Monday, March 7, 2011


पहली महिला कव्वाल शकीला बानो भोपाली
भोपाल की पहचान शकीला बानो को पहली महिला कव्वाल होने का प्राप्त है। अमीर खुसरो के सात सौ वर्ष उपरांत इस विरासत को महिला कलाकार शकीला बानो भोपाली ने संभाला। उस दौर में जबकि महिलाओं को सख्त अनुशासन और कड़े पर्दे के साथ जीने की इजाजत थी, अपने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ शकीला बानो भोपाली अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना कर कव्वाली विधा को मजारों और मकबरों के पवित्र लेकिन सीमित दायरे से बाहर बाजार तक ले आर्इं, जहां न केवल मुसलमान बल्कि सभी धर्मों के बीच इस कला को प्रतिष्ठित किया।
कव्वाल की रानी शकीला बानो का जन्म भोपाल के इतवारा में 9 मई, 1942 को एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था, परन्तु 21 जून को वे अपना जन्मदिन मनाया करती थीं। पिता अब्दुर्रशीद खान अपने जमाने के मशहूर कव्वाल थे और माता जमीला बानो एक आदर्श गृहिणी। शकीला बानो अपने पिता की पहली संतान थीं। 12 वर्ष की आयु में शकीला बानो का निकाह बाकर अली उर्फ नन्हें मियां के साथ कर दिया गया था। लेकिन यह रिश्ता केवल छह माह तक ही टिक पाया, सन् 1954 में उन्हें तलाक का दंश झेलना पड़ा।
मशहूर कव्वाल की बेटी होने के कारण स्वाभाविक रूप से उनका लगाव संगीत शेरो-शायरी और कव्वाली की ओर रहा। हालांकि उनकी मां ने रोक लगने की काफी कोशिश की, परन्तु वे सफल न हो सकीं। बचपन से ही चोरी-छिपे पास-पड़ोस में जाकर महिलाओं को शेर सुनाने और गीत-संगीत की महफिल सजाने के लिए उन्हें काफी प्रशंसा मिलने लगी थी। शकीला को उर्दू, फारसी और अरबी भाषा का ज्ञान था। उनकी गायन की खबर जब बेगम भोपाल तक पहुंची, तो उन्होंने भी कव्वाली सुनने के लिए विशेष महफिल का आयोजन किया। बेगम भोपाल ने शकीला का हुस्र और उनकी कला से बेहद प्रभावित हुई। बेगम रात-रात भर अपने साथियों के साथ इन महफिलों में मौजूद रहतीं और शकीला बानों की प्रशंसा मुक्तकंठ से करतीं।
शकीला ने कव्वाली गायन को केवल महिलाओं की महफिल तक ही सीमित रखा था, सिर्फ ऐसे परुष , जिनका शकीला के यहां आना-जाना लगा रहता था, उन्हें महफिलों में बैठने की स्वीकृति मिलने लगी। इस तरह दो साल के भीतर ही कव्वाली की ये महफिलें सभी के लिए खोल दी गर्इं। पुरुषों की महफिल का प्रारंभ नवाब भोपाल हमीदुल्ला खां के दरबार से प्रारंभ हुआ और यहीं से शकीला बानो कव्वाली के क्षेत्र में एक चमकदार सितारा बनीं।
सन् 1956 में जब बीआर चोपड़ा पूरी यूनिट के साथ नया दौर फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में बुधनी पहुंचे, तो उन्होंने मशहूर कव्वाल गायक शकीला बानो भोपाली से बुधनी में एक कार्यक्रम प्रस्तुत करने की फरमाइश की। इस कार्यक्रम में फिल्म कलाकारों दिलीप कुमार और वैजयन्तीमाल के अतिरिक्त भोपाल के अनेक विशिष्टजन भी मौजूद थे। संगीत का यह सिलसिला सुबह पांच बजे तक चला। पूरी यूनिट ने उन्हें शीघ्र बम्बई आने का न्यौता दिया, ताकि उनकी कला से पूरे देश का परिचय कराया जा सके। बम्बई पहुंचकर ख्वाजा साबिर ने एमएम मुगनी से शकीला की तारीफ की और उनकी ओर से शकीला को बम्बई आने का न्यौता भेज दिया। 11 दिसम्बर, 1956 को शकीला अपने परिवारजनों के साथ बम्बई पहुंची। शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष के बाद उन्हें फिल्म और स्टेज शोज में प्रदर्शन का अवसर मिला। धीरे-धीरे वे भारत के अन्य शहरोें में भी कार्यक्रम प्रस्तुत करने जाने लगी। सन् 1957 में निर्माता सर जगमोहन मट्टू ने उन्हें विशेष रूप से अपनी फिल्म जागीर में अभिनय करने का अवसर दिया। इसके बाद उन्हें सह-अभिनेत्री, चरित्र अभिनेत्री की भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले। एचएमवी कंपनी ने सन् 1971 में उनका पहला रिकार्ड बनाया और पूरे भारत में शकीला बानो अपने हुस्र और हूुनर की बदौलत पहचानी जाने लगीं।
उन्होंने सांझ की बेला, आलमआरा, फौलादी मुक्का, रांग नम्बर, टैक्सी ड्राइवर, परियों की शहजादी, गद्दार चोरों की बारात, सरहदी लुटेरा, आज और कल, डाकू मानसिंह, दस्तक, मुंबई का बाबू, जीनत, सीआईडी जैसी मशहूर फिल्मों के लिए अपनी आवाज दी। शकीला बानो ने हिन्दी के अलावा गुजराती में भी कव्वाली गाई।
उनकी ख्याति भारत के अलावा दूसरे देशों में फैलने लगी। उन्होंने सन् 1960 में पूर्व अफ्रीका में लगभग 44 कार्यक्रम प्रस्तुत किए। सन् 1966 में वे इंग्लैण्ड के विभिन्न शहरों में 32 कार्यक्रम और कुवैत यात्रा के दौरान 12 कार्यक्रम पेश किए। सन् 1978 में अमेरिका और कनाडा के कई शहरों में आठ कार्यक्रम पेश किए । वर्ष 1980 में उन्होंने पाकिस्तान का दौरा किया। वे पहली महिला कव्वाल थीं, जो विदेशों में पसंद की गई और उन्हें आदर-सम्मान मिला। शकीला बानो की कोई संतान नहीं थी, अपने छोटे भाई अनीस मोहम्मद खान के बेटे डब्लू को गोद लेकर अपने बेटे की तरह पाला।
दिसम्बर, 1984 में गैस त्रासदी के समय वह भोपाल में थीं, इसलिए वह भी इस त्रासदी की शिकार हुर्इं। तीव्र अस्थमा, मधुमेह और गुर्दा रोग ने उन्हें जकड़ लिया। मुंबई के जॉर्ज अस्पताल में लम्बे समय तक उनका इलाज चला। लेकिन इन बीमारियों से लम्बी और दर्दनाक लड़ाई के बाद 59 वर्ष की आयु में उनका निधन 16 दिसम्बर, 2002 की रात को हो गया।