Thursday, December 22, 2011


सुरीली विरासत की धनी कलापिनी
पूर्णत. मौलिक-मधुर और दमदार आवाज की धनी कलापिनी का जन्म 12 मार्च को देवास में हुआ। कुछ बिरले सौभाग्यशाली लोगों में से एक कलापिनी को पंडित कुमार गंधर्व एवं विदुषी वसुन्धरा कोमकली जैसे माता-पिता गुरु के रूप में मिले, जिनसे उन्होंने संगीत का ज्ञान, तकनीक और व्याकरण विरासत में पाया। विशेष बात यह है, कि अपने गुरु के सान्निध्य में संगीत पाठ के दौरान उन्होंने मनन और सृजन का माद्दा भी हासिल किया। स्वरों की विस्तृत परिधी भावों को दर्शाने में पूर्ण सक्षम कलापिनी के गायन में ग्वालियर घराने की व्यक्तिगत छाप झलकती है।
कलापिनी के रागों और बंदिशों का संग्रह मालवा अंचल की लोक धुनों और विभिन्न संतों के सगुण-निर्गुण भजनों से और भी अधिक समृद्ध हुआ है। पिछले एक दशक में वे एक प्रखर और संवेदनशील गायिका के रूप में उभरी हैं। उनकी प्रस्तुतियों में आत्मविश्वास, परिपक्वता है और एक सधी हुई कलाकार का सोच भी है। कला के उत्थान के प्रति समर्पित कलापिनी देवास में संगीत उत्सवों का आयोजन करती हैं, ताकि गायक, युवा कलाकार और विद्वतजनों का समागम संभव हो। अपनी सांगीतिक समझ और अध्येता भाव के कारण कलापिनी जैसी परिपक्व आवाज की धनी गायिका युवा पीढ़ी में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर अपने व्याख्यान प्रदशर्नों (लेक्चर डेमोन्स्ट्रेशन्स) के लिये काफी लोकप्रिय हैं। कुमार गंधर्व संगीत अकादमी की वे सक्रिय न्यासी हैं।
भारत सरकार के संस्कृति विभाग की छात्रवृत्ती उन्हें प्राप्त है। संगीत के प्रति उनकी तमाम कोशिशों को देखते हुए पुणे स्थित श्रीराम पुजारी प्रतिष्ठान ने उन्हें कुमार गंधर्व पुरस्कार से सम्मानित किया है।
आरंभ और इनहेरिटेंट शीर्षक से एच.एम.वी. द्वारा व्यावसायिक तौर पर जारी उनकी दो स्टुडियो रेकॉर्डिंग हैं। इसी तरह हाल ही में धरोहर शीर्षक से टाइम्स म्यूजिक ने रेकार्ड जारी •िया है। स्वर मंजरी में उनकी एक पूरी संगीत सभा है, जो वर्जिन रेकॉर्डस की ताजातरीन प्रस्तुति है। कलापिनी ने पहेली और देवी अहिल्याबाई फिल्मों के साउण्डट्रेक में भी अपनी आवाज दर्ज कराई है। कलापिनी सिडनी और मेलबोर्न में स्प्रीट आॅफ इण्डिया, कीन्सलैण्ड आॅफ म्यूजिक फेस्टिवल, बिस्बन (आॅस्टे्रलिया), सवाई गंधर्व फेस्टिवल, पुणे, देज़ आॅफ दिल्ली मास्को (रूस),अली अकबर खान म्यूजिक अकादमी बसेल (स्विट्ज़रलैण्ड),सुर संगम दुबई के साथ ही देश के सभी प्रमुख प्रतिष्ठित संगीत समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं। उनके विषयगत संगीत में गीत वर्षा, आई बदरिया, गीत वसंत, आयो बसंत, सगुण-निर्गुण भजन, निर्गुण गान, मालवा की लोकधुन और गंधर्व सुर प्रमुख हैं।
उपलब्धियां:
1- श्रीराम पुजारी प्रतिष्ठान, पुणे द्वारा कुमार गंधर्व पुरस्कार
2- एचएमवी द्वारा आरंभ और इनहेरिटेंट रेकार्ड, टाइम्स म्यूजिक द्वारा धरोहर और वर्जिन रिकार्ड्स द्वारा स्वर मंजरी रेकार्ड जारी
3- फिल्म पहेली और देवी अहिल्या के लिए साउंड ट्रैक

