐसी महिला पत्रकार हैं, जिसने 25 बरस लगातार संपादक की भूमिका का सर्वप्रथम निर्वाह किया हो।
महज 38 साल की आयु में 1984 में वे वामा पत्रिका की संपादक बनीं और तीन साल तक यह जिम्मेदारी निभाती रहीं। उसके बाद क्रमश: साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दैनिक हिन्दुस्तान और आगे चलकर इसी समूह से प्रकाशित होने वाली सभी हिन्दी पत्रिकाओं की वे संपादक बन गर्इं। अनेक विरोधों के बीच अंतत: 31 अगस्त,2009 को वह पद मुक्त हुर्इं और प्रसार भारती के अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया। मृणालजी प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में सक्रिय हैं। उन्होंने एनडीटीवी और दूरदर्शन में समाचार वाचन एवं एंकरिंग भी की हैं।
े अंग्रेजी में उनकी उपन्यास माई ओन विटनेस इस तय को उजागर करा है, कि किस तरह हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाई पत्रकारिता अंग्रेजी पत्रकारिता से चोट खाती है। चाहे वह प्रिन्ट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। अपने इस उपन्यास में मृणाल जी ने मीडिया की चकाचौंध के पीछे स्याह पहलू को उजागर किया है। उन्होंने अपने उपन्यास में लिखा है, कि जो सुविधाएं अंग्रेजी माध्यम के पत्रकारों को मुहैया कराई जाती हैं, उसका अंशमात्र ही
हिन्दी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओें के पत्रकारों को प्राप्त होता है।
इसी कारण प्रोत्साहन के अभाव में हिन्दी पत्रकार योग्य होते हुए भी गुणव?ाा की दृष्टि से पीछे रह जाता है। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश के साथ ही यह कथा उनके भीतर उबाल खाने लगी थी। उन्हें लगने लगा था कि अपने मानस की शांति के लिए यह कथा उन्हें कहनी ही होगी। यह आत्मकय शैली में रची गई है और उपन्यास में मीडिया के क्षेत्र में महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभाव को रेखांकित किया गया है।
मृणालजी कई वर्षों तक महिलाओं के स्वरोजगार आयोग में सदस्य रहीं।
राजस्थान और दिल्ली रा य ने साहित्यक लेखन और पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया। मृणाल पाण्डे का दखल बांग्ला, हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य में बराबरी से पाया जाता है।
मृणाल पाण्डे का विवाह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और अर्थशास्त्री अरविंद पाण्डे से हुआ है। रोहिनी और राधिका के रूप में उनकी दो पुत्रियां हैं।
(यह प्रोफाइल मध्य प्रदेश संदर्भ के लिए रूबी सरकार ने लिखी है)
Friday, July 2, 2010
संगीत प्रेमी नीरजा बिरला
मध्य प्रदेश की बेटी नीरजा देश के एक सबसे बड़े और सबसे पुराने औद्योगिक घराने की बहू हैं। नीरजा का जन्म इंदौर के एक सुप्रसिद्ध औद्योगिक घराने में हुआ। उनके पिता उद्योगपति एस. के. कास्लीवाल टेक्सटाइल टायकून हैं। मात्र 18 साल की उम्र में 1989 में उनका विवाह बिरला परिवार के कुमार मंगलम (22) के साथ हो सम्पन्न हो गया। नीरजा की प्राथमिक शिक्षा केरल में हुई। आम मध्यमवर्गी लड़की की तरह उसने भी बचपन में खूब मस्ती की। रेल के दूसरे दर्जे और बस में सफर किया। लेकिन एक बड़े औद्योग घराने में विवाह होने के बाद उनकी जिंदगी ही बदल गई। सामाजिक सरोकारों और मूल्यों से उनका सीधा बास्ता हो गया। अपने ससुर आदित्य बिरला से उन्होंने सीखा कि सारे बकाया कामों को निपटाने के बाद ही अन्य मनोरंजन पर ध्यान देना चाहिए। दो पुत्री अनन्याश्री, अद्वैतिशा और एक पुत्र आर्यमान विक्रम की मां नीरजा ने अपने बच्चों की परवरिश भी इन्हीं मूल्य और संस्कारों के अनुरुप किया। उनके मन में यह बात कभी आने ही नहीं किया कि वह बड़े औद्योगिक घराने के बचे हैं।
नीरजा परिवार की सभी उ?ारदायित्व को संभालने के साथ एक महत्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने बिरला परिवार को संगीत प्रेमी बना दिया। पति कुमारमंगलम और बेटा आर्यमान दोनों को उसने अच्छा गायक बना दिया। नीरजा बिरला का पूरा परिवार एक साथ बैठकर संगीत सुनता है, वह कहती हैं कि संगीत में वह अलौकिक आनंद है, जो थकान तो मिटाता ही है साथ ही मनुष्य को अध्यात्म की ऊंचाई तक ले जाता है। नीरजा ने संगीत का अत्यधिक मौलिक उपयोग कर संगीत के माध्यम से आध्यात्मिक संदेश परिवार को दिया। उन्होंने संगीत अकादमी के सहयोग से रामायण पर लघु नृत्य नाटिक ा तैयार की, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। यह नाटिका के माध्यम से उन्होंने समाज को यह संदेश दिया कि मनुष्य को सदा अच्छे कर्म ही करने चाहिए। नीरजा का संगीत प्रेम सिर्फ भारतीय संगीत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह रॉक, जाज की भी प्रशंसक हैं। अपने साथ-साथ वह पूरे परिवार को संगीत सुनने के लिए प्रेरित क रती हैं। बिलट्स और आरडी वर्मन उनके पसंदीदा संगीतकार है।
खाली समय में वे वाद्ययंत्रों पर भी हाथ आजमाती हैं। संतूर उनके प्रिय वाद्ययंत्र है। उन्होंने पियानो, सितार जैसे साजों पर भी हाथ साफ किया है। उनकी दिलचस्पी नृत्यकला और गार्डनिंग में भी है।
Thursday, July 1, 2010
भाजपा का एकमात्र नारी चेहरा सुषमा स्वराज
विदिशा जिले की सांसद श्रीमती सुषमा स्वराज 15वीं लोकसभा में प्रथम महिला नेता प्रतिपक्ष जैसे प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं। सबसे कम आयु में मंत्री बनने का उनका रेकार्ड आज तक कायम है। विशेष दम्पति होने का रेकार्ड भी लिम्का बुक आॅफ रेकार्ड में उनके नाम दर्ज है। उनके पति श्री कौशल स्वराज भी राजनीति से जुड़े हैं। वे रा%यसभा सदस्य तथा मिजोरम के रा%यपाल रहे हैं।
सुरुचिपूर्ण पहनावा, बड़ी-बड़ी आंखें, माथे पर बड़ी गोल लाल रंग की बिंदी, शालीन चेहरा और वक्तृत्व कला में निपुण सुषमाजी गृहस्थी और राजनीति दोनों को समान रूप से साथ लेकर चलती हैं। पार्टी ने उनकी योग्यता का मूल्यांकन कर उन्हें कई अहम जिम्मेदारियां दी है। जहां बेल्लारी में श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए उन्हें चुना गया था, वहीं 18 दिसम्बर, 2009 से संसद में सरकार को घेरने की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंपी गई है।
सन् 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के मसले पर सुषमा ने विरोध स्वरूप सिर मुड़ाने की घोषणा कर देश को चौंका दिया था। हालांकि अब वे संसद में महिला आरक्षण के मुद्दे पर सोनिया गांधी के साथ खड़ी हैं। श्रीमती सुषमा स्वराज भाजपा की पहली ऐसी नेता हैं, जो 21 मई,2010 को स्व. राजीव गांधी की 19वीं पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि देने वीरभूमि पहुंची थी और वे वहां श्रीमती गांधी, उपराष्टÑपति हामिद अंसारी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ बैठीं भी। उनके इस अप्रत्याशित सौजन्य से सोनिया गांधी काफी प्रभावित हुर्इं।
