माधव राष्ट्रीय उद्यान से विस्थापित आदिवासियों के परिवारों का दर्द
आयोग की अनुशंसा के बाद भी नहीं मिला मुआवजा
रूबी सरकार
शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान से सहरिया विशेष जनजाति के लगभग 100 परिवारों को विस्थापित कर नया बल्लारपुर गांव में वर्ष 2000 में बसाया गया। भूमि अधिग्रहण कानून का पालन करते हुए 61 परिवारों को तो ज़मीन के पट्टे दिये गये, लेकिन बचे 39 परिवार 18 साल से दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। मुआवजे के नाम पर उन्हें मात्र 56 हजार रुपये दिये गये, इनमें 36 हजार मकान बनाने और 20 हजार ज़मीन को समतलीकरण के लिए। इन आदिवासियों को 10-10 बीघा ज़मीन के पट्टे देने की बात तो सरकार कर रही है, लेकिन कब तक, इस बात की सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। शिवपुरी कलेक्टर का कहना है, कि राजस्व की भूमि है नहीं और वनभूमि को डी-नोटिफाइड कराने में समय लग रहा है। उसके उपरांत ही इन्हें ज़मीन के पट्टे मिलेंगे। इन परिवारों की आंखें टक लगाकर ह$क पाने की राह देखते- देखते कठोर और निश्चल हो चुके है।
दो साल पहले मार्च के महीने में राज्य मानव अधिकार आयोग के अधिकारियों ने यहां दौरा किया, तो उनमें थोड़ी आस जगी थी, कि उनके आंसूं पोछने कोई तो आगे आया । लेकिन आयोग की स्पष्ट अनुशंसा के बाद भी उन्हें कुछ नहीं मिला।
75 वर्षीय चहुंआलाल बताते हैं, कि विस्थापन के समय उनके पास लगभग 50 गाय थी, जो उनके आजीविका का एकमात्र साधान था, लेकिन चरनाई न होने की वजह से उन्होंने गायों को वहीं जंगल में छोड़ आया। चहुंआ दिव्यांग है , उसका बेटा आज दूसरों की ज़मीन पर बटाई पर काम कर रहा है, जिससे किसी तरह उसका गुजारा चलता है। उन्होंने कहा, मानव अधिकारों के हनन के लिए जब आयोग ने इन परिवारों को 2-2 लाख तथा जिनके परिवारों के मुखिया की मृत्यु टीबी व अन्य बीमारियों से पत्थर खदानों (माइन्स) में काम करने के कारण हुई है, उन्हें 5-5 लाख रुपये की अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि एक माह के भीेतर देने की अनुशंसा की थी, तो सभी के अंदर एक खुशी की लहर दौड़ गई थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, हम सब मायूस होते गये।
जादोन आदिवासी भी 75 साल पूरे कर लिये हैं। उनकी आंखों की ज्योति धीरे-धीरे जा रही है। पत्नी पहले ही गुजर चुकी हैं और एक ही बेटा है, जो उनसे अलग शहर में रह रहा है। मुआवजे की आस में जाधव ने बल्लारपुर नहीं छोड़ा । उसने कहा, कि जंगल की जड़ी-बूटी से अच्छी कमाई हो जाती थी। सफेद मुसली 5 हजार रुपये किलो, इसके अलावा तेंदु पत्ता, गोंद, महुआ आदि से अच्छी आमदानी हो जाती थी। अब तो नगद है ही नहीं। राशन से जो मिल जाये , उसी से गुजारा चलता है।
हलके राम सहरिया को खदान में काम करते-करते तपेदिक हो गया है , वर्ष 2000 में विस्थापन के समय वह 18 साल का था, तभी से वह आजीविका के लिए खदान में काम करने लगा। धीरे-धीरे उसे कई बीमारियों ने जकड़ लिया। वर्तमान वह तपेदिक का इलाज एक निजी डॉक्टर से करवा रहा है। अब तो एकदम बूढ़ा लगने लगा है। हलके ने बताया, 6 भाई-बहन और माता-पिता के साथ वह नया बल्लारपुर में बसने आया था। खदान में काम करते हुए सभी ने एक के बाद एक दम तोड़ दिया। अब तो केवल मेरे साथ एक बहन जिंदा है। शिवपुरी के ही दूसरे गांव की लडक़ी से उसकी शादी हुई, ससुराल वालों की मदद से उसकी जिंदगी की गाड़ी चल रही है। इन लोगों ने कहा, 5वीं बार वे राजधानी आकर अधिकारियों को अपनी व्यथा सुना रहे हैं, परंतु अधिकारियों की तरफ से सिर्फ आश्वासन ही मिल रहा है।
दरअसल, राज्य मानव अधिकार आयोग की अनुशंसा में स्पष्ट रूप से सहरिया आदिवासियों के मानव अधिकार हनन का उल्लेख है। आयोग ने ं वन विभाग को निर्देश दिये थे, कि जिन 39 परिवारों को ज़मीन के पट्टे नहीं मिले हैं, उन्हें एक माह के भीतर मुआवजा और कम से कम 2 हेक्टेयर ज़मीन उपलब्ध कराये जाये तथा 18 साल की अनुचित विलम्ब को देखते हुए आयोग ने अब तक की अवधि के लिए 9 फीसदी वार्षिक ब्याज दर से भुगतान देने को कहा था।
