Saturday, September 16, 2023

पति बॉर्डर पर तो पत्नी मध्यप्रदेश में बढ़ा रहीं महिलाओं का हौसला

 





पति बॉर्डर पर तो पत्नी मध्यप्रदेश में बढ़ा रहीं महिलाओं का हौसला

रूबी सरकार  

परवरिश  संभ्रांत परिवार मे, शादी हुई वह भी बड़े परिवार में, पति कर्नल राजा दीक्षित, एक बेटी, फिर भी भोपाल की दीपा दीक्षित को  लगता था कि उसके जीवन में कुछ छूट रहा है। उन्होंने सीलीगुड़ी के आर्मी स्कूल, हरियाणा में क्रिकेटर वीरेंद्र सहबाग द्वारा स्थापित  स्कूल के अलावा भोपाल में संस्कार बैली के साथ ही  15 सालों तक देश  के अनेक बड़े स्कूलों, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में भी शिक्षक और प्राचार्य तक रहीं , फिर भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी। क्योंकि इन्हीं स्कूलों में काम करते हुए जब समुदाय के बीच जाती थी तो वहां एक ही कमरे में दो-तीन कक्षा के बच्चों को पढ़ते हुए देखती थीं। कई स्कूलों में  कमरे के उपर छत नहीं होता था। यह असमानता दीपा को खलने लगी और उनकी बेचैनी बढ़ती गई। जब दीपा की बच्ची बड़ी होकर स्कूल जाने लगी, तब उन्हें लगा कि अब समाज के लिए कुछ करना चाहिए।  जिससे असमानता, भेदभाव  कम हो और उनके जीवन में कुछ बदलाव आए। दीपा कहती हैं कि वे पति के साथ-साथ देश के जिस कोने में गई, वहां उन्होंने गरीबी-अमीरी, महिला-पुरुष के बीच असमानता व भेदभाव को देखा। जिससे उन्हें बहुत तकलीफ होती थी।

भोपाल वापस आई तो यहां भी करीब-करीब वही दृश्य देखने को मिला । उन्होंनें पति से इस पर चर्चा की । पति राजा दीक्षित की श्रीनगर बार्डर पर पोस्टिंग और बेटी दिल्ली में उच्च शिक्षा  के लिए जाने के बाद दीपा ने खाली समय में स्लम्स में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगी। उन बच्चों को पढ़ाने के दौरान उनकी पहचान  स्लम्स में रह रहीं हुनरमंद महिलाओं से हुई।  कला पारखी दीपा ने देखा कि स्लम्स की महिलाओं में जबरदस्त हुनर हैं, वे घर पर बैठकर जरदोजी का काम करती हैं और बिचौलिए आकर उन्हें थोडे पैसे देकर उनका आर्ट ले जाते हैं और बाजार में उसे चे दामों में बेचते हैं।

डसने सोचा क्यों न इनकी कला को प्रोत्साहित किया जाए। जिससे उनकी आजीविका में सुधार आए। इन्हें इनके काम का ऊचित दाम मिले।  बाजार में इन कलाकारों केा कोई नहीं जानता।  पहले झिझक थी, फिर हिम्मत जुटाकर उनसे बात की, तो पता चला कि संसाधन की कमी के कारण वे बिचौलियों पर निर्भर हैं। दीपा ने अपनी जमापूंजी लगाकर उनके लिए कच्चा सामान खरीद कर उन्हें उपलब्ध कराया। इसके बाद उनके तैयार किए सामनों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए शो रूम्स और सरकारी विभागों से पहल की। इस तरह जरूरतमंद महिलाएं दीपा के साथ जुड़ती चली गईं और दीपा का रागिनी फाउंडेशन का आकार बढ़ता चला गया। महिलाओं को उनके काम का अच्छा दाम मिलने लगा। एक-एक आइटम पर दो सौ से तीन सौ रुपए का फायदा होने लगा। वह आत्मनिर्भर बन रही थी और दीपा की ख्याति फैल रही थी। अब दीपा भोपाल से बाहर भी उनके लिए बाजार ढूंढ़ने लगी। उन्होंने राज्य एवं भारत सरकार के साथ-साथ कई निजी कंपनियों से अनुबंध कर ग्वालियर-चंबल इलाके की महिलाओं के बाजार तैयार करने लगी। वह महिलाओं से बैग, फोल्डर, सोविनियर, कपड़े, गिफ्ट आइटम तैयार करने के लिए कार्यशालाएं की।

दीपा कहती हैं कि अब उसे खाली समय में सार्थक काम करने का बहुत बड़ा मकसद मिल गया। इन दिनों वह सिर्फ महिलाओं के हूनर को ही प्लेटफॉर्म नहीं देती, बल्कि किशोरियों का जीवन भी संवार रही हैं। दीपा ने सरकार के सहयोग से किशोरियों को आत्मनिर्भर बनाने के अलग-अलग प्रोफेशन के लिए उन्हें प्रशिक्षण दे रही हैं। इसके लिए उन्हें कई स्वयंसेवकों का साथ मिला। जो अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। दीपा एक साथ तीन परियोजना पर काम कर रही हैं। पर्यटन विभाग के साथ मिलकर वह ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा दे रही हैं। गांव में पर्यटकों के ठहरने के लिए ग्रामीणों को होम स्टे का प्रशिक्षण दे रही हैं। अब तक पर्यटकों के लिए मुरैना जैसे जिले में 15 होमस्टे तैयार हो चुका है। इसकेे अलावा फॉरेस्ट गार्ड के लिए किशोरियों का प्रषिक्षण जारी है। मध्यप्रदेष के माधव नेशनल पार्क में कुछ लड़कियों को गार्ड की नौकरी भी मिल चुकी है।

ग्वालियर-चंबल में काष्ठकला, पेंटिंग्स आदि कई विधाओं में उनका  प्रशिक्षण देने का काम अनवरत चल रहा है। कई किषोरियों का प्लेसमेंट भी हो चुका है। अब तक प्रशिक्षण प्राप्त कर करीब पांच सौ अधिक महिलाएं और किशोरियां आत्मनिर्भर बनी हैं। दीपा कहती है कि जब गांव की लड़कियां फॉरेस्ट गार्ड बनकर यूनिफॉम में मध्यप्रदेश के जंगल व जानवरों की सुरक्षा करती हैं या चंबल के मिलावती कस्बे में ग्रामीण परिवारों के घर पर आकर कनाडा के पर्यटक होम स्टे करते है और ग्रामीण परिवार अतिथि देव भवः की संकल्पना को ध्यान में रखकर उनकी सेवा करते हैं तब गर्भ  महसूस करती हूं। लगता है कि हमें जिस काम के लिए ईश्वर ने धरती पर भेजा , शायद मैं उसे कुछ हद तक पूरा कर पा रही हूं। यह सोच और सेवा सभी को नसीब नहीं होती।

इतना ही नहीं, दीपा का फाउंडेशन के प्रयास से ग्वालियर -चंबल में घरेलू हिंसा से लेकर महिलाओं से संबंधित कई अपराधों में कमी आई है। लोगों को काम मिलने लगा, तो अपराध में कमी आने लगी। किशोरियों को आत्मरक्षा के गुर सिखाने के बाद उनके विरूद्ध छेड़छाड़ व अन्य अपराधों में कमी आई।

Amrit Sandesh 10 september 23




जिस मालगाड़ी से बंदेलखंड में कभी पानी आता था अब उसी से चावल की हो रही सप्लाई

 



जिस मालगाड़ी से बंदेलखंड में कभी पानी आता था
 अब उसी से चावल की हो रही सप्लाई


रूबी सरकार


 चित्रकूट-बांदा जिला कभी डाकूओं और अपराधियों के लिए कुख्यात था। लेकिन अब चित्रकूट-बांदा ही नहीं, बल्कि पूरे बुंदेलखंड में अपराधियों की संख्या घटी है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका सर्वोच्च लोक सम्मान से सम्मानित पद्मश्री उमाशंकर पाण्डेय  का है, जिन्होंने कई दशकों तक इस क्षेत्र में जल संरक्षण का काम किया। उमाषशकर बांदा जिले का एक गांव जखनी, के रहने वाले हैं। पहले तो इन्होंने सूखे जखनी  को खेत में मेड़़ बंधान कर जलग्राम बनाया। इसके बाद सूखे के लिए बुंदेलखंड के किसानों को  प्रशिक्षण देकर न केवल वहां समुदायों की आजीविका में सुधार लाए, बल्कि अपराध और पलायन को भी रोकने में सफलता हासिल की। पाण्डेय को समुदाय के साथ जुड़कर काम करने की प्रेरणा अपनी मां सुमित्रा देवी से मिली। वे बताते हैं कि जिस मालगाड़ी से कभी बुंदेलखंड में पानी की सप्लाई की जाती थी।  आज उसी मालगाड़ी से बासमती चावल की सप्लाई पूरे देश में हो रही है।