14 फरवरी,1952 को अंबाला छावनी (हरियाणा) में सुषमा स्वराज का जन्म हुआ। अंबाला कैंट के एस डी कॉलेज से उन्होंने स्रातक की उपाधि प्राप्त की । 1973 में इसी कॉलेज से उन्हें तीन बार सर्वश्रेष्ठ वक्ता और एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट होने का गौरव प्राप्त हुआ। कानून की पढ़ाई उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से की। कुछ समय तक उन्होंने वकालत के पेशे में भी गुजारा ।
श्रीमती इंदिरा गांधी सरकार के नीतियों के विरोध के कारण1970 में छात्रनेता के रूप में उनकी पहचान बन चुकी थी। 1977 में वे पहली बार 80 वर्षीय देवराज आनंद के खिलाफ विधानसभा चुनाव जीतकर हरियाणा सरकार में श्रममंत्री बनीं। उस समय उनकी आयु मात्र 25 वर्ष थी। उनकी यह उपल?िध उनके लम्बे सियासी सफर का पहला पड़ाव थी। 1977-82 तक हरियाणा विधानसभा सदस्य रहीं। इसके बाद 1987-90 तक सुषमा जी ने जनता पार्टी की देवीलाल सरकार में श्रम एवं रोजगार की केबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी संभाली। 1980 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली और देवीलाल के नेतृत्व में संयुक्त लोकदल सरकार में शिक्षा, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री (1987-1990) बनीं। हरियाणा विधानसभा की अध्यक्ष की ओर से उन्हें लगातार तीन वर्षों तक विधानसभा में श्रेष्ठ वक्ता होने का गौरव प्राप्त हुआ।
करनाल (हरियाणा) चुनाव क्षेत्र से श्रीमती स्वराज लगातार 1980,1984 एवं 1989 में कांग्रेस प्रत्याशी चिरंजीलाल शर्मा के खिलाफ लोकसभा लड़ीं,
लेकिन तीनों ही बार वह चुनाव जीतने में असफल रहीं। 1990 और 1996 में वे रा%यसभा के लिए चुनी गईं। जल्द ही वे 11वीं लोकसभा का चुनाव दक्षिण दिल्ली से जीत कर 1996 में 13 दिन की वाजपेयी सरकार में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री बन गर्इं। इसी तरह 1998 में 12वीं लोकसभा चुनाव दोबारा जीतकर वह वाजपेयी सरकार में पुन: केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनीं। 19 मार्च से 12 अक्टूबर,1998 तक दूरसंचार मंत्रालय का अतिरिक्त कार्यभार भी उन्हें सौंपा गया था।
13 अक्टूबर, 1998 को दिल्ली विधानसभा चुनाव का नेतृत्व करने के लिए भाजपा आलाकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। हालांकि इस कुर्सी पर वे 3 दिसम्बर,1998 तक ही रह पार्इं।
1999 तक आते-आते श्रीमती स्वराज का राजनीतिक कद इतना बढ़ गया कि भाजपा ने उन्हें बेल्लारी (कर्नाटक) लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ प्रत्याशी बनाया। इस चुनाव में 44.7 फीसदी वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहीं, लेकिन अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करवाने में वे सफल रहीं।
अप्रैल 2000 में श्रीमती स्वराज को उ?ाराखण्ड से रा%यसभा सदस्य बनाया गया। एक बार फिर राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में उन्हें बतौर केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री शामिल किया गया। सितम्बर 2000 से जनवरी 2003 तक वह इस पद पर कायम रहीं। इस बार उन्हें स्वास्य एवं परिवार कल्याण तथा संसदीय कार्यमंत्री की जिम्मेदारी भी दी गई। मई 2004 में राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन के आम चुनाव हार जाने के दो साल बाद श्रीमती स्वराज को मध्यप्रदेश से न केवल रा%यसभा सदस्य बनाया गया, बल्कि उन्हें रा%यसभा में उपनेता भी बनाया । लेकिन पहले रा%यसभा, फिर लोकसभा मे जाने का अपना ही इतिहास दोहराते हुए वे 2009 का 15वीं लोकसभा चुनाव मध्यप्रदेश की विदिशा जिले से 3.89 लाख मतों से जीत गर्इं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा त्याग पत्र दिये जाने पर श्रीमती स्वराज को यह जिम्मेदारी सौंपी गई।
विश्लेषक मानते हैं, कि श्रीमती सुषमा स्वराज के राजनीतिक व्यक्तित्व को आकार अपने समय के युवा तुर्क और प्रखर समाजवादी नेता चन्द्रशेखर ने दिया। उनके इस स्वरूप को आगे बढ़ाने में जार्ज फर्नाडीज ने समर्थन दिया। हालांकि भारतीय जनता पार्टी में उन्हें अहम जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार करने का श्रेय लालकृष्ण आडवाणी और राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ के के.सी. सुदर्शन को जाता है।
(मध्यप्रदेश महिला संदर्भ के लिए रूबी सरकार ने लिखा है)
Wednesday, June 30, 2010
सिंहासन पर पहली सन्यासिन उमा भारती
जिन चतुर चालाक राजनीतिज्ञ दिग्विजय सिंह को और कोई नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे विराट व्यक्तित्व ने ही ‘सव्यसाची’ की उपमा दी हो, जिन दिग्विजय सिंह की तुलना %योति बसु जैसे नेता से की जाती रही हो, उन्हीं दिग्विजय सिंह को बुंदेलखण्ड जैसे निहायत ही पिछड़े इलाके के एक गांव से ताल्लुक रखने वाली कोई भगवाधारी सन्यासिन स?ाा%युत कर देगी, इसकी कल्पना राजनीति के बड़े-बड़े पण्डितों ने भी नहीं की होगी। दरअसल, मध्यप्रदेश में लगातार 10 साल राज कर चुकी दिग्विजय सिंह की कांगे्रसी सरकार को बिजली, पानी और सड़क के मुद्दे पर बाहर का रास्ता दिखाने का श्रेय उमा भारती को ही जाता है। हालांकि कतिपय विशेषज्ञ कांगे्रस के तत्कालीन नेतृत्व के अंहकार और सरकार की नाकामियों को इसके लिए जिम्मेदार बताते हैं।
3 मई,1959 अक्षय तृतीया के दिन टीकमगढ़ जिले के डूण्डा गांव के एक लोधी किसान परिवार में जन्मी उमा भारती बचपन से ही गीता-रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों का पाठ करती थीं। किशोरवय की होते-होते उन्होंने इन ग्रंथों पर प्रवचन देना भी शुरू कर दिया। उमा की लोकप्रियता ने विजयाराजे सिंधिया का ध्यान आकर्षित किया और 1980 में वे उन्हें राजनीति में ले आई।
उमा भारती ने 1984 में पहली बार भारतीय जनता पार्टी की ओर से खजुराहो से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन उस समय इंदिरा गांधी के असामयिक निधन के कारण जनता की सहानुभूति कांग्रेस के साथ थी, इसलिए सुश्री भारती जीत नहीं पाईं। 1988 में वे पार्टी की राष्टÑीय उपाध्यक्ष चुनी गईं। उन्होंने दूसरा चुनाव फिर खजुराहो से लड़ा और जीता भी। यह सिलसिला 1991,1996 और 1998 के लोकसभा चुनावों में भी जारी रहा। इतना ही नहीं, 1999 में भोपाल लोकसभा क्षेत्र से लड़े गये चुनाव में भी जीत का सेहरा उमा भारती के सिर ही बंधा।