Wednesday, July 6, 2011







उड़ान लाइसेंस पाने वाली भारत की पहली महिला ‘आबिदा सुल्तान’
भोपाल रियासत की राजकुमारी आबिदा सुल्तान 28 अगस्त 1913 को पैदा हुर्इं। उनके पिता हमीदुल्लाह खान भोपाल रियासत के अंतिम नवाब थे। आबिदा अपने पिता की बड़ी संतान थी। उनकी परवरिश दादी सुल्तान जहां बेगम ने किया था। आबिदा को भारत की पहली महिला पायलट होेने का गौरव प्राप्त था। 25 जनवरी,1942 को उड़ान लाइसेंस उन्हें मिला था। अपनी दादी के अनुशासन में रहकर बहुत कम उम्र में ही आबिदा सुल्तान कार ड्राइविंग के अलावा घोड़े, पालतू चीतल जैसे जानवरों की सवारी और शूटिंग कौशल में पारंगत हो चुकी थी। उस जमाने में वे बगैर नकाब के कार चलाती थीं। उपमहाद्वीप के मुस्लिम राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करने वाली आबिदा सुल्तान ने अपने पिता हमीदुल्लाह खान के कैबिनेट के अध्यक्ष और मुख्य सचिव की जिम्मेदारी भी संभाली थी। आबिदा पोलो और स्क्वेश जैसे खेलों में भी दिलचस्पी रखती थी। सन् 1949 में वे अखिल भारतीय महिला स्क्वैश की चैंपियन रहीं। आबिदा का निकाह 18 जून, 1926 को कुरवाई के नवाब सरवर अली खान के साथ हुआ। दादी की प्रिय पोती आबिदा पहली बार पिता के उत्तराधिकारी का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए अपनी दादी नवाब सुल्तान जहां बेगम के साथ सन् 1926 में लंदन गई थी। देश के विभाजन की उथल-पुथल के बाद सन् 1949 में उन्होंने भारत छोड़ दिया और पाकिस्तान चली गई। आबिदा ने अपना आशियाना कराची में बनाया और अपनी गतिविधियां जारी रखीं। उन्होंने सन् 1954 में संयुक्त राष्टÑ में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व और सन् 1956 में चीन का दौरा किया। धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में विश्वास रखने वाली आबिदा सन् 1960 में मार्शल कानून के विरोध में फातिमा जिन्ना- जो मोहम्मद अली जिन्ना की बहन थीं, का साथ दिया था। वे महिला अधिकारों की पक्षधर थीं। जनवरी 1954 में पिता द्वारा भोपाल वापस लौटने की पेशकश को ठुकरा चुकी आबिदा 12 वर्षों तक अपने पिता से दूर रहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के समय वे भोपाल आर्इं।
अक्टूबर 2001 तक आबिदा अनेक रोगों से ग्रस्त हो गर्इं। 27 अप्रैल, 2002 को कार्डियक आॅपरेशन के लिए उन्हें शौकत उमर मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 11 मई , 2002 को उनका निधन हो गया। उनके पुत्र शहरयार मोहम्मद खान पाकिस्तान में विदेश सचिव रहे हैं।