दरअसल स्वतंत्रता सेनानी के परिवार में जन्मे  उमाशंकर पाण्डेय को युवावस्था में मां ने किसी बात पर डांटते हुए कहा था, कि जीवन में कुछ नया करना चाहते हो, तो पहले अपना गांव घूम लो। यहां के लोगों से मिलने के बाद मां ने मशहूर बांदा जेल में अपराधियों से मिलने की सलाह दी थी। मां के कहने पर उमाशंकर गांव व जेल दोनों  जगह गए । उन्होंने देखा कि गांव में 58 फीसदी घरों में ताले जड़े हुए थे और जेल के कैदियों जखनी वालों की संख्या अधिक थी। वापस आकर  उन्होंने अपने मां से दोनों जगहों की बात साझा की और प्रश्न किया कि ऐसा क्यों है?  मां ने इसके जो कारण बताए, उससे उमाशंकर की जीवन की दिशा ही बदल गई। उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि गांव में रहकर ग्रामीणों की जिंदगी में सुधार लाना है। उनकी आजीविका में सुधार लाने के लिए  खेती-किसानी को बढ़ावा देने के अलावा उस समय दूसरा और कोई रास्ता नहीं था।  कृषि ही एक मात्र उपाय है, जो इंसान का पेट भरता है।  इससे पलायन और युवाओं को अभाव के चलते अपराधी बनने से रोका जा सकता है।
आजीविका सुधारने के लिए उस वक्त एक ही उपाय था कि गांव की जमीन को उपजाउ बनाया जाए। उन्होंने भमि सुधार के अंतर्गत ग्रामीणों को उबड़-खाबड़ जमीन को समतल  करना सिखाया। इसके बाद खेतों में मेड़़ बंधान के लिए ग्रामीणों को प्रेरित किया। यह श्रमसाध्य काम था। हालांकि यह पुरखों की विधि है। लेकिन  बड़े किसान ही कोल समुदाय के सहयोग से यह कर पाते थे। क्योंकि कोल समुदाय को इस काम में सिद्धहस्त प्राप्त था, जो बड़े किसानों के खेतों में मजदूरी करते थे। उमाषशंकर ने श्रमदान के जरिए किसानों को खेतों में मेड़ बनाना सिखाया, जिससे खेतों में नमी आने लगी। मिट्टी में सूक्ष्म जीव पलने लगे, इससे भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ गई । जब परिणाम सामने आने लगे, तब उन्होंने नारा दिया 'खेत में मेड़़ और मेड़़ में पेड़' , बस क्या था।  धीरे-धीरे पूरे गांव में हरियाली लहलहाने लगी।  भूमि के कटाव के कारण मृदा  के पोषक तत्व  खेत से बह जाते थे, अब वह रुकने लगा। पशुओं को चारा मिलने लगा। किसान मेड़़ पर  बेल, सहजन, सागौन, करौदा, अमरूद,नींबू जैसे फलदार और छायादार औषधि के पेड़ लगाने लगे। खेतों में धान व गेहूं का उत्पादन इतना बढ़ गया कि भारत सरकार ने भी इस गांव को मॉडल गांव के रूप में स्वीकर किया और निर्णय लिया कि देश में मनरेगा के अंतर्गत ग्रामीणों को मजदूरी देकर मेड़़ बंधान करवाया जाए। इससे ग्रामीणों को दोहरा लाभ मिलेगा।
उमाशंकर के प्रयास से बिना प्रचार-प्रसार के मेड़़बंदी विधि डेढ़ लाख से अधिक गांव तक पहुंच गई। जलशक्ति व ग्रामीण विकास मंत्रालय, नीति आयोग ने इस परंपरागत जल संरक्षण विधि को उपयुक्त माना । ग्रामीणों ने मनरेगा के अंतर्गत जल सहेजने के लिए कुंआ,तालाब, बांध, बड़े-बड़े जलाशय बनाना शुरू कर दिए । अब जखनी में पानी से लबालब भरे बड़ी दाई तालाब, रद्दू बाबा तालाब, रसिया तालाब, गड़रिया तालाब, नरसिंह तालाब, बड़ा तालाब और जखनिया तालाब अपने आप में बसंत सा मौसम बयां करते हैं। बढ़ता जलस्तर जखनी के किसानों की हिम्मत की कहानी है।
मंगल पाण्डेय फाउंडेशन के सचिव उमाषशंकर कहते हैं, कि जल सहेजने का एक ही सिद्धांत है कि जहां वर्षा की बूंदे गिरे उसे वहीं रोके। इस विधि से केवल भूजल स्तर ही नहीं बढ़ता, बल्कि लाखों खेत के जीव-जंतु को पेड़ पौधों को पीने के लिए पानी मिलता है। खेत से फसल लाने के लिए पुरखों की यह सबसे पुरातन जल संरक्षण विधि है, जो परंपरागत के साथ सामुदायिक है। सुलभ है, बगैर किसी तकनीकी मशीन , शिक्षण, प्रशिक्षण के कोई भी किसान नौजवान मजदूर खुद अपनी मेहनत से अपने खेत में इस विधि से जल संरक्षण कर सकता है।  'खेत में मेड़़, मेड़़ पर पेड़' इस विधि के कारण भारत वर्ष में जलग्राम जखनी को जाना जाने लगा है। यह मेड़़ बंधान केवल खेतों तक ही सीमित नहीं है, इसे बड़े-बड़े उद्योगिक घरानों ने भी अपनाया है। उमाषशंकर द्वारा शुरू किए गए इस परंपरागत प्रयास से बुंदेलखंड में रवि और खरीफ का रकबा बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार जिस गांव में कभी 200 बीघे में सामान्य धान  होता था, वहां 1000 बीघे में धान होने लगा है। इसी तरह गेंहू की उपज में भी काफी वृद्धि हुई है।
समुदाय की आजीविका सुधारने के लिए समुदाय के साथ मिलकर अथक प्रयासों से उमाषशंकर पाण्डेय ने जो प्रयास किए, उसके लिए भारत सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च लोक सम्मान 'पद्मश्री' से सम्मानित किया है। पाण्डेयजी कहते हैं कि पानी, पेड़ और मिट्टी के लिए बिना थके, बिना रूके डटे रहना ही उनके जीवन का उद्देश्य है।

  Amrit Sandesh 03 semtember 23




मध्य प्रदेश में गांवों की तस्वीर पलट रहा सामुदायिक रेडियो

 




मध्य प्रदेश में गांवों की तस्वीर पलट रहा सामुदायिक रेडियो

रूबी सरकार

मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में बैगाभीलसहरियागोंडभारिया और कोरकू जैसी जनजातियों के अपने सामुदायिक रेडियो हैंजिन पर ये अपनी ही बोली-भाषा में कार्यक्रम बनाते और प्रसारित करते हैं। लोकगीतलोक-कहानियांभजन से लेकर कविताएं और राजनीतिक परिचर्चा तक इन बोलियों में होती है। दिलचस्प यह कि इनके कार्यक्रमों को सुना भी खूब जाता है।

दरअसल भारत सामुदायिक विविधता वाला देश है। इसलिए सीमित क्षेत्र विशेष में उनकी भाषा में जानकारी पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम आज भी रेडियो बना हुआ है। इससे वहां क्षेत्र विशेष के कलाकारों को उनकी भाषा में बात करने वालों को काम मिलता है। ं गांव में  प्रचार-प्रसार और जागरूकता फैलाने का बहुत बड़ा माध्यम रेडियो है। बच्चों के टीकाकरण हो या अन्य स्वास्थ्य संबंधी जानकारीषिक्षाविकास और रोजगार की बातेंउन्नत कृषि की जानकारी सब कुछ रेडियों रूपक के माध्यम से दी जाती है। इससे समुदाय का जुड़ाव भी होता है।