सुश्री भारती, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मानव संसाधन विकास रा%यमंत्री (1998-99), पर्यटन मंत्री (1999-2000), युवा एवं खेल मंत्री (2000-2002) तथा कोयला एवं खान मंत्री (2002-2003) रह चुकी हैं। 2003 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया। उनके नेतृत्व में पार्टी को पहली बार अप्रत्याशित बहुमत मिला। वे स्वयं बड़ा मलहरा से विधायक चुनी गईं और 8 दिसम्बर,2003 को वह प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं गर्इं। लेकिन वे %यादा दिनों तक इस कुर्सी पर काबिज नहीं रह सकीं। 1994 में हुबली (कर्नाटक)में हुई एक साम्प्रदायिक घटना में उन्हें आरोपी बनाया गया था। अपने खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी होने के कारण नैतिकता के आधार पर 23 अगस्त,2004 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया और पार्टी के वरिष्ठतम विधायक बाबूलाल गौर को स?ाा सौंप दी । उन्हें उम्मीद थी, कि कर्नाटक से लौटने पर उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। लेकिन पार्टी ने श्री गौर को हटाकर शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया। इससे आहत उमा भारती भोपाल से अयोध्या तक की पदयात्रा पर निकल पड़ीं। इस यात्रा को उन्होंने राम रोटी यात्रा का नाम दिया। नवम्बर,2004 में पार्टी की एक महत्वपूर्ण बैठक में टीवी कैमरों के सामने ही उन्होेंने पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवानी को ही भला-बुरा कह डाला और बैठक छोड़कर चली गर्इं। उनके इस अप्रत्याशित और अपमान जनक व्यवहार का खामियाजा उन्हें पार्टी से निलंबन के रुप में भुगतना पड़ा। राष्टÑीय स्वयं सेवक के दबाव में मई 2005 में उमाजी का निलंबन वापस लेकर उन्हें फिर भाजपा कार्यकारिणी में शामिल कर लिया गया। लेकिन वे चाहती थीं, कि उन्हें या उनके किसी समर्थक को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाये या फिर पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष। लेकिन यह मांग न माने जाने पर उन्होंने फिर एक बार पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया। उन्हें गोविन्दाचार्य, प्रहलाद पटेल, मदनलाल खुराना और संघप्रिय गौतम जैसे नेताओं से सहयोग मिला। भाजपा छोड़ने के साथ ही उमा ने विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया। लेकिन इस कारण हुए उपचुनाव में वे अपनी समर्थक रेखा यादव को जिता नहीं पाई। इतना ही नहीं, 2008 के चुनाव में टीकमगढ़ विधानसभा क्षेत्र से खुद उमा भारती को कांगे्रसी उम्मीदवार से हार का सामना करना पड़ा। सुश्री भारती का भाजपा से मोह भंग भले ही हुआ हो, राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों से उनका लगाव बना रहा। उ?ारप्रदेश के विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण में उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल के कहने पर भाजपा के पक्ष में अपने प्रत्याशी वापस ले लिये। इसी तरह गुजरात का विधानसभा चुनाव लड़ने की अपनी घोषणा के बावजूद सुश्री भारती ने वहां से कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। 2009 के लोकसभा चुनाव में तो उन्होंने मध्यप्रदेश छोड़ अन्य रा%यों में उन्होंने भाजपा के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया। सुश्री भारती के ऐसे फैसलों के कारण उनके भाजपा में लौटने की अटकलें बार- बार पैदा होती रहीं। ऐसा तब और हुआ, जब उन्होंने अपनी ही पार्टी भारतीय जनशक्ति के अध्यक्ष पद से 25 मार्च 2010 को त्याग पत्र दे दिया।
विवादों और उमा भारती का चोली-दामन का साथ रहा है। माना जाता है, कि अयोध्या में विवादस्पद ढांचे को गिराने के लिए उन्होंने भी कारसेवकों को उकसाया था, इसलिए इस मामले में वे संघ-भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के साथ सह-आरोपी बनाई गई हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कभी किसी मीडियाकर्मी, तो कभी अपने ही किसी समर्थक को चांटा मारने या फिर वक्त-बेवक्त नर्मदा स्रान के लिए चल पड़ने के कारण भी वे सुर्खियों में रहीं। चिंतक-विचारक गोविन्दाचार्य से उनके संबंधों की चर्चा भी दबी जÞबान में होती रही। हालांकि गोविन्दाचार्य ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है, कि किसी समय वे और सुश्री भारती एक दूसरे के जीवन साथी बनना चाहते थे।
औपचारिक शिक्षा से वंचित रह जाने के बाद भी सुश्री भारती की पढ़ने में गहरी रुचि है और वे धारा प्रवाह अंगे्रजी में वार्तालाप कर सकती हैं। 55 देशों की उनकी यात्रा भी उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करने में सहायक हुई है।
Thursday, June 24, 2010
बच्चों के दिल की धड़कन पलक मुछाल
सम्मोहित कर देने वाली जिसकी मासूम आवाज और अपने जैसे मासूमों की सेवा करना जिसका धर्म है,वह है इंदौर की नन्हीं गायक पलक मुछाल। स्वर कोकिला लता मंगेशकर की उपासक पलक का जन्म 30 मार्च,1992 को इंदौर में एक बहुत ही साधारण परिवार में हुआ। मां श्रीमती अमिता मुछाल परंपरागत भारतीय स्त्री की तरह गृहिणी और पिता श्री राजकुमार मुछाल एक निजी संस्णी और पिता श्री राजकुमार मुछाल एक निजी संस्जकुमार मुछाल एक निजी संस्ी पलक ने इंदौर शहर में घर-घर जाकर गाना गाते हुए एक सप्ताह के भीतर 25,000 रुपए इकट्ठा किये। बस यहीं से समाज सेवा यात्रा शुरू हुई। इसी भाव से उसने इंदौर के ही पांच साल के लोकेश के लिए भी गाया। हृदय रोग से पपपपपपपपपपपपथान के लेखा विभाग में कार्यरत हैं।
पलक के लिए संगीत विचार की अभिव्यक्ति का माध्यम है। उसने चार वर्ष की अल्प आयु में गाना प्रारंभ किया। देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत पलक को टेलीविजन और समाचार-पत्रों के माध्यम से जब कारगिल युद्ध की ीड़ित लोकेश के परिवारवालों के पास इतना धन नहीं था कि अपने बच्चे का आॅपरेशन करवा सकें। सहृदय पलक ने स्टेज शोज के माध्यम से लोकेश के आॅपरेशन के लिए धन इकट्ठा किया। इस बीच बैंगलुरू के प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. देवी प्रसाद शेट्टी को टीवी समाचार के जरिए लोकेश की बीमारी के संबंध में जानकारी मिली। पलक की भावना का आदर करते हुए लोकेश का आॅपरेशन बिना कोई फीस लिए करने का प्रस्ताव दे दिया।
इस घटना के बाद तो अनगिनत गरीब बच्चों के माता-पिताओं ने अपने बच्चों के इलाज के लिए पलक के सामने अर्जी दे दी। पलक के गायन में जितनी लय है, उसे ताकत बनाकर वह निरंतर दुनिया के बीमार बच्चों के लिए गा रही है। इंग्लैण्ड, दुबई के साथ ही अनेक देशों के हृदय रोगी बच्चों कोावित परिवारों, उड़ीसा के तूफान पीड़ितों के अलावा इंदौर स्थित ऐतिहासिक राजबाड़े के जीर्णोद्धार के लिए भी प्रस्तुतियां देकर 1.33 लाख रुपयों की सहायता राशि दी है। इसके अलावा वह यौनकर्मियों के 39 बच्चों को गोद लेकर उनकी पर की सीधी बातचीत का प्रसारण किया है। भारत के तत्कालीन राष्टÑपति अब्दुल कलाम से मिलने का भी मौका पलक को मिला है।