Monday, April 18, 2011

अभिनेत्री और स्वधीनता संग्राम सेनानी ‘वनमाला’
हिन्दी और मराठी फिल्मों की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री वनमाला दरअसल ग्वालियर की सुशीला देवी पवार थीं। बॉलीवुड में करिअर शुरू करते समय उन्होंने अपना नाम वनमाला रख लिया। उनका जन्म सन् 1911 में उज्जैन में हुआ। उनके पिता बाबू राव पवार ग्वालियर रियासत में मंत्री रहे। वनमाला विक्टोरिया कॉलेज ग्वालियर की पहली महिला स्रातक विद्यार्थी थी। आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने स्रातक की उपाधि हासिल की। इसके बाद वनमाला मुंबई चली गर्इं और पुणे से सन् 1938 में बीटी की उपाधि हासिल कर वहींं अध्यापिका बन गई। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह मुंबई के पीके सावंत से हो गया। लेकिन दुर्भाग्य से कुछ समय बाद ही दोनों अलग रहने लगे। उनकी स्वप्निल आंखें उन्हें बॉलीवुड ले आर्इं। 21 वर्ष की आयु में फिल्मी करिअर शुरू करने वाली वनमाला की पहली ब्लॉक बस्टर ऐतिहासिक फिल्म सिकन्दर (1941) थी। मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले बनी इस फिल्म में उनके साथ सोहराब मोदी और पृवीराज कपूर थे। रूख्साना की भूमिका में उन्होंने जबरदस्त अभिनय किया था। वनमाला ने फिल्मी करिअर में 30 हिन्दी और पांच मराठी फिल्मों में काम किया। वे सन् 1940 से सन् 1950 तक वे बॉलीवुड में सक्रिय रहीं।
हिन्दी और मराठी दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखने वाली वनमाला को मराठी फिल्म श्याम ची आई (1953) में अविस्मरणीय भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्टÑपति स्वर्ण कमल पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार भारत के प्रथम राष्टÑपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रदान किया था। फिल्म का निर्देशन आचार्य प्रह्लाद के शव आत्रे ने किया था, जिसकी कहानी स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध मराठी रचनाकार साने गुरुजी के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित है। उनकी यादगार फिल्मों में रामचंद्र ठाकुर निर्देशित शरबती आंखें (1945), बैचलर हसबेंड (1950) , आजादी की राह पर (1948), बीते दिन (1947), चन्द्रहास (1947), खानदानी (1947), आरती (1945), चरणों की दासी (1941), वसंतसेना (1942), दिल की बात (1944), हातिमताई (1947), बीते दिन (1947), श्रीराम भारत मिलाप (1965), पयाची दासी और मोरूची मावशी मराठी आदि है। एक फिल्म का शीर्षक शरबती आंखें, उनकी आंखों को देखते हुए बिल्कुल सटीक था। अनेक प्रमुख निर्माता-निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया। इनमें आचार्य प्रह्लाद के शव आत्रे, रामचंद्र ठाकुर के नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने मराठी फिल्म पयाची दासी और मोरूची मावशी में उत्कृष्ट अभिनय किया।
उन्होंने परंपरा और देश की संस्कृति को बढ़ावा देने वृन्दावन में शास्त्रीय नृत्य एवं गायन के लिए हरिदास कला संस्थान नाम से विद्या केंद्र स्थापित किया। उनकी रुचि घुड़सवारी, टेनिस जैसे खेलों में भी रही। वनमाला कई सामाजिक गतिविधियों से गहराई से जुड़ी थीं। वे छत्रपति शिवाजी नेशनल मेमोरियल कमेटी की सदस्य थी। प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अरूणा आसफ अली और अच्युत पटवर्धन के साथ वे आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहीं। उन्होंने कृष्ण भक्ति में अपना आखिरी जीवन बिताया।
लम्बे समय तक केंसर से पीड़ित वनमाला का निधन 92 वर्ष की आयु में 29 मई, 2007 को ग्वालियर में हो गया। उनकी चार बहनें और दो भाइयों में छोटे भाई ब्रिगेडियर एनआर पवार ग्वालियर में और बहन सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका सुमति देवी धनवटे नागपुर में रहती हैं।
उपलब्धि : मराठी फिल्म श्याम ची आई के लिए राष्ठÑीय पुरस्कार- 1953