हुआ यह कि 1991 के बाद उदारीकरण के दौर में कुछ बड़ा और विराट करने के चक्कर में रेडियों को खूंटी पर टांग दिया गया था और उसके बदले कई अन्य माध्यम सामने आ गए थे। जिसे समाज ने हाथों-हाथ लियालेकिन समय बीतने के साथ-साथ समुदाय व सरकार दोनों को महसूस होने लगा कि एक बड़ा वर्ग जानकारी के अभाव में पीछे छूट रहा है। तब दोबारा से रेडियों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास शुरू हुआ।

 मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ का छोटा-सा गांव गडवाड़ा के आदिवासी आज रेडियो की आवाज से जागते हैं। यहां महान क्रांतिकारी टंट्या मामा के नाम पर सामुदायिक रेडियो शुरू हुआ , जिस पर यहां की स्थानीय भीली बोली में कार्यक्रम प्रसारित होते हैंजिन्हें आदिवासी बड़े चाव से सुनते हैं।

 इसी तरह बैतूल जिले के चिचोली में गुनेश मरकाम और साथी मिलकर गोंड भाषा में कार्यक्रम बनाते और प्रसारित करते हैं। इस रेडियो केंद्र के कारण  आसपास के 20 से अधिक गांवों के लिए किसी सुपरस्टार से कम नहीं हैं।

माखन पुरम  में कर्मवीर सामुदायिक रेडियो केंद्र 90.0 एफएम शुरू

इसी कड़ी में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने पहल करते हुए अपने नए परिसर माखनपुरम  में सामुदायिक रेडियो कर्मवीर का प्रसारण   प्रारंभ कर दिया है। विश्वविद्यालय के कुलगुरु  प्रो डाॅ केजी सुरेश का  मानना है कि सामुदायिक रेडियो कर्मवीर आसपास के क्षेत्रों में बदलाव लाने का एक माध्यम होगा । प्रो सुरेश कहते हैं इसके जरिए गांवकस्बो के लोगों तक पहुंचा जा सकता है ,उनके सुख-दुख में भागीदार बन सकते हैं। रेडियो कर्मवीर में सुबह 9 से 12 बजे तक विविध कार्यक्रम प्रसारित किए जाएंगे। जो विश्वविद्यालय के विद्यार्थी तैयार करेंगे। कंटेंट में ग्रामीणों की भी भागीदारी रहेगी।

उन्होंने कहा कि ये रेडियो भोपाल के शहरी इलाकों के साथ साथ गोरेगांवबिशनखेड़ीमुगलिया छापनीलबड़रातीबड़ सहित कई अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में भी सुना जा सकेगा। सरकारी ग्रामीण विकास की योजनाओं के प्रति जागरूक करने में ये रेडियो चैनल अहम भूमिका निभाएगा। प्रो. . सुरेश के अनुसार‘विद्यार्थियों के माध्यम से जल्द ही ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता कार्यक्रम भी आयोजित किए जाएंगेजिनके माध्यम से यह जानकारी भी ली जाएगी कि ग्रामीण किस तरह के रेडियो कार्यक्रम सुनना पसंद करते हैं।

इससे जहां माखन पुरम के आस-पास के ग्रामीण अपने में सिमटे-सिमटे रहते थेअब सामुदायिक रेडियो कर्मवीर के कारण दुनिया-जहान के समाचार सुन पाएंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मन की बात के साथ-साथ सरकारी योजनाओं की जानकारी भी उन्हें मिलेगी। योजनाओं को समझ कर उनके लिए आवेदन करेंगे और उन्हें लाभ पहुंचाने में विद्यार्थी उनकी मदद करेंगे। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण और विद्यार्थियों के बीच एक संवाद स्थापित होगा।

फिलहाल मप्र में केवल जनजातीय क्षेत्रों में ही नौ सामुदायिक रेडियो केंद्र हैं। इनमें आदिवासी बहुल जिला डिंडौरी के चाडा में बैगा रेडियोधुर नक्सली जिला बालाघाट के बैहर में बैगा सामुदायिक रेडियोधार के नालछा में भील रेडियोझाबुआ के मेघनगर में भील सामुदायिक रेडियो व गडवाड़ा गांव में टंट्या मामा रेडियोआलीराजपुर के भाभरा में भीली रेडियोश्योपुर के सेसईपुरा में सहरिया रेडियोबैतूल के चिचोली में गोंड रेडियोगुना के उमरी में भील रेडियोछिंदवाड़ा के बिजौरी में भारिया रेडियो और खंडवा के खालवा में कोरकू सामुदायिक रेडियो धूम मचा रहे हैं। इसके अलावा प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित शासकीय सरोजिनी नायडू कन्या स्कूल में तो सामुदायिक रेडियो के कारण कमाल हो गया है।

क्रांतिकारियों की गौरव गाथा गाता है रेडियो आजाद हिंद 90.8

मप्र सरकार का स्वराज संस्थान संचालनालय भोपाल से रेडियो आजाद हिंद का संचालन करता है। इस सामुदायिक रेडियो पर देश-प्रदेश के क्रांतिकारियों की गौरव गाथा सुनाई जाती है। लोग जैसे ही 90.8 पर ट्यून-इन करते हैंउन्हें 1857 की क्रांति से लेकर भारत को स्वतंत्र करवाने में प्राण न्योछावर कर देने वाले वीरों तक की गर्व से भरी कहानियां सुनने को मिलती हैं। इस रेडियो के कारण प्रदेश के स्कूली बच्चे भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सही अर्थों में जानने-समझने लगे हैं।

 Amrit sandesh 13 Autust,202


                                               


नातरा-झगड़ा कुप्रथा के खिलाफ राजगढ़ में महिलाओं का लाल चुनर गैंग

 नातरा-झगड़ा कुप्रथा के खिलाफ राजगढ़ में महिलाओं का लाल चुनर गैंग

रूबी सरकार
मध्य प्रदेश की राजगढ़ ग्राम भोनीपुरा निवासी पिंकी तंवर जब 10 साल की थी, तब उसके पिता ने उसका नातरा ग्राम भोनीपुरा में गिरधारी तंवर के साथ कर दी थी। अभी पिंकी 19 साल की है। हाल ही में  पिंकी के पति का एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। अब उसके खुद के पिता,भाई, मामा एवं अन्य परिजन उसकी सहमति के बिना उसे पांच लाख रुपए में एक अन्य बुजुर्ग को बेच दिया ,जिसकी पहले से ही दो पत्नी है , दोनों उसके साथ ही रहती हैं , परंतु पिंकी उस बुजुर्ग के साथ जाना नहीं चाहती थी , इसलिए वह अपने सास-ससुर के पास भाग गई। लेकिन उसके परिजन वहां जाकर आगजनी करने की धमकी  दे रहे हैं। वे पिंकी पर उस बुजुर्ग से शादी करने के लिए दबाव बना रहे है। पिंकी ने इसकी जानकारी संबंधित थाने में दी और पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाई है। लेकिन अभी तक उसे थाने से सुरक्षा की कोई मदद नहीं मिली। अ ब वह उच्च अधिकारियों के यहां अर्जी देकर सुरक्षा की मांग कर रही है। पिंकी की तरह ही राजगढ़, गुना, शाजापुर  मंदसौर , चाचौड़ के साथ ही राजस्थान के झालावाड़, चित्तौड़गढ़, बारा आदि जिलों की हजारों लड़कियां नातरा जैसी कुप्रथा का दंश झेली रही हैं।