लक एक स्टेज शोज में हिन्दी फिल्मों के 15 लोकप्रिय गाने गाती हैं। इनमें
ेंट टेलीविजन की ओर से प्रायोजित केडवेत्रासदी का पता चला तो वह सैनिकों और उनके परिजनों की हालत देखकर बहुत विचलित हुई। उसने सोचा, युद्ध से प्रभावित सैनिकों के परिवारवालों की मदद के लिए अपनी आवाज का इस्तेमाल कर सकती है। अपनी इस सोच पर मात्र छह साल कसाल क क वह इलाज के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर चुकी है। मानो वह समाज सेवा का बीड़ा लेकर ही इस धरती पर आई हो। पलक, पंडिएन. मिश्र से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां भी सीख रही हैं। अपनी सेवा के बदले पलक किसी से कुछ नहीं लेती- सिवाय एकत एस.एन. मिश्र से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां भी सीख रही हैं। अपनी सेवा के बदले पलक किसी से कुछ नहीं लेती- सिवाय एक
गुलामी से बेहतर है संघर्ष : चेतन
फिल्म राजनीति में अभिनय करने वाले चेतन पंडित कहते हैं कि भोपाल बहुत खूबसूरत शहर है। यहां की लोकेशन किसी भी फिल्म निर्माता को अपनी ओर खींच सकती है।
जिन आंखों में सपने होते हैं, उन आंखों में भविष्य होता है और जहां भविष्य होता है, वहां आगे बढ़ने की अदम्य इच्छाशक्ति का संचय होने लगता है। गुलामी के कसैले अहसासों से निरंतर संघर्ष करने को बेहतर बताने वाले अभिनेता चेतन पंडित हिन्दुस्तानी फिल्म को किसी दायरे में समेटना नहीं चाहते। इन दिनों उनकी केंद्रीय चिंता में प्रदेश में एक मजबूत और बेहतर फिल्म इंडस्ट्री का निर्माण होना है। इसमें संस्कृति और इतिहास की शानदार चीजें शामिल हों। इस अनूठे प्रयास को साकार करने की दिशा में अपनी पहल और इस दौर की राजनीति और कला जगत से जुड़ी हर पहलू पर उन्होंने बड़ी संजीदगी और ईमानदारी से बेबाक संवाद किया। चेतन पंडित इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में राजनेता की भूमिका अदा कर रहे हैं। इससे पूर्व उन्होंने प्रकाश झा के साथ गंगाजल, लोकनायक, अपहरण जैसी फिल्मों में काम किया है। विश्राम सावंत के निर्देशन में उनकी अगली फिल्म 26 नवंबर को हुए मुंबई हमले पर आधारित है, इस फिल्म में वे मेजर उन्नीकृषणन की भूमिका में होंगे।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने चेतन पंडित को कितना गढ़ा?
गुरु हमें सिखाते हैं या नहीं, ऐसा सोचकर हम कभी नहीं सीख सकते। हमारी प्रवृत्ति तो ऐसी होनी चाहिए कि हम कैसे और क्या सीखें। हमें अपने अंदर इतनी कूव्वत पैदा करनी चाहिए कि गुरु हमें सिखाने के लिए बाध्य हो।
विद्यालय में प्रवेश के लिए किसी प्रकार की विशेष तैयारी ?
दाखिले से पूर्व भारत भवन के बहिरंग प्रांगण में गोपाल दुबे जी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तैयारी में मदद की थी।
बतौर कलाकार मुंबई में कितना संघर्ष करना पड़ा?
गुलामी के कसैले अहसासों से निरंतर संघर्ष को मैं बेहतर मानता हूं। आज जो जहां हैं, सभी को अपने-अपने ढंग से संघर्ष करना पड़ रहा है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। मुंबई जाने के बाद हमने एफ.एम. में बतौर उद्घोषक काम किया। उस दौरान प्रतिदिन चार निर्माता-निर्देशक के पास अपनी पोर्टफोलियो के साथ जाया करते थे। यही संपर्क आगे काम आया। इसी तरह मैं एकता कपूर, प्रकाश झा से मिला था। जब प्रकाश झा लोकनायक जयप्रकाश पर फिल्म बनाने की बात सोच रहे थे, तो उन्हें मेरी याद आई और उन्होंने मुझे बुलवा भेजा। उन्होंने मुझे इशारा भर किया था और मैं उत्साह और आत्मविश्वास के साथ हां कह दिया। इसके बाद हमने लोकनायक पर अध्ययन करना शुरू किया। इससे पूर्व सेंट्रल स्कूल में पढ़ाई के दौरान सिर्फ एक अध्याय ही उन पर पढ़ा था। जब उन पर अध्ययन प्रारंभ किया तो उनका शख्सियत सही मायने में समझ में आया।
आपके पसंदीदा लेखक?
वैसे तो हमने दुनिया की कई भाषाओं और कई विधाओं की पुस्तकें पढ़ता हूं, लेकिन मुझे प्रेमचंद की बूढ़ी काकी और ईदगाह कहानी आज भी याद है। बंगला उपन्यास कोसाई बागान का भूत, रविशंकर की पत्नी और उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब की बेटी अन्नपूर्णा की जीवनी मुझे बहुत प्रिय है।
सिनेमा को ग्लेमर मानने वाले नवोदित कलाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
सतही ग्लेमर देखकर नहीं,पूरी तैयारी और आत्मविश्वास के साथ फिल्म इंडस्ट्री में आए। मप्र में कलाकारों में अद्भुत अभिनय क्षमता है, इसलिए निरंतर कार्यशाला आयोजित होने चाहिए। उन्होंने एक कविता सुनाकर कि पेड़ खड़े हैं, क्योंकि जमीन से गड़े हैं।
क्या आपके जीवन में कनुप्रिया के आने से आपके बहुआयामी प्रतिभा को विस्तार मिला?
कनु द्वारा संचालित चिल्ड्रेन थिएटर किल्लौल में संगीत देता हूं। कनु निरंतर बच्चों के लिए कार्यशाला आयोजत करती हैं। अभी गर्मी में पृथ्वी थिएटर के साथ मिलकर कार्यशाला आयोजित करने जा रही हैं।
स्त्री शक्ति को आप किस तरह परिभाषित करेंगे?
मां ने मुझे पहली बार नाटक के लिए मंच दिया। आदिशक्ति के रूप में हम देवी को पूजते हैं। मैं यह मानता हूं कि हर दिन स्त्री के नाम होना चाहिए। वैचारिक रूप से हमें उनका सम्मान करना चाहिए, न कि एक दिन। लेकिन पिता की भूमिका भी मेरे लिए मायने रखता है, क्योंकि उन्होंने मुझे सदा मार्गदर्शन किया।
कहीं सचमुच राजनेता बनने का इरादा तो नहीं?
बिल्कुल नहीं, अभिनय में अभी लम्बी यात्रा तय करनी है।
यह साक्षात्कार भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार के लिए रूबी सरकार ने लिया था
जिन आंखों में सपने होते हैं, उन आंखों में भविष्य होता है और जहां भविष्य होता है, वहां आगे बढ़ने की अदम्य इच्छाशक्ति का संचय होने लगता है। गुलामी के कसैले अहसासों से निरंतर संघर्ष करने को बेहतर बताने वाले अभिनेता चेतन पंडित हिन्दुस्तानी फिल्म को किसी दायरे में समेटना नहीं चाहते। इन दिनों उनकी केंद्रीय चिंता में प्रदेश में एक मजबूत और बेहतर फिल्म इंडस्ट्री का निर्माण होना है। इसमें संस्कृति और इतिहास की शानदार चीजें शामिल हों। इस अनूठे प्रयास को साकार करने की दिशा में अपनी पहल और इस दौर की राजनीति और कला जगत से जुड़ी हर पहलू पर उन्होंने बड़ी संजीदगी और ईमानदारी से बेबाक संवाद किया। चेतन पंडित इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में राजनेता की भूमिका अदा कर रहे हैं। इससे पूर्व उन्होंने प्रकाश झा के साथ गंगाजल, लोकनायक, अपहरण जैसी फिल्मों में काम किया है। विश्राम सावंत के निर्देशन में उनकी अगली फिल्म 26 नवंबर को हुए मुंबई हमले पर आधारित है, इस फिल्म में वे मेजर उन्नीकृषणन की भूमिका में होंगे।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने चेतन पंडित को कितना गढ़ा?