इधर वन विभाग ने 9 फीसदी वार्षिक ब्याज दर भुगतान की अनुशंसा को आधारहीन और अतिरंजित कह कर विराम लगा दिया। हालांकि वन विभाग की ओर से वन भूमि संबंधित अनुमति प्राप्त करने के लिए वर्ष 2001 से लगातार प्रयास किये जा रहे हैं , अधिकारियों का मानना है, कि वैधानिक प्रक्रियाओं की जटिलता के कारण प्रकरण में विलम्ब हो रहा है ।
अपर मुख्य वन संरक्षक वन्यप्राणी आलोक कुमार ने बताया, वर्ष 2002 में माधव राष्ट्रीय उद्यान प्रबंधन द्वारा ग्राम बलारपुर के 9 विस्थापित परिवारों केा वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध कराने के लिए इको विकास समिति के माध्यम से 53 हजार रुपये का ऋण स्वरोजगार स्थापित करने के लिए दिया जा चुका है।
उन्होंने कहा, कि विस्थापित सहरिया आदिवासियों के टीबी से ग्रसित होने को गलत प्रचारित किया जा रहा है। श्री कुमार ने इसे निराधार एवं अनुचित बताया। उन्होंने कहा, कि सिर्फ जमीन के पट्टे न मिलने के कारण आदिवासी पत्थर की खदानों में काम करने नहीं जाते, बल्कि जिनके पास ज़मीन है, वे भी खदानों में काम करने जाते हैं और केवल खदानों में काम करने से टीबी नहीं होता है, खान-पान, रहन-सहन भी इसके लिये जिम्मेदार है, इसीलिए इनके बच्चे अधिकतर कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।
आलोक कुमार ने बताया, आदिवासियों को पट्टे देने का कार्य उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। राष्ट्रीय उद्यान प्रबंधन द्वारा ग्राम बल्लारपुर के विस्थापित परिवारों के लिए पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भारत शासन से अनुमति की कार्यवाही जारी है तथा अन्य भूमि पर पट्टे देने का अधिकार कलेक्टर से संबंधित है। दूसरी तरफ कलेक्टर का कहना है, कि वन विभाग की ओर से पहल हो, तो वे वैकल्पिक व्यवस्था करने को तैयार है।
विस्थापन स्थल के वन भूमि होने की जानकारी संज्ञान में आने के कारण पट्टे वितरण का कार्य रोक देने की बात करते हुए वन विभाग ने कहा है, कि बिना अनुमति पट्टा वितरण जारी रखना वन संरक्षण अधिनियम 1980 का उल्लंघन है।
आयोग पीडि़तों को विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा
शिवपुरी दौरे में आयोग के अनुसंधान दल कलेक्टर से मिले थे, कलेक्टर ने बताया था, कि 39 परिवारों को प्रतिकर राशि देने के संबंध में मध्यप्रदेश शासन की ओर से उन्हें कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुए है। वे मौके पर जाकर 70 वर्षीय चऊवालाल पाल (पिता स्व. परसूपात पाल), 55 वर्षीय बिन्नूबाई (पति स्व. सोढू), 50 वर्षीय मनटोली (पिता श्याम आदिवासी ), 36 वर्षीय रामनिवास (पिता नानूराम भील और 32 वर्षीय मुकेश (पिता किशनलाल आदिवासी ) से मिले और उनके कथन भी लिये, इन आदिवासियों ने अपने कथन में बताया, कि शासन द्वारा पुराने बल्लारपुर के जिन 100 परिवारों को विस्थापित कर नया बल्लारपुर में बसाया , उनमें से 61 परिवारों को शासन द्वारा पट्टे पर जमीन दी, जबकि शेष 39 परिवारों को आज तक जमीन के पट्टे नहीं मिले और न ही शासन द्वारा उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकर राशि दी गई। विस्थापन के बाद आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे नहीं मिले । उनके पास आजीविका के कोई साधन न होने से वे पत्थर की खदानों में काम करने को मजबूर हुए । इस तरह परिवारों के मुखिया पुरुष सदस्यों की खदानों में कार्य करने से टीबी व अन्य संक्रमण हो गया और उनकी कम उम्र में मुत्यु हो गई।
सहरिया विशेष जनजाति है, इसलिए उन्हें और उनकी संस्कृति को बचाये रखने के लिए आयोग ने इस मामले को गंभीरता से लिया और मौके पर जांच दल भेजकर वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद लगातार वन विभाग को मुआवजे के संबंध में अनुस्मारक पत्र भेजता रहा। हालांकि वन विभाग आयोग की अनुशंसा मानने को बाध्य नहीं है। ऐसी स्थिति में पीडि़तों केा कानूनी लड़ाई लडऩी पड़ेगी । इस सूरत में आयोग विस्थापितों को विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा । आयोग की मंशा केवल इतना है, कि किसी के मानव अधिकारों का हनन न हो ।
अशोक कुमार मरावी
निरीक्षक
अनुसंधान दल
राज्य मानव अधिकार आयोग
Ptham Prawakta 16 Sep 2018
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