दरअसल नातरा कुप्रथा यहां सदियों से चली आ रही हैं। यह प्रथा बचपन में सगाई होने या शादी के बाद वैवाहिक संबंधों में समस्या आने पर या पति या पत्नी में किसी प्रकार की कोई अनबन के कारण जब दोनों अलग होते हैं वर पक्ष वाले बधु पक्ष से एक मोटी रकम की मांग करते हैं जो रकम लाखों में यहां तक कि 20 लाख रुपए से अधिक भी हो सकती है। इसमें गलती किसी की भी हो प्रायः रकम लड़की वालों को ही चुकानी पड़ती है। नातरा शादी के नाम लड़की को एक स्थान से दूसरे स्थान पर मोटी रकम लेकर बेच देने जैसा है। नातरा प्रथा के नाम पर लड़कियों को कई बार बेचा और खरीदा जाता है। इसमें लड़की की इच्छा मायने नहीं रखती । उसकी रजामंदी नहीं ली जाती है और विरोध करने पर उस पर  इतना अत्याचार किया जाता है कि कई बार तो वह स्वयं परेशान होकर आत्महत्या कर लेती है या फिर उसकी हत्या  कर दी जाती है । यदि वह विरोध करती है तो उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। यहां तक कि लड़की का अपहरण भी कर लिया जाता है।
ऐसा ही एक वाकया संतोष तंवर के साथ हुआ है।  बचपन में संतोष की सगाई उसके परिजनों ने जिस लड़के के साथ की थी। बड़ा होने पर उस लड़के ने अपनी पसंद से शादी कर ली। अब झगड़ा प्रथा से बचने के लिए संतोष के ससुराल वाले लड़के के दिव्यांग भाई से उसकी शादी करवाना चाहते हैं। संतोष इसके लिए तैयार नहीं है। शादी से इंकार करने पर संतोष के घर वालों से  10 लाख रुपए की मांग की जा रही है। इस झगड़े को खत्म करने के लिए पंचायत बैठी , जिसने 10 लाख के बजाय 8 लाख रुपए देने का फरमान सुना दिया। वरना संतोष को उठा ले जाने की धमकी दे रहे हैं। संतोष का परिवार बहुत गरीब है। घर-खेत बेचकर भी उसके परिजन इतना पैसा नहीं जुटा सकते। लिहाजा संतोष पर दोनों तरफ से भरी दबाव है  कि वह उसी से शादी कर ले। इस समय संतोष निजी संस्थाओं और पुलिस से मदद के लिए चक्कर काट रही है। जिससे उसकी सुरक्षा  हो जाए। सरकार की ओर से इस प्रथा को बंद करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। पुलिस इसमें हस्तक्षेप नहीं करती । राजनेता इस प्रथा को खत्म करने के लिए कोई कानून नहीं बनाते , क्योंकि राजगढ़ में तंवर और सोंधिया की बहुत बड़ी आबादी है, इसमें उन्हें वोट खिसकने का खतरा नजर आता है। लिहाजा सदियों से यह कुप्रथा बदस्तूर चली आ रही है।
लाल चुनर गैंग की संयोजक मोना मस्तानी बताती हैं कि राजगढ़ जिला आकांक्षी जिलों में शामिल हैं। विकास की दौड़ में यह जिला काफी पिछड़ा है। इस कुप्रथा के पीछे अशिक्षा और बेरोजगारी एक प्रमुख कारण है। यहां प्रायः छोटे काश्तकार है। जो खेती के अलावा काम की तलाश में पलायन करते हैं। कुछ बड़े काश्तकारों के यहां मजदूरी करते हैं। इसिलए यहां के लोग  इसे मोटी कमाई का एक जरिया बना रखा है। इसके पीछे मध्यस्थता करने वालों की भी बड़ी भूमिका है। समझौते के नाम पर उन्हें झगड़े वाली रकम से दलाली मिल जाता है। झगड़े की रकम जितनी मोटी होगी, उन्हें दलाली भी उतनी तगड़ी मिलेगी । मोना बचपन से ही यह सब देखती आ रही थी । उन्होंने इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए पीड़ित महिलाओं को लेकर लाल चुनर गैंग बनाया । इस कुप्रथा को  खत्म करने कलेक्टर के माध्यम से राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा। अब धीरे-धीरे राजनेता भी इस गैंग के समर्थन में आगे आ रहे हैं। राजनेता सामाजिक मदद देने की बात कर रहे है। मोना कहती है कि अगर किसी गरीब लड़की से नातरा तोड़ने पर झगड़ा मांगा जाता है, तो गैंग धावा बोलती हैं साथ ही पीड़ित को इसके लिए कानूनी मदद भी दी जाती हैं। वह कहती है कि इसे खत्म करने के लिए जो मोटी रकम मांगते हैं उन पर सामाजिक दबाव बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि हमने उन सारी पीड़ित लड़कियों को इकट्ठा किया है और उन सबसे आवेदन लेकर प्रशासन को सौंपा है और उन लड़कियों की सुरक्षा की मांग भी की है। उन्होंने कहा कि भविष्य में इस कु प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए सरकार पर कानून बनाने का दबाव बनाउंगी। ताकि कमजोर लड़कियां भी अपने भविष्य के फैसले खुद ले सके।



 Amrit sandesh 16 july 2023



Sunday, July 2, 2023

प्रोत्साहन व योजनाओं के बावजूद, हर दूसरा किसान गरीब

 


प्रोत्साहन व योजनाओं के बावजूद, हर दूसरा किसान गरीब

रूबी सरकार

भारत में पच्चीस फीसदी लोग गरीब हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में 37 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 47 रुपए प्रतिदिन कमाते हैं। इनमें से अधिकांश बिगड़े पर्यावरण वाले प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्रों में रहते हैं। सन 2019 तक भारत में गरीबों की संख्या में हो रही कमी सबसे तेज थी, लेकिन कोविड महामारी ने इस तेजी को कम कर दिया है। भारत में गरीबी के कारण मुख्य रूप से पारिस्थितिक इकोलॉजिकल हैं और इस प्रकार गरीबी को कम करने की चाबी पर्यावरणीय क्षरण को रोकने और प्राकृतिक संसाधनों के उचित प्रबंधन में निहित है।
 विख्यात पर्यावरणविद् और पत्रिका डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक रिचर्ड महापात्रा पिछले दिनों  “21 वीं सदी में पारिस्थितिक विपन्नता भारत के कुछ क्षेत्रों में हमेशा क्यों?”  विषय पर भोपाल में महेश बुच स्मरण व्याख्यान देने भोपाल आए। उन्होंने कहा कि भारत में नब्बे करोड़ लोग पर्यावरण क्षरण का दंश झेल रहे हैं। ज्यादातर गरीब, बिगड़े पर्यावरणीय क्षेत्रों में रहते हैं  जिसमे 30 फीसदी मरुस्थलीकरण जैसे क्षेत्रों में फैले हैं और देश के एक तिहाई जिले सूखा प्रवृत हैं । सूखा पर अध्ययन का हवाला देते हुए रिचर्ड कहते हैं कि हर दो साल में  एक बार देश को सूखा आता है। जिससे 20 करोड़ लोग गरीब हो जाते हैं। इसलिए देश में खेत मजदूरों की संख्या बढ़ी है। यहां लगभग 68 फीसदी भूमि वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर है, इस प्रकार खेती पूरी तरह प्राकृतिक अनियमितता के अधीन हैं। यही वजह है कि दुनिया से तुलना की जाए तो भारत के किसान सबसे गरीब हैं। इसके अलावा सबसे गरीब जिलों में वन क्षरण भी  सबसे अधिक है, यही कारण है कि गरीब जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। महापात्र ने चेतावनी दी कि अगर हम अभी भी न चेते तो 2030 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण भारत को प्रति वर्ष 700 करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है। रिचर्ड यह भी बताते हैं कि इन सबके बीच रालेगांव सिद्धि जैसे ग्रामीणों का उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां सामूहिक प्रयास से ग्रामीणों ने अपनी आय में वृद्धि की। यहां तक वहां भारतीय स्टेट बैंक की शाखा खोलनी पड़ी। वहां के किसान आयकर दाता हैं।