गुरु हमें सिखाते हैं या नहीं, ऐसा सोचकर हम कभी नहीं सीख सकते। हमारी प्रवृत्ति तो ऐसी होनी चाहिए कि हम कैसे और क्या सीखें। हमें अपने अंदर इतनी कूव्वत पैदा करनी चाहिए कि गुरु हमें सिखाने के लिए बाध्य हो।
विद्यालय में प्रवेश के लिए किसी प्रकार की विशेष तैयारी ?
दाखिले से पूर्व भारत भवन के बहिरंग प्रांगण में गोपाल दुबे जी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तैयारी में मदद की थी।
बतौर कलाकार मुंबई में कितना संघर्ष करना पड़ा?
गुलामी के कसैले अहसासों से निरंतर संघर्ष को मैं बेहतर मानता हूं। आज जो जहां हैं, सभी को अपने-अपने ढंग से संघर्ष करना पड़ रहा है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। मुंबई जाने के बाद हमने एफ.एम. में बतौर उद्घोषक काम किया। उस दौरान प्रतिदिन चार निर्माता-निर्देशक के पास अपनी पोर्टफोलियो के साथ जाया करते थे। यही संपर्क आगे काम आया। इसी तरह मैं एकता कपूर, प्रकाश झा से मिला था। जब प्रकाश झा लोकनायक जयप्रकाश पर फिल्म बनाने की बात सोच रहे थे, तो उन्हें मेरी याद आई और उन्होंने मुझे बुलवा भेजा। उन्होंने मुझे इशारा भर किया था और मैं उत्साह और आत्मविश्वास के साथ हां कह दिया। इसके बाद हमने लोकनायक पर अध्ययन करना शुरू किया। इससे पूर्व सेंट्रल स्कूल में पढ़ाई के दौरान सिर्फ एक अध्याय ही उन पर पढ़ा था। जब उन पर अध्ययन प्रारंभ किया तो उनका शख्सियत सही मायने में समझ में आया।
आपके पसंदीदा लेखक?
वैसे तो हमने दुनिया की कई भाषाओं और कई विधाओं की पुस्तकें पढ़ता हूं, लेकिन मुझे प्रेमचंद की बूढ़ी काकी और ईदगाह कहानी आज भी याद है। बंगला उपन्यास कोसाई बागान का भूत, रविशंकर की पत्नी और उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब की बेटी अन्नपूर्णा की जीवनी मुझे बहुत प्रिय है।
सिनेमा को ग्लेमर मानने वाले नवोदित कलाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
सतही ग्लेमर देखकर नहीं,पूरी तैयारी और आत्मविश्वास के साथ फिल्म इंडस्ट्री में आए। मप्र में कलाकारों में अद्भुत अभिनय क्षमता है, इसलिए निरंतर कार्यशाला आयोजित होने चाहिए। उन्होंने एक कविता सुनाकर कि पेड़ खड़े हैं, क्योंकि जमीन से गड़े हैं।
क्या आपके जीवन में कनुप्रिया के आने से आपके बहुआयामी प्रतिभा को विस्तार मिला?
कनु द्वारा संचालित चिल्ड्रेन थिएटर किल्लौल में संगीत देता हूं। कनु निरंतर बच्चों के लिए कार्यशाला आयोजत करती हैं। अभी गर्मी में पृथ्वी थिएटर के साथ मिलकर कार्यशाला आयोजित करने जा रही हैं।
स्त्री शक्ति को आप किस तरह परिभाषित करेंगे?
मां ने मुझे पहली बार नाटक के लिए मंच दिया। आदिशक्ति के रूप में हम देवी को पूजते हैं। मैं यह मानता हूं कि हर दिन स्त्री के नाम होना चाहिए। वैचारिक रूप से हमें उनका सम्मान करना चाहिए, न कि एक दिन। लेकिन पिता की भूमिका भी मेरे लिए मायने रखता है, क्योंकि उन्होंने मुझे सदा मार्गदर्शन किया।
कहीं सचमुच राजनेता बनने का इरादा तो नहीं?
बिल्कुल नहीं, अभिनय में अभी लम्बी यात्रा तय करनी है।
यह साक्षात्कार भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार के लिए रूबी सरकार ने लिया था
भोपाल आए सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सुरती ने कहा
खिड़की से आए पन्ने ने बदल दी जिंदगी
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सुरती उन कलाकारों में से हैं, जो उंगलियों की दक्षता या कैनवास पर उभरी सूक्ष्मताओं को कला नहीं मानते, उनकी नजर में सच्ची कला वह है, जो कैनवास पर थोपे गए रंगों को कुछ ऐसा दर्शाए, जो कभी सोचा या देखा न गया हो। वे लोक कला को जीवन का अनिवार्य अंग मानते हैं। उनकी अदभुत दक्षता सपने से कुछ अच्छा कुछ फंतासी से भरा हुआ सच है। अनुसंधान उनकी यात्रा में साफ झलकता है।
कार्टून से आपका पहला परिचय ?
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब गोरे सैनिक मलेशिया और वर्मा जाने के लिए मुंबई के गेट-वे ऑफ इंडिया में पानी के जहाज से उतरते और फिर माथेराम के लिए धीमी रफ्तार से चलने वाली रेल गाड़ियों में सवार होकर कलकत्ता (अब कोलकाता) के लिए रवाना हो जाते थे, हम धीमी रफ्तार से चलने वाली रेलगाड़ियों का पीछा करते थे। उस वक्त मैं करीब आठ-दस वर्ष का था, तब हिन्दुस्तान में कॉमिक्स थी ही नहीं। बहुत गरीब और मुफलिसी के दिन थे, लेकिन गोरे सैनिक चुइंगगम और टॉफी चबाते हुए , कॉमिक्स पढ़ते हुए तथा कुछ हम पर लुटाते हुए वहां से गुजरते थे। एक बार एक गोरे सैनिक ने एक पन्ना खिड़की से फेंका और वह हमारे हाथ आई, तब मैंने पहली बार कॉमिक्स देखी और नकल करना शुरू किया। नकल करते-करते अक्ल आ गई।
कार्टून विधा से आपका वास्तविक संबंध कब और कैसे हुआ?
1952-53 की बात है, जब स्काउट में ‘खरी कमाई डे’ में मैंने पहली बार टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक को अपना कार्टून बेचा। उसकी राशि तो याद नहीं, लेकिन पहली बार धर्मयुग में ढब्बूजी 15 रुपए में बिके और तब से तीस बरस का साथ रहा। धर्मवीर भारती कहा करते थे कि आबिद ने हिन्दी धर्मयुग को उर्दू बना दिया क्योंकि पाठक उसे आखिरी पन्ने से पढ़ना शुरू करते थे। इससे पूर्व पराग में बच्चों के लिए कार्टून बनाया करता था।
आपके कार्टून पर कभी कोई विवाद?
जब एनबीडी ने मेरे सौ कार्टून्स का अलबम आर्ट पेपर में छापा तो भगवा वालों ने कहा कि यह महिलाओं के गरिमा पर चोट है। उन लोगों ने एनबीडी को पत्र लिखकर इसे बेन कराने की बात कही। एनबीडी ने मृणाल पाण्डेय को निर्णायक बनाया। मृणाल ने कड़ा रुख अपनाते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा कि यदि यह महिलाओं की गरिमा पर चोट है, तो धर्मवीर भारती धर्मयुग के माध्यम से यह चोट लगातार 30 वर्ष तक करते रहे उस वक्त क्यों नहीं आपत्ति उठाई गई।
कलाकार के जीवन में स्पेस का महत्व?