Monday, March 7, 2011


पहली महिला कव्वाल शकीला बानो भोपाली
भोपाल की पहचान शकीला बानो को पहली महिला कव्वाल होने का प्राप्त है। अमीर खुसरो के सात सौ वर्ष उपरांत इस विरासत को महिला कलाकार शकीला बानो भोपाली ने संभाला। उस दौर में जबकि महिलाओं को सख्त अनुशासन और कड़े पर्दे के साथ जीने की इजाजत थी, अपने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ शकीला बानो भोपाली अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना कर कव्वाली विधा को मजारों और मकबरों के पवित्र लेकिन सीमित दायरे से बाहर बाजार तक ले आर्इं, जहां न केवल मुसलमान बल्कि सभी धर्मों के बीच इस कला को प्रतिष्ठित किया।
कव्वाल की रानी शकीला बानो का जन्म भोपाल के इतवारा में 9 मई, 1942 को एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था, परन्तु 21 जून को वे अपना जन्मदिन मनाया करती थीं। पिता अब्दुर्रशीद खान अपने जमाने के मशहूर कव्वाल थे और माता जमीला बानो एक आदर्श गृहिणी। शकीला बानो अपने पिता की पहली संतान थीं। 12 वर्ष की आयु में शकीला बानो का निकाह बाकर अली उर्फ नन्हें मियां के साथ कर दिया गया था। लेकिन यह रिश्ता केवल छह माह तक ही टिक पाया, सन् 1954 में उन्हें तलाक का दंश झेलना पड़ा।
मशहूर कव्वाल की बेटी होने के कारण स्वाभाविक रूप से उनका लगाव संगीत शेरो-शायरी और कव्वाली की ओर रहा। हालांकि उनकी मां ने रोक लगने की काफी कोशिश की, परन्तु वे सफल न हो सकीं। बचपन से ही चोरी-छिपे पास-पड़ोस में जाकर महिलाओं को शेर सुनाने और गीत-संगीत की महफिल सजाने के लिए उन्हें काफी प्रशंसा मिलने लगी थी। शकीला को उर्दू, फारसी और अरबी भाषा का ज्ञान था। उनकी गायन की खबर जब बेगम भोपाल तक पहुंची, तो उन्होंने भी कव्वाली सुनने के लिए विशेष महफिल का आयोजन किया। बेगम भोपाल ने शकीला का हुस्र और उनकी कला से बेहद प्रभावित हुई। बेगम रात-रात भर अपने साथियों के साथ इन महफिलों में मौजूद रहतीं और शकीला बानों की प्रशंसा मुक्तकंठ से करतीं।
शकीला ने कव्वाली गायन को केवल महिलाओं की महफिल तक ही सीमित रखा था, सिर्फ ऐसे परुष , जिनका शकीला के यहां आना-जाना लगा रहता था, उन्हें महफिलों में बैठने की स्वीकृति मिलने लगी। इस तरह दो साल के भीतर ही कव्वाली की ये महफिलें सभी के लिए खोल दी गर्इं। पुरुषों की महफिल का प्रारंभ नवाब भोपाल हमीदुल्ला खां के दरबार से प्रारंभ हुआ और यहीं से शकीला बानो कव्वाली के क्षेत्र में एक चमकदार सितारा बनीं।
सन् 1956 में जब बीआर चोपड़ा पूरी यूनिट के साथ नया दौर फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में बुधनी पहुंचे, तो उन्होंने मशहूर कव्वाल गायक शकीला बानो भोपाली से बुधनी में एक कार्यक्रम प्रस्तुत करने की फरमाइश की। इस कार्यक्रम में फिल्म कलाकारों दिलीप कुमार और वैजयन्तीमाल के अतिरिक्त भोपाल