वे बताते हैं कि 13 करोड़ गरीबों में से 60 फीसदी मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, यूपी, ओडिशा और छत्तीसगढ़ राज्यों में रहते हैं । मध्य प्रदेश का अलीराजपुर देश का सबसे गरीब जिला है, जहां 76 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। देश में वन आवरण और गरीबी का सीधा रिश्ता है, जितना अधिक वन आवरण उतना अधिक गरीबी। इसका कारण वन क्षेत्रों का क्रमिक रूप से बिगड़ते जाना है । 2019 तक भारत सबसे तेजी से गरीबी कम करने वाला देश था और एसडीजी लक्ष्य से बहुत पहले 2022 तक गरीबी समाप्त होने की उम्मीद थी। लेकिन कोविड महामारी के कारण ऐसा नहीं हुआ जिसने भारत को पीछे की ओर धकेल दिया। कोविड महामारी से पहले सन 2019 में  देश में गरीबों की संख्या 6 करोड़ थी लेकिन कोविड महामारी के दौरान अकेले एक वर्ष में 7.4 करोड़ गरीब और बढ़ गए।
रिचर्ड बताते हैं कि विभिन्न प्रोत्साहनों और योजनाओं के बावजूद, भारत में हर दूसरा किसान गरीब है। आश्चर्य की बात है कि विकास योजनाओं में वृद्धि के बावजूद देश के सबसे गरीब जिले गरीब ही रहे। पहले इन जिलों को गरीबी रेखा के नीचे वाले जिलों में शुमार किया जाता था, अब केंद्र सरकार ने इन जिलों को अति पिछड़ा कहकर इन्हें प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के उद्देश्य से महत्वाकांक्षी आकांक्षी जिला कहना प्रारंभ किया, इसके तहत विकास के मापदंड में पिछड़ चुके इन जिलों को कृषि , स्वास्थ्य, शिक्षा, वित्तीय समावेशन और बुनियादी सुविधाओं के स्तर पर ऊंचा करने के लिए कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
  रिचर्ड अपने शोध अध्ययनों का हवाला देते हुए कहते हैं कि, भारत में गरीबी चिरकालिक है, यह पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रहती है। उन्होंने काला हांडी का पनस पूंजी का उदाहरण देते हुए बताया कि देश की गरीबी का सिंबल है । आज से 30 साल पहले जिसने भूख मिटाने के लिए अपनी ननद को 40 रुपए में बेचा था। आज भी उनका छह लोगों का परिवार 100 रुपए में प्रतिदिन गुजारा करते है।   जबकि इनमें से  अधिकांश गरीब प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्रों में रहते हैं। देश के 22 करोड़ लोग सिर्फ जंगल पर निर्भर है और देष का हर दूसरा रुपया प्राकृतिक संसाधन से आता है। यह भी आश्चर्य की बात है कि भारत में गरीबी न केवल अर्थव्यवस्था का विषय है बल्कि पारिस्थितिकी से भी जुड़ी हुई है।
राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान मध्यप्रदेश के संस्थापक निदेशक प्रो धीरज कुमार उनकी बातों का समर्थन करते हुए कहते हैं कि यह हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है कि जो समस्याएं हमारे सामने हैं उनके समाधान सभी के प्रयासों से निकाले जाए। इसके लिए शैक्षणिक संस्थानों में इस विषय पर गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए ताकि विद्यार्थी इससे संबंधित समस्याओं को समझकर भविष्य में इस विषयों के  प्रोजेक्ट्स पर काम कर सकें। उन्होंने कहा कि रालेगांव सिद्धि के ग्रामीण जब आयकर दे सकते हैं तो हमें इस तरह के मॉडल्स का विस्तार देना चाहिए और यह सामूहिक प्रयासों से ही संभव है।

                                                                        11 June,2023 Amrit Sandesh



क्राई ने शुरू किया बाल श्रम रोकने हस्ताक्षर अभियान

 

क्राई ने शुरू किया बाल श्रम रोकने हस्ताक्षर अभियान

रूबी सरकार

मध्य प्रदेश के सबसे बड़े और साफ-सुथरे मिनी मुंबई कहे जाने वाले इंदौर शहर में जब पता चलता है कि एक चॉकलेट फैक्ट्री में बड़ी संख्या में बाल मजदूर है, तब लोगों का चौकना लाजमी है, क्योंकि यह पढ़े-लिखे लोगों का शहर माना जाता है और यहां सभी को बाल मजदूरी कानून के बारे में मालूम है। फिर भी कोई बाल श्रम के खिलाफ आवाज नहीं उठाता। यह जिम्मेदारी सिर्फ स्वयंसेवी संस्थाओं की है।
दरअसल 30 मई को चाइल्ड राइट्स एंड यू की साथी संस्थान आस रिसोर्स सेंटर के बच्चों के मार्फत क्राई को यह जानकारी मिली कि लसूड़िया इलाके मे स्थित एक चॉकलेट फैक्ट्री में काफी बच्चे मजदूरी कर रहे हैं। क्राई के कार्यकर्ताओं ने दो दिनों तक निगरानी की । तब जाकर इस बात की पुष्टि हुईं।
1 जून को आस चाइल्डलाइन ने क्राई टीम के साथ मिलकर इंदौर में बाल श्रम में लिप्त बच्चों को छुड़ाने की पहल की। क्राई की टीम ने चाइल्ड लाइन और पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर चॉकलेट फैक्ट्री से 4 लड़के और 6 लड़कियों को काम करते हुए पाया। इनकी उम्र 10 से लेकर 17 वर्ष तक थी।
अगले दिन काउंसलिंग के दौरान बच्चों ने बताया कि वे शाम  7 से 11 बजे तक चॉकलेट बनाने व पैकिंग संबंधी काम करते है। इस काम के लिए उन्हें प्रतिदिन 100 रुपये मजदूरी मिलती है। रेस्क्यू किए गए बच्चों के माता-पिता को बाल कल्याण समिति के समक्ष बाल श्रम में बच्चों की संलिप्तता के बारे में जानने  तथा बच्चों एवं चॉकलेट फैक्ट्री के मालिकों के साथ  समिति ने चर्चा की । इसके बाद विभागीय टास्क फोर्स की ओर से गहन जांच के बाद, नियोक्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की गई। 4 जून 2023 को खाद्य विभाग के अधिकारियों ने चॉकलेट फैक्ट्री को सील कर दिया. बाल कल्याण समिति ने श्रम विभाग को पत्र के माध्यम से फैक्ट्री के नियोजक के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया।