स्पेस का महत्व तो है, लेकिन मेरे सारे आइडिया मेरी पत्नी के हैं, यदि वह मुझे सपोर्ट नहीं करती तो मेरे पास इतने आइडिया नहीं होते। ढब्बूजी की कथा ही पति-पत्नी के बीच नोक-झोंक है। यह मैं तर्जुबे से ही कर पाया।
समकालीन या बाद में किसका नाम लेना चाहेंगे?
मारियो मेरांडा, आरके लक्ष्मण जो राजनीतिक विषय पर कार्टून बनाते थे और मेरा विषय सामाजिक है। नए में मैं मंजुल का नाम लेना चाहूंगा। बहुत ही बौद्धिक है। मुझे रश्क होता है कि मैं क्यों नहीं उसके तरह सोच पाता। उसके कार्टून से मुझे उसे पत्र लिखने के लिए विवश किया।
नया क्या रच रहे हैं?
गीजू भाई की कहानियां 10 भागों में प्रकाशित हो रहा है। यह पुस्तक हिन्दी के अलावा सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होगी। इसके अलावा बच्चों के लिए एक उपन्यास नवाब रंगीले हिन्दी में लिखा है। इसमें हंसते-हंसते बच्चे हिन्दुस्तान की राजनीति सीख जाएंगे।
(यहसाक्षात्कारभोपालसेप्रकाशितपीपुल्ससमाचारकेलिएरूबीसरकारनेलियाथा।)
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सुरती उन कलाकारों में से हैं, जो उंगलियों की दक्षता या कैनवास पर उभरी सूक्ष्मताओं को कला नहीं मानते, उनकी नजर में सच्ची कला वह है, जो कैनवास पर थोपे गए रंगों को कुछ ऐसा दर्शाए, जो कभी सोचा या देखा न गया हो। वे लोक कला को जीवन का अनिवार्य अंग मानते हैं। उनकी अदभुत दक्षता सपने से कुछ अच्छा कुछ फंतासी से भरा हुआ सच है। अनुसंधान उनकी यात्रा में साफ झलकता है।
कार्टून से आपका पहला परिचय ?
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब गोरे सैनिक मलेशिया और वर्मा जाने के लिए मुंबई के गेट-वे ऑफ इंडिया में पानी के जहाज से उतरते और फिर माथेराम के लिए धीमी रफ्तार से चलने वाली रेल गाड़ियों में सवार होकर कलकत्ता (अब कोलकाता) के लिए रवाना हो जाते थे, हम धीमी रफ्तार से चलने वाली रेलगाड़ियों का पीछा करते थे। उस वक्त मैं करीब आठ-दस वर्ष का था, तब हिन्दुस्तान में कॉमिक्स थी ही नहीं। बहुत गरीब और मुफलिसी के दिन थे, लेकिन गोरे सैनिक चुइंगगम और टॉफी चबाते हुए , कॉमिक्स पढ़ते हुए तथा कुछ हम पर लुटाते हुए वहां से गुजरते थे। एक बार एक गोरे सैनिक ने एक पन्ना खिड़की से फेंका और वह हमारे हाथ आई, तब मैंने पहली बार कॉमिक्स देखी और नकल करना शुरू किया। नकल करते-करते अक्ल आ गई।
कार्टून विधा से आपका वास्तविक संबंध कब और कैसे हुआ?
1952-53 की बात है, जब स्काउट में ‘खरी कमाई डे’ में मैंने पहली बार टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक को अपना कार्टून बेचा। उसकी राशि तो याद नहीं, लेकिन पहली बार धर्मयुग में ढब्बूजी 15 रुपए में बिके और तब से तीस बरस का साथ रहा। धर्मवीर भारती कहा करते थे कि आबिद ने हिन्दी धर्मयुग को उर्दू बना दिया क्योंकि पाठक उसे आखिरी पन्ने से पढ़ना शुरू करते थे। इससे पूर्व पराग में बच्चों के लिए कार्टून बनाया करता था।
आपके कार्टून पर कभी कोई विवाद?
जब एनबीडी ने मेरे सौ कार्टून्स का अलबम आर्ट पेपर में छापा तो भगवा वालों ने कहा कि यह महिलाओं के गरिमा पर चोट है। उन लोगों ने एनबीडी को पत्र लिखकर इसे बेन कराने की बात कही। एनबीडी ने मृणाल पाण्डेय को निर्णायक बनाया। मृणाल ने कड़ा रुख अपनाते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा कि यदि यह महिलाओं की गरिमा पर चोट है, तो धर्मवीर भारती धर्मयुग के माध्यम से यह चोट लगातार 30 वर्ष तक करते रहे उस वक्त क्यों नहीं आपत्ति उठाई गई।
कलाकार के जीवन में स्पेस का महत्व?
स्पेस का महत्व तो है, लेकिन मेरे सारे आइडिया मेरी पत्नी के हैं, यदि वह मुझे सपोर्ट नहीं करती तो मेरे पास इतने आइडिया नहीं होते। ढब्बूजी की कथा ही पति-पत्नी के बीच नोक-झोंक है। यह मैं तर्जुबे से ही कर पाया।
समकालीन या बाद में किसका नाम लेना चाहेंगे?
मारियो मेरांडा, आरके लक्ष्मण जो राजनीतिक विषय पर कार्टून बनाते थे और मेरा विषय सामाजिक है। नए में मैं मंजुल का नाम लेना चाहूंगा। बहुत ही बौद्धिक है। मुझे रश्क होता है कि मैं क्यों नहीं उसके तरह सोच पाता। उसके कार्टून से मुझे उसे पत्र लिखने के लिए विवश किया।
नया क्या रच रहे हैं?
गीजू भाई की कहानियां 10 भागों में प्रकाशित हो रहा है। यह पुस्तक हिन्दी के अलावा सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होगी। इसके अलावा बच्चों के लिए एक उपन्यास नवाब रंगीले हिन्दी में लिखा है। इसमें हंसते-हंसते बच्चे हिन्दुस्तान की राजनीति सीख जाएंगे।
(यहसाक्षात्कारभोपालसेप्रकाशितपीपुल्ससमाचारकेलिएरूबीसरकारनेलियाथा।)
Thursday, March 25, 2010
संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी
महिला सशक्तिकरण की पहली शर्त महिला की पहचान होना है। जब वे अपने अस्तित्व की स्थापना कर अपने व्यक्तित्व का विकास करंेगी, तभी सामाजिक क्रांति का सूत्रपात होगा। मध्य प्रदेश सरकार ने महिलाओं को समता, समानता और गरिमा व क्षमताओं के साथ विकास के लिए बहुआयामी प्रक्रिया निर्धारित किए है। जिससे परिस्थितियां ऐसी बनें कि महिलाओं के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में होने के साथ ही समाज के विभिन्न स्तरों में उनकी सामूहिक क्षमता का सशक्तिकरण हो। लाडली लक्ष्मी योजना, कन्यादान, जननी सुरक्षा के साथ ही महिलाओं को स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण जैसी योजनाएं इसमें शामिल हैं।
स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण के बाद गांवों और शहरों के विकास के लिए सत्ता की बागडोर अब दो लाख से अधिक महिलाओं के हाथों में आ गया है। संविधान निर्माताओं के सपनों को पूरा करने की दिशा में अब प्रदेश में 180000 महिला पंच, 11520 महिला सरपंच, 3400 महिला जनपद सदस्य, 415 महिला जिला पंचायत सदस्य 156 जनपदों और 25 जिला पंचायतों में महिला अध्यक्ष, 1780 महिला पार्ष्द, 95 नगर पंचायत महिला अध्यक्ष, 32 नगरपालिका महिला अध्यक्ष व 8 नगर निगमों में महिला महापौर जिमेदारी से काम कर रही हैं।
उनके राजनीति में अधिक फैलाव के साथ-साथ चुनौतियां भी है। इन चुनौतियों में प्रमुख है महिलाओं के पक्ष में लिंग अनुपात में वृद्धि। किसी भी महिला प्रधान, मुखिया या सरपंच के लिए या हम यह तय कर सकते हैं कि उनके गांव में महिलाओं का लिंग अनुपात कम न हो। या फिर गड़बड़ाया हुआ लिंग अनुपात ठीक हो। या हम उन्हें ये कह सकते हैं कि अपने पंचायत में दस साल की अवधि में इसमें सुधार करने की कोशिश करो। इस सुधार के लिए उन्हें क्या करना होगा? इन मुद्दों को चुनाव घोषणा-पत्र में बदलना होगा। यह कोशिश करनी होगी कि हमारे सभी मुद्दे चुनाव के मुद्दे बनें और सभी कुछ पंचायत में जाए। तभी हम जमीनी हकीकत में चीजों के बदलने की कल्पना कर सकते हैं।
चुनौती यह भी है कि पावर के बारे में सोच बदलने की। उनके साथ इस पर चिंतन करना होगा कि चीजों को बदलने के लिए पावर की जरूरत होती है। न्यायिक प्रणाली में महिलाओं की भागीदारी। सेशन जज और मजिस्ट्रेट के स्तर पर अभी महिलाएं बहुत कम हैं। जबकि वास्तव में उनकी राजनीतिक भागीदारी काफी ज्यादा है। पंचायत के अंदर भी न्यायिक कमेटियां हैं। ग्रामीण अदालत का प्रस्ताव भी है, कानून बनने वाला है। महिलाओं को इसमें या भूमिका मिलने वाली है? यदि न्यायिक व्यवस्था के अंदर जेंडर पर्सपेक्टिव डाल सकते हैं तो यह बड़ी उपलधि होगी राजनीतिक भागीदारी के साथ यह परिवर्तन सत्ता की बनावट में महत्वपूर्ण अंतर आएगा।
जब कानून और आर्थिक नीतियांे दोनों को मिलाकर लागू किया जाता है, तो दरअसल पावर वास्तविक प्रशासन में बदलता है। इसलिए मांग तो जरूर उठाना चाहिए और महिलाओं को इसे पारंपरिक प्रशासन में लाना चाहिए। आर्थिक रूप से हम जितना उन्मुक्त हो रहे हैं, सामाजिक सोच के स्तर पर उतना ही संकीर्ण हो रहे हैं। जब वैश्र्वीकरण की प्रक्रिया गति पकड़ेगी और संसाधन सिकुडेंगे तब महिलाएं , जो आज सत्ता में हैं वो कहां होंगी? उनकी भूमिका क्या होगी? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्र्ान है और इस प्रजातांत्रिक जगह को बचाए रखने के लिए हमें जरूर सोचना चाहिए। तैयारी करनी चाहिए। देश आर्थिक रूप से उन्मुक्त हो रहा है पर यही उन्मुक्तता राजनीतिक प्रक्रिया में नहीं आ पा रही है। इसका महिलाओं की स्थिति पर बड़ा असर पड़ रहा है। यही से चुनौतियां शुरू होती है। नीतियों को बनाना, जेंडर सोच को विकसित करना और इस सोच के आधार पर कार्यक्रम और योजनाओं को लागू करने के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित करना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। महिलाओं को चुनौतियों से जुझते हुए आगे बढ़ना होगा।
अगर पंचायत की महिलाएं जेंडर की समझदारी विकसित कर पाती हैं तो यह शक्ति आसानी से सामाजिक बदलाव की एक शक्ति बन सकेगी। इसी तरह राज्य विधान सभाओं और संसद में 33 फीसदी महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना अभी भी महिलाओं के लिए चुनौती है। हालांकि भारत का संविधान सभी महिलाओं को समानता की गारंटी देता है। धारा 14 में वर्णित राद्गय द्वारा किसी के साथ लैंगिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता, धारा 15-1 स्ाभी को अवसरों की समानता तथा धारा 16 समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान है। पर, कितनी महिलाओं को यह सब आसानी से मिल पाता है। असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं समान हैसियत की श्रमिक कभी नहीं बन पाईं। आज शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जहां महिलाएं काम नहीं करती। लेकिन हर जगह उनका वेतन कम है। समाज का यह एक कड़वा सच है। महिलाओं के श्रम की कम कीमत का सबसे बड़ा कारण उनका महिला होना है। तर्क यह दिया जाता है कि पुरुषें को अपने परिवार का भरण-पोषण करना पड़ता है, जबकि महिलाएं केवल अतिरिक्त आय के लिए श्रम करती हैं। यथार्थ ठीक इसके विपरीत है। करोड़ों की संख्या में महिलाएं अपने कमाई से परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। विकास की यात्रा में सभ्य समाज में शिक्षित महिला की बात करते हुए समाज असर उन ज्वलंत मुद्दों को पीछे छोड़ देते हैं, जिससे महिलाओं का भविष्य जुड़ा है। सत्ता और व्यक्ति द्वारा उसका शोषण किया जाना, भ्रूण हत्या, बाल विवाह, कार्यस्थल पर स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव आदि शामिल है। यूं भी महिलाएं अब गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलना चाहती हैं इसलिए नई चुनौतियों से संघर्ष करती यह महिलाएं ज्यादा सबल और सशक्त हैं। महिलाओं के लिए बनाए गए सामाजिक और धार्मिक विधान, देह से जोड़ी गई पवित्रता और शुचिता की धारणाएं, परंपराओं और रुचियों के नाम पर किए जा रहे अमानवीय व्यवहार अब समाप्त होने चाहिए। महिलाएं को दूसरों द्वारा परिभाषित होना नकार कर स्वयं की परिभाषा गढ़नी चाहिए। स्वयं को सपूर्ण मानव व्यक्तिगत के रूप में देखना एवं अबला छवि से मुक्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
बहरहाल, भारतीय राजनीति में महिलाओं की शून्यता अब धीरे-धीरे कम हो रही है। पंचायती राज के पूरे 15 वर्षों के दौरान महिलाओं ने अपनी शक्ति को पहचाना है और उनमें किसी हद तक राजनीतिक चेतना का भी प्रसार हुआ है। वे संषर्घों से ऊपर उठकर अपने अनुभवों से राजनैतिक बहस को दिशा देने की तैयारी में हैं। सार्वजनिक विषय तथा निर्णयों पर विचार-विमर्श का दायरा अब रसोई घर तक पहुंच गया है। महिला आरक्षण विध्ोयक पारित होने के बाद जो महिलाएं संसद और विधानसभाओं में चुनकर आएंगी उनका पंचायत स्तर की महिलाओं तक नेटवर्क होगा, जिसके कारण पंचायत में महिलाओं को और अधिक सशक्त होने का अवसर मिलेगा।
रूबी सरकार
महिला सशक्तिकरण की पहली शर्त महिला की पहचान होना है। जब वे अपने अस्तित्व की स्थापना कर अपने व्यक्तित्व का विकास करंेगी, तभी सामाजिक क्रांति का सूत्रपात होगा। मध्य प्रदेश सरकार ने महिलाओं को समता, समानता और गरिमा व क्षमताओं के साथ विकास के लिए बहुआयामी प्रक्रिया निर्धारित किए है। जिससे परिस्थितियां ऐसी बनें कि महिलाओं के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में होने के साथ ही समाज के विभिन्न स्तरों में उनकी सामूहिक क्षमता का सशक्तिकरण हो। लाडली लक्ष्मी योजना, कन्यादान, जननी सुरक्षा के साथ ही महिलाओं को स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण जैसी योजनाएं इसमें शामिल हैं।
स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण के बाद गांवों और शहरों के विकास के लिए सत्ता की बागडोर अब दो लाख से अधिक महिलाओं के हाथों में आ गया है। संविधान निर्माताओं के सपनों को पूरा करने की दिशा में अब प्रदेश में 180000 महिला पंच, 11520 महिला सरपंच, 3400 महिला जनपद सदस्य, 415 महिला जिला पंचायत सदस्य 156 जनपदों और 25 जिला पंचायतों में महिला अध्यक्ष, 1780 महिला पार्ष्द, 95 नगर पंचायत महिला अध्यक्ष, 32 नगरपालिका महिला अध्यक्ष व 8 नगर निगमों में महिला महापौर जिमेदारी से काम कर रही हैं।
उनके राजनीति में अधिक फैलाव के साथ-साथ चुनौतियां भी है। इन चुनौतियों में प्रमुख है महिलाओं के पक्ष में लिंग अनुपात में वृद्धि। किसी भी महिला प्रधान, मुखिया या सरपंच के लिए या हम यह तय कर सकते हैं कि उनके गांव में महिलाओं का लिंग अनुपात कम न हो। या फिर गड़बड़ाया हुआ लिंग अनुपात ठीक हो। या हम उन्हें ये कह सकते हैं कि अपने पंचायत में दस साल की अवधि में इसमें सुधार करने की कोशिश करो। इस सुधार के लिए उन्हें क्या करना होगा? इन मुद्दों को चुनाव घोषणा-पत्र में बदलना होगा। यह कोशिश करनी होगी कि हमारे सभी मुद्दे चुनाव के मुद्दे बनें और सभी कुछ पंचायत में जाए। तभी हम जमीनी हकीकत में चीजों के बदलने की कल्पना कर सकते हैं।
चुनौती यह भी है कि पावर के बारे में सोच बदलने की। उनके साथ इस पर चिंतन करना होगा कि चीजों को बदलने के लिए पावर की जरूरत होती है। न्यायिक प्रणाली में महिलाओं की भागीदारी। सेशन जज और मजिस्ट्रेट के स्तर पर अभी महिलाएं बहुत कम हैं। जबकि वास्तव में उनकी राजनीतिक भागीदारी काफी ज्यादा है। पंचायत के अंदर भी न्यायिक कमेटियां हैं। ग्रामीण अदालत का प्रस्ताव भी है, कानून बनने वाला है। महिलाओं को इसमें या भूमिका मिलने वाली है? यदि न्यायिक व्यवस्था के अंदर जेंडर पर्सपेक्टिव डाल सकते हैं तो यह बड़ी उपलधि होगी राजनीतिक भागीदारी के साथ यह परिवर्तन सत्ता की बनावट में महत्वपूर्ण अंतर आएगा।
जब कानून और आर्थिक नीतियांे दोनों को मिलाकर लागू किया जाता है, तो दरअसल पावर वास्तविक प्रशासन में बदलता है। इसलिए मांग तो जरूर उठाना चाहिए और महिलाओं को इसे पारंपरिक प्रशासन में लाना चाहिए। आर्थिक रूप से हम जितना उन्मुक्त हो रहे हैं, सामाजिक सोच के स्तर पर उतना ही संकीर्ण हो रहे हैं। जब वैश्र्वीकरण की प्रक्रिया गति पकड़ेगी और संसाधन सिकुडेंगे तब महिलाएं , जो आज सत्ता में हैं वो कहां होंगी? उनकी भूमिका क्या होगी? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्र्ान है और इस प्रजातांत्रिक जगह को बचाए रखने के लिए हमें जरूर सोचना चाहिए। तैयारी करनी चाहिए। देश आर्थिक रूप से उन्मुक्त हो रहा है पर यही उन्मुक्तता राजनीतिक प्रक्रिया में नहीं आ पा रही है। इसका महिलाओं की स्थिति पर बड़ा असर पड़ रहा है। यही से चुनौतियां शुरू होती है। नीतियों को बनाना, जेंडर सोच को विकसित करना और इस सोच के आधार पर कार्यक्रम और योजनाओं को लागू करने के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित करना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। महिलाओं को चुनौतियों से जुझते हुए आगे बढ़ना होगा।
अगर पंचायत की महिलाएं जेंडर की समझदारी विकसित कर पाती हैं तो यह शक्ति आसानी से सामाजिक बदलाव की एक शक्ति बन सकेगी। इसी तरह राज्य विधान सभाओं और संसद में 33 फीसदी महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना अभी भी महिलाओं के लिए चुनौती है। हालांकि भारत का संविधान सभी महिलाओं को समानता की गारंटी देता है। धारा 14 में वर्णित राद्गय द्वारा किसी के साथ लैंगिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता, धारा 15-1 स्ाभी को अवसरों की समानता तथा धारा 16 समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान है। पर, कितनी महिलाओं को यह सब आसानी से मिल पाता है। असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं समान हैसियत की श्रमिक कभी नहीं बन पाईं। आज शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जहां महिलाएं काम नहीं करती। लेकिन हर जगह उनका वेतन कम है। समाज का यह एक कड़वा सच है। महिलाओं के श्रम की कम कीमत का सबसे बड़ा कारण उनका महिला होना है। तर्क यह दिया जाता है कि पुरुषें को अपने परिवार का भरण-पोषण करना पड़ता है, जबकि महिलाएं केवल अतिरिक्त आय के लिए श्रम करती हैं। यथार्थ ठीक इसके विपरीत है। करोड़ों की संख्या में महिलाएं अपने कमाई से परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। विकास की यात्रा में सभ्य समाज में शिक्षित महिला की बात करते हुए समाज असर उन ज्वलंत मुद्दों को पीछे छोड़ देते हैं, जिससे महिलाओं का भविष्य जुड़ा है। सत्ता और व्यक्ति द्वारा उसका शोषण किया जाना, भ्रूण हत्या, बाल विवाह, कार्यस्थल पर स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव आदि शामिल है। यूं भी महिलाएं अब गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलना चाहती हैं इसलिए नई चुनौतियों से संघर्ष करती यह महिलाएं ज्यादा सबल और सशक्त हैं। महिलाओं के लिए बनाए गए सामाजिक और धार्मिक विधान, देह से जोड़ी गई पवित्रता और शुचिता की धारणाएं, परंपराओं और रुचियों के नाम पर किए जा रहे अमानवीय व्यवहार अब समाप्त होने चाहिए। महिलाएं को दूसरों द्वारा परिभाषित होना नकार कर स्वयं की परिभाषा गढ़नी चाहिए। स्वयं को सपूर्ण मानव व्यक्तिगत के रूप में देखना एवं अबला छवि से मुक्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
बहरहाल, भारतीय राजनीति में महिलाओं की शून्यता अब धीरे-धीरे कम हो रही है। पंचायती राज के पूरे 15 वर्षों के दौरान महिलाओं ने अपनी शक्ति को पहचाना है और उनमें किसी हद तक राजनीतिक चेतना का भी प्रसार हुआ है। वे संषर्घों से ऊपर उठकर अपने अनुभवों से राजनैतिक बहस को दिशा देने की तैयारी में हैं। सार्वजनिक विषय तथा निर्णयों पर विचार-विमर्श का दायरा अब रसोई घर तक पहुंच गया है। महिला आरक्षण विध्ोयक पारित होने के बाद जो महिलाएं संसद और विधानसभाओं में चुनकर आएंगी उनका पंचायत स्तर की महिलाओं तक नेटवर्क होगा, जिसके कारण पंचायत में महिलाओं को और अधिक सशक्त होने का अवसर मिलेगा।
रूबी सरकार
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