यह कोई प्रदेश का एक अकेला मामला नहीं है। हर शहर में बाल मजदूर दिखाई देेते हैं, परंतु नियोक्ता को कोई रोकता नहीं। इसलिए उन्हें डर भी नहीं। इसी तरह का एक और मामला सामने आया। जहां 12 साल के किशोर को पिता की मृत्यु के बाद काम करना पडा। हालांकि अब वह 16 साल का हो चुका है। उसने बताया कि पिता की मृत्यु के बाद माँ ने दूसरी शादी कर ली। सौतेले पिता की कमाई ज्यादा नहीं थी और न ही वह बालक के पीछे खर्च करना चाहते थे। घर में खाने पीने का अभाव हमेशा बना रहता था। इस अभाव के चलते उसने एक होटल में काम करना शुरू किया । जब उसने काम शुरू किया , उस वक्त उसकी उम्र मात्र 13 साल थी। उसने चौथी तक की पढ़ाई भी की । उसके बाद होटल में काम करने के लिए पढ़ाई  छोड़ दी। मां ने दूसरी शादी कर तो ली, लेकिन वह अपने बड़े बेटे की कमाई से घर और छोटे भाई का भरण-पोषण करने लगी । परिस्थिति तब और बिगड़ गई, जब सौतेले पिता ने बेटे की कमाई पर हाथ मारना शुरू किया।  नशे के लिए उसके साथ मारपीट कर उसका पैसा छीनने लगा। सौतेले पिता के इस दुर्व्यवहार से तंग आकर उसने घर छोड़कर भोपाल रेलवे स्टेशन के पास एक फैक्ट्री में बोतल में पानी भरने का काम करने लगा। इस बीच उसे काम करते समाज ने देखा, लेकिन किसी ने इसका विरोध नहीं किया। फिर वही स्वयं सेवी संस्था और श्रम विभाग ने छापेमारी कर उसे पकड़ा। उसके साथ और और नाबालिग भी काम करते हुए पाए गए।
क्राई की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा बताती हैं कि  लोगों की उदासीनता के कारण ही समाज में बाल श्रम कम नहीं हो रहा है। मोइत्रा ने बाल श्रम के खिलाफ ‘डॉन्ट हेल्प चिल्ड्रन - बाय एमपलोइंग देम’षुरू किया है। जिससे लोगों की मानसिकता बदले। इस अभियान में बच्चों के साथ-साथ  पुलिसकर्मी, आशा कार्यकर्ता एवं जनप्रतिनिधि भी भाग ले रहे हैं। भोपाल दक्षिण-पश्चिम से विधायक पी सी शर्मा एवं इंदौर के पलासिया स्थित महिला थाना के सभी पुलिस कर्मियों ने हस्ताक्षर अभियान में भाग लेकर बाल श्रम के खिलाफ खड़े होने का संकल्प लिया। सोमवार से शुरू हुए इस अभियान के अंतर्गत भोपाल सहित की अन्य जिलों में हस्ताक्षर अभियान एवं रैली निकाली गई एवं लोगों से इसके खिलाफ खड़े होने की अपील की है. यह कैंपेन एक महीने चलेगा।
मोइत्रा बताती है कि बच्चों का किसी भी प्रकार के कमर्शियल काम में शामिल होना उनका बचपन छीन लेता है. यह उन्हें वयस्कों की जिम्मेदारियां ढोने पर विवश करता है. जो उन्हें पढ़ाई के साथ खेलों से भी वंचित कर देता है.
उन्होंने अभियान के औचित्य स्पष्ठ करते हुए कहा कि ज्यादातर लोग यह सोचते है कि गरीब और वंचित परिवारों के बच्चों का काम करना सही है. वे भुखमरी और गरीबी से लड़ने में अपने परिवार की मदद कर रहे हैं।  इस मानसिकता को बदलने के लिए ही यह अभियान शुरू किया गया है। लोगों से अपील है कि बच्चों को नौकरी देकर उनकी मदद न करें। इसकी बजाए उन्हें पढ़ने, खेलने और बचपन जीने में उनकी मदद करें।
उन्होंने कहा कि इससे पहले क्राई वालेंटियर्स द्वारा 2022 में एक रैपिड असेसमेंट सर्वे किया  , जिसमें यह निकलकर आया कि 45 फीसदी लोग मानते हैं कि  यदि स्कूली शिक्षा प्रभावित न हो तो बच्चों का परिवार को सहयोग करने के लिए काम करना सही है ।
क्राई का मकसद ही था कि बालश्रम पर लोगों की धारणाओं को समझना और जरूरत पड़े तो उसे बदलना। इस राष्ट्रीय सर्वे मे मध्य प्रदेश सहित 26 राज्यों के परिवार को शामिल किया गया था। लगभग 72 फीसदी का मानना है कि बाल श्रमिकों को बीमारियां होने का अधिक खतरा होता है जबकि 23 फीसदी अनिश्चित थे, और शायद इसमें शामिल विभिन्न जोखिमों से भी अनजान थे। सर्वे के अनुसार 31 फीसदी लोगों का कहना है कि उन्हें बाल श्रम पर रोक लगाने वाले किसी भी कानून की जानकारी नहीं है।
वहीं 79 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें कहीं बाल श्रम की जानकारी मिलती है तो वे अथॉरिटी या एनजीओ से संपर्क करते हैं। जबकि 17 फीसदी इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि बाल श्रम का पता चलने पर क्या करना चाहिए। क्राई का उद्देश्य है कि अभियान के माध्यम से बाल श्रम की रिपोर्ट करने के लिए मौजूदा रिपोर्टिंग तंत्र के बारे में नागरिकों को संवेदनशील बनाना । रहवासी अपने आस-पास किसी भी बाल श्रम के मामलों की सूचना पीईएनसीआईएल या 1098 पर कॉल करके बाल श्रम के खिलाफ खड़े हों”।
अब क्राई ने  अभियान के तहत आवासीय सोसायटियों तक पहुंचकर नागरिकों को बाल श्रम न कराने के लिए जागरूक करने का काम करेगा और बाल श्रम के मामलों की रिपोर्ट करने वाले लोगों को प्रोत्साहित  करेगा। क्राई इसके लिए देष भर में जागरूकता पोस्टर लगाने एवं राष्ट्रव्यापी प्रतिज्ञा अभियान भी चलायगा। जिसमें लोगों से बाल श्रम के खिलाफ प्रतिज्ञा लेने और हस्ताक्षर अभियान मे सम्मिलित होकर फोटो या स्क्रीनशॉट लेकर सोशल मीडिया में इसे टैग करने का अनुरोध किया जाएगा।
बाल श्रम के प्रति संस्थान के दृष्टिकोण के बारे में बताते हुए मोइत्रा ने कहा, “क्राई  बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का पालन करता है, जो 0 से 18 वर्ष के आयु वर्ग के प्रत्येक मनुष्य को एक बच्चे के रूप में परिभाषित करता है, जो शिक्षा, पोषण और संरक्षण के अधिकार का हकदार है। ये बच्चे न केवल गरीबी के कारण काम कर रहे हैं बल्कि इसलिए भी कि वे सस्ते श्रम प्रदान करते हैं। बाल श्रम कानून के प्रति हमारे समाज को जागरूक होने की जरूरत है। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि हमारे बच्चों और बाल श्रमिकों के रूप में काम करने वालों के बीच कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार, हमारा मानना है कि यह अभियान इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी स्थापित करने में एक व्यापक भूमिका निभा सकता है।

                   25 June 2023 Amrit Sandesh




डिजिटल हुआ तो सौ फीसदी जलकर अदा करने लगे ग्रामीण

 










 डिजिटल हुआ तो सौ फीसदी जलकर अदा करने लगे ग्रामीण

रूबी सरकार
 
राजगढ़ जिले में इससे पहले कई बार जाना हुआ। परंतु इस बार राजगढ़ जिले का कुडीबेह गांव की  लोग बहुत खुश दिखे। ं क्योंकि अब उनके दरवाजे पर कार्यात्मक घरेलू नल कनेक्शन (एफएचटीसी) के साथ-साथ मोबाइल या कम्प्यूटर पर उनका नाम भी दर्ज हो गया हैं। उन्हें जो घरेलू उद्देश्यों के लिए जो पर्याप्त पानी उपलब्ध हो रहा हैं,उसके लिए वे नियमित जलकर अदा कर रहे हैं। ग्रामीणों को अब लोकलाज का डर हो गया है कि अगर जलकर नहीं अदा करेंगे, तो उनका नाम सार्वजनिक हो जाएगा कि उन्होंने पानी का उपयोग तो कर लिया परंतु जलकर नहीं दिया। इससे उनकी प्रतिष्ठा पर आंच आएगी। ग्रामीणों का यह बोध जलकर का डिजिटलीकृत होने से सामने आया है।
राजगढ़ जिला भारत के 117 आकांक्षी जिलों में से एक है। और यह जल संकट वाले 255 जिलों में 205 वें स्थान पर है (स्रोत डाउन टू अर्थ, सोमवार 16 मार्च 2020), राजगढ़ में भूजल स्तर 2-4 मीटर तक नीचे चला गया है।
यहां पानी की कमी के समाधान और पेयजल का एक स्थायी स्रोत प्रदान करने के लिए एमपीजेएनएम ने बहु-ग्रामीण जलापूर्ति योजना शुरू की हैं जो सतही जल स्रोत पर आधारित हैं। गोरखपुरा मल्टी विलेज ग्रामीण जलापूर्ति योजना उनमें से एक है जो राजगढ़ जिले के राजगढ़ और खिलचीपुर ब्लॉकों में लागू की गई है, जिसमें 115395 की आबादी के 156 गाँव (राजगढ़ के 124 और खिलचीपुर ब्लॉक के 32 गांव) शामिल हैं। यह एमवीएस संचालन और रखरखाव के अधीन है और अब 24000 से अधिक कार्यात्मक घरेलू नल कनेक्शन (एफएचटीसी) के माध्यम से 156 गांवों के लिए उपचारित पेयजल उपलब्ध कराया जा रहा है।
कुडीबेह गांव, कुडीबेह पंचायत का मुख्यालय योजना के उन गांवों में से एक है जहां पेयजल की आपूर्ति गृह सेवा कनेक्शन (एचएससी) से की जाती है। गांव में 127 घर हैं जो एससी, ओबीसी और सामान्य वर्ग के हैं। ग्रामीणों के लिए पीने के पानी का मुख्य स्रोत 4 खुले कुएं और 3 हैंडपंप थे जो भूजल पर आधारित थे, लेकिन हर गर्मियों में पानी की कमी एक बड़ी समस्या बन जाती थी। भूजल स्तर नीचे जाने और स्रोत सूखने से ग्रामीण परेशान थे।
कुडीबेह गांव की 85 वर्षीय बुजुर्ग महिला रतन बाई बहुत खुश हैं और सरकार का आभार व्यक्त करती हैं और अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “जब मैं छोटी थी और नवविवाहित थी तब से लेकर कुछ साल पहले तक मैं हर दिन घंटों पानी संग्रह करती थी।” कुओं से पानी, जो मेरे घर से करीब 1 से 2 किलोमीटर दूर स्थित था। अब मेरे घर में नल कनेक्शन है और इससे मुझे पानी इकट्ठा करने के बोझ से राहत मिल गई है, अन्यथा मैं इस उम्र में कुओं से पानी कैसे लाता।
गांव की दिव्यांग महिला कमला बाई बताती हैं, मेरा एक हाथ ठीक से काम नहीं करता है इसलिए पानी इकट्ठा करना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी लेकिन मुझे कुओं से पानी इकट्ठा करना पड़ता था और छोटे बर्तनों में लेना पड़ता था, जिससे मेरा ज्यादातर समय पानी इकट्ठा करने में ही बीत जाता था। मुझे घर के दूसरे काम करने में देर हो जाती थी. अब मेरे घर में नल कनेक्शन है जो मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं है क्योंकि मेरे जैसी महिला जिसका एक हाथ ठीक से काम नहीं करता, उसके लिए घर से दूर कुएं से पानी लाना बहुत कष्टदायक था।
पर्वत सिंह (वाल्व ऑपरेटर) ने बताया कि मेरा जन्म और पालन-पोषण इसी गांव में हुआ है और मैंने देखा है कि मेरी मां, बहन और कुछ समय मेरे पिता भी पीने के लिए कुओं से पानी लाते थे और गर्मियों के दौरान जब हमारे गांव के कुएं सूख जाते थे उस समय मुझे और मेरे पिता को दूसरे गांव से पानी लाना पड़ता था। पिछले पांच वर्षों से हमने और कुछ ग्रामीणों ने पीने के पानी का अस्थायी समाधान निकाला, हमने छोटे मोटर पंप और पाइपों की व्यवस्था बनाई, जिससे हम कुएं में मोटर डालकर पाइपों के माध्यम से घरों में पानी लेते थे। इसके लिए हमें कुएं से अपने घरों तक पानी ले जाने के लिए एक मोटर और पाइप खरीदना पड़ा, जिसकी लागत लगभग 15 से 20 हजार थी और यह केवल तभी काम करता है जब हमारे पास कुएं में पानी होता है, इसके लिए बिजली की भी आवश्यकता होती है। कभी-कभी पानी को लेकर झगड़े भी होते थे क्योंकि गर्मियों में कुओं का पानी बहुत नीचे चला जाता था और जो भी सुबह-सुबह मोटर डालकर पानी खाली कर देता था, दूसरे लोग उससे झगड़ने लगते थे।
गांव की फूला बाई, घीसी बाई और कुडीबेह गांव की अन्य महिलाएं कहती हैं कि हम और हमारे बच्चे विशेषकर लड़कियां अपने सिर पर दूर से पानी ढोकर लाती थी, क्योंकि हमारे पास कुओं पर मोटर लगाने के लिए पैसे नहीं थे। हमें पानी लाना पड़ता था, भले ही हम बीमार हों या गर्भवती हो (वह समाज के सीमांत वर्ग से आती हों) हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। कृष्णा (आशा कार्यकर्ता) ने वीडब्ल्यूएससी बैठक में हिस्सा लेते हुए कहती हैं कि नल का पानी हमारे स्वास्थ्य में सुधार कर रहा है और ग्रामीणों को जल जनित बीमारियों से भी बचा रहा है, विशेषकर 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को सुरक्षित पेयजल का अधिक लाभ मिला है।
कुल्टा पवार (आंगनवाड़ी कार्यकर्ता) कहती हैं कि हम अपने घर में नल के पानी की आपूर्ति से खुश हैं । घरों में पानी की उपलब्धता के कारण अब किशोरियों को पानी लाने के लिए दूर नहीं जाना पड़ता है, जिससे उन्हें पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय मिलने लगा है और उन विशेष दिनों (मासिक धर्म) के दौरान व्यक्तिगत स्वच्छता में भी सुधार हुआ है और वे मासिक धर्म स्वच्छता का प्रबंधन कर रही हैं। .
अब कुडीबेह गांव प्रमाणित हर घर जल गांव बन गया है और गांव के सभी घरों में कार्यात्मक हाउस टैप कनेक्शन (एफएचटीसी) हैं, स्कूल, आंगनबाड़ी और पंचायत भवन में भी नल कनेक्शन हैं। गोरखपुरा एमवीएस ने घर पर सुरक्षित पानी तक किफायती पहुंच प्रदान की है। यही कारण है कि ग्रामीणों ने बिना किसी देरी के वीडब्ल्यूएससी को जल शुल्क 100 रुपए प्रति माह का भुगतान करना शुरू कर दिया है।
जल निगम मध्यप्रदेश की परियोजना क्रियान्वयन इकाई की प्रबंधक जन सहभागिता प्रियंका जैन बताती हैं कि कुडीबेह गांव से वीडब्ल्यूएससी  100 फीसदी जल राजस्व एकत्र कर रहा है और यह गांव जिले की पहली वीडब्ल्यूएससी ग्राम पंचायत बन गई है जो मप्र में जल कर के करदाताओं का पंजीकरण पंचायत दर्पण पोर्टल, जो सरकारी वेब पोर्टल है, पर किया है। ऑनलाइन या ऑफलाइन कर अदा करते ही पंचायत सचिव जल करदाताओं (नल कनेक्शन धारक) को ई-रसीद प्रदान कर रहा है। इतना ही नहीं यह गांव वीडब्ल्यूएससी मध्य प्रदेश जल निगम को समय पर थोक जल शुल्क (3.25 प्रति हजार लीटर) का भुगतान भी नियमित करता है।
Amrit Sandesh 02 July,2023


Saturday, June 24, 2023

Pani ki Baant jog rahe Batiyagarh ke gaun

  6 Feb 2018


SHG ko nahi mil rahi bank se sahayata

 9 Feb 2018


 15 Feb 2018


Parikshcha kendra gaun se 15 KM door

  28 Feb 2018


Pragatishil Kisan bhi hai kochewada gaun ki mahilaen

 


Congratulations! You are a winner of Laadli Media Awards!

 Congratulations! You are a winner of Laadli Media Awards!

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Population First laadlimediaawards@gmail.com

Tue, Aug 14, 2018, 2:18 PM
to me

Dear  Ms. Ruby Sarkar


I have great pleasure in informing you that your entry titled " Jameen Ke Patte Mile Toh Auraton Ne Dikhaya Jouhar" published in  Deshbandhu Bhopal India has been selected for The Laadli Media Awards for Gender Sensitivity 2017 in the News Report - Print Category. The Award event is being held at United Service Institute of India, Delhi on September 14, 2018

Please do not publicize this till the date of the event. 

We shall reimburse you the second class AC fare for your travel to Delhi and also provide you accommodation for the 14th night. Do reserve your ticket and keep us posted of your travel plans. The accommodation details shall be intimated shortly.

Request you to send your updated mailing address, if any. Kindly share with us a photograph of you for the brochure.  As we would also like to inform your editor to join us for the event, do share the contact details of your editor.

Congratulations once again! Hope to see you at the event.


Warm regards,

 Dr. A. L. Sharada

Director, Population First


Bhatak rahe Adivasi nahi mila muavja

 


                                                             Chawalal
                                                                         Jadon Adiwasi

                                                                              Halkeram


                                                                        Prem Singh 


माधव राष्ट्रीय उद्यान से विस्थापित आदिवासियों के परिवारों का दर्द
आयोग की अनुशंसा के बाद भी  नहीं मिला मुआवजा 
रूबी सरकार 
 शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान से सहरिया विशेष जनजाति  के लगभग 100 परिवारों को विस्थापित कर नया बल्लारपुर गांव में वर्ष 2000 में बसाया गया। भूमि अधिग्रहण कानून का पालन करते हुए 61 परिवारों को तो ज़मीन के पट्टे दिये गये, लेकिन बचे 39 परिवार 18 साल से दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। मुआवजे के नाम पर उन्हें मात्र 56 हजार रुपये दिये गये, इनमें 36 हजार मकान बनाने और 20 हजार ज़मीन को समतलीकरण के लिए। इन आदिवासियों को 10-10 बीघा ज़मीन के  पट्टे देने की बात तो सरकार कर रही है, लेकिन कब तक, इस बात की सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। शिवपुरी कलेक्टर का कहना है, कि राजस्व की भूमि है नहीं और वनभूमि को डी-नोटिफाइड कराने में समय लग रहा है। उसके उपरांत ही इन्हें ज़मीन के पट्टे मिलेंगे।  इन  परिवारों की आंखें टक लगाकर ह$क पाने की राह देखते- देखते कठोर और निश्चल हो चुके है। 
दो साल पहले  मार्च के महीने  में  राज्य मानव अधिकार आयोग के अधिकारियों ने यहां दौरा किया, तो   उनमें थोड़ी आस जगी  थी,  कि उनके आंसूं पोछने कोई तो आगे आया । लेकिन आयोग की स्पष्ट अनुशंसा के बाद भी उन्हें कुछ नहीं मिला। 
75 वर्षीय चहुंआलाल बताते हैं, कि विस्थापन के समय उनके पास लगभग 50 गाय थी, जो उनके आजीविका का एकमात्र साधान था, लेकिन चरनाई न होने की वजह से उन्होंने गायों को वहीं जंगल में छोड़ आया। चहुंआ दिव्यांग है , उसका बेटा आज दूसरों की ज़मीन पर बटाई पर काम कर रहा है, जिससे किसी तरह उसका गुजारा चलता है। उन्होंने कहा, मानव अधिकारों के हनन के लिए जब आयोग ने इन परिवारों को 2-2 लाख तथा जिनके परिवारों के मुखिया की मृत्यु टीबी व अन्य बीमारियों से  पत्थर खदानों (माइन्स) में  काम करने के कारण हुई है, उन्हें 5-5 लाख रुपये की अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि एक माह के भीेतर  देने की अनुशंसा की थी, तो सभी के अंदर एक खुशी की लहर दौड़ गई थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, हम सब मायूस होते गये। 
जादोन आदिवासी भी 75 साल पूरे कर लिये हैं। उनकी आंखों की ज्योति धीरे-धीरे जा रही है। पत्नी पहले ही गुजर चुकी हैं और एक ही बेटा है, जो उनसे अलग शहर में रह रहा है। मुआवजे की आस में जाधव ने बल्लारपुर नहीं छोड़ा । उसने कहा, कि जंगल की जड़ी-बूटी से अच्छी कमाई हो जाती थी। सफेद मुसली 5 हजार रुपये किलो, इसके अलावा तेंदु पत्ता, गोंद, महुआ आदि से अच्छी आमदानी हो जाती थी। अब तो नगद है ही नहीं। राशन से जो मिल जाये , उसी से गुजारा चलता है। 
हलके राम सहरिया को खदान में काम करते-करते तपेदिक हो गया है , वर्ष 2000 में विस्थापन के समय वह 18 साल का था, तभी से वह आजीविका के लिए खदान में काम करने लगा। धीरे-धीरे उसे कई बीमारियों ने जकड़ लिया। वर्तमान वह तपेदिक का इलाज एक निजी डॉक्टर से करवा रहा है।  अब तो एकदम बूढ़ा लगने लगा है। हलके ने बताया, 6 भाई-बहन और माता-पिता के साथ वह नया बल्लारपुर में बसने आया था। खदान में काम करते हुए सभी ने एक के बाद एक दम तोड़ दिया। अब तो केवल मेरे साथ एक बहन जिंदा है। शिवपुरी के ही दूसरे गांव की लडक़ी से उसकी शादी हुई, ससुराल वालों की मदद से उसकी जिंदगी की गाड़ी चल रही है। इन लोगों ने कहा, 5वीं बार वे  राजधानी आकर अधिकारियों  को अपनी व्यथा सुना रहे हैं, परंतु अधिकारियों की तरफ से सिर्फ आश्वासन ही मिल रहा है।  

दरअसल, राज्य मानव अधिकार आयोग की अनुशंसा में स्पष्ट रूप से सहरिया आदिवासियों के मानव अधिकार हनन का  उल्लेख है। आयोग ने ं वन विभाग को निर्देश दिये थे, कि जिन 39 परिवारों को ज़मीन के पट्टे नहीं मिले हैं, उन्हें एक माह के भीतर  मुआवजा और  कम से कम 2 हेक्टेयर ज़मीन उपलब्ध कराये जाये तथा 18 साल की अनुचित विलम्ब को देखते हुए आयोग ने अब तक की अवधि के लिए  9 फीसदी वार्षिक ब्याज दर से भुगतान देने को कहा था। 
 इधर वन विभाग ने  9 फीसदी वार्षिक ब्याज दर भुगतान की अनुशंसा को आधारहीन और अतिरंजित कह कर विराम लगा दिया। हालांकि वन विभाग की ओर से  वन भूमि संबंधित अनुमति प्राप्त करने के लिए वर्ष 2001 से लगातार प्रयास किये जा रहे हैं , अधिकारियों का मानना है, कि वैधानिक प्रक्रियाओं की जटिलता के कारण प्रकरण में विलम्ब हो रहा है । 

अपर मुख्य वन संरक्षक वन्यप्राणी आलोक कुमार ने बताया, वर्ष 2002 में माधव राष्ट्रीय उद्यान  प्रबंधन द्वारा ग्राम बलारपुर के 9 विस्थापित परिवारों केा वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध कराने के लिए इको विकास समिति के माध्यम से 53 हजार रुपये का ऋण स्वरोजगार स्थापित  करने के लिए दिया जा चुका है। 
उन्होंने कहा, कि विस्थापित सहरिया आदिवासियों के टीबी से ग्रसित होने को गलत प्रचारित किया जा रहा है। श्री कुमार ने  इसे निराधार एवं अनुचित बताया।  उन्होंने कहा, कि सिर्फ जमीन के पट्टे न मिलने के कारण आदिवासी पत्थर की खदानों में काम करने नहीं जाते, बल्कि जिनके पास ज़मीन है, वे भी खदानों में काम करने जाते हैं और केवल खदानों में काम करने से टीबी नहीं होता है, खान-पान, रहन-सहन भी इसके लिये जिम्मेदार है, इसीलिए इनके बच्चे अधिकतर  कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। 
 आलोक कुमार ने बताया, आदिवासियों को पट्टे देने का कार्य उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। राष्ट्रीय उद्यान  प्रबंधन द्वारा  ग्राम बल्लारपुर के  विस्थापित परिवारों के लिए पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भारत शासन  से अनुमति की कार्यवाही जारी है तथा अन्य भूमि पर पट्टे देने का अधिकार कलेक्टर से संबंधित है। दूसरी तरफ कलेक्टर का कहना है, कि वन विभाग की ओर से पहल हो, तो वे वैकल्पिक व्यवस्था करने को तैयार है। 
 विस्थापन स्थल के वन भूमि होने की जानकारी संज्ञान में आने के कारण पट्टे वितरण का कार्य रोक देने की बात करते हुए वन विभाग ने कहा है, कि  बिना अनुमति पट्टा वितरण जारी रखना वन संरक्षण अधिनियम 1980 का उल्लंघन है। 


आयोग पीडि़तों को विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा
 शिवपुरी दौरे में आयोग के अनुसंधान दल कलेक्टर  से मिले थे, कलेक्टर ने बताया था, कि  39 परिवारों को प्रतिकर राशि देने के संबंध में मध्यप्रदेश शासन की ओर से उन्हें कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुए है।   वे मौके पर जाकर 70 वर्षीय चऊवालाल पाल (पिता स्व. परसूपात पाल), 55 वर्षीय बिन्नूबाई (पति  स्व.  सोढू), 50 वर्षीय मनटोली (पिता श्याम आदिवासी ), 36 वर्षीय रामनिवास (पिता नानूराम भील और 32 वर्षीय मुकेश (पिता किशनलाल आदिवासी ) से मिले और  उनके कथन भी लिये, इन आदिवासियों ने अपने कथन में बताया, कि  शासन द्वारा पुराने बल्लारपुर के  जिन 100 परिवारों को विस्थापित कर नया बल्लारपुर में बसाया  , उनमें से 61 परिवारों को शासन द्वारा  पट्टे पर जमीन दी, जबकि  शेष 39 परिवारों को आज तक जमीन  के पट्टे नहीं मिले और न ही शासन  द्वारा उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकर राशि दी गई। विस्थापन के बाद आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे नहीं मिले । उनके पास आजीविका के कोई साधन न होने से वे पत्थर की खदानों में काम करने को मजबूर हुए । इस तरह परिवारों के मुखिया पुरुष सदस्यों की खदानों में कार्य करने से टीबी व अन्य संक्रमण हो गया और उनकी कम उम्र में मुत्यु हो गई। 
सहरिया विशेष जनजाति है, इसलिए उन्हें और उनकी संस्कृति को बचाये रखने के लिए आयोग ने इस मामले को गंभीरता से लिया और मौके पर जांच दल भेजकर वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद लगातार वन विभाग को मुआवजे के संबंध में अनुस्मारक पत्र भेजता रहा।  हालांकि वन विभाग आयोग की अनुशंसा मानने को बाध्य नहीं है। ऐसी   स्थिति में पीडि़तों केा कानूनी लड़ाई लडऩी पड़ेगी । इस सूरत में  आयोग विस्थापितों को विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा । आयोग की मंशा केवल इतना है, कि किसी के मानव अधिकारों  का हनन न हो ।

                                   अशोक कुमार मरावी
                                          निरीक्षक
                                       अनुसंधान दल
                                राज्य मानव अधिकार आयोग

Ptham Prawakta 16 Sep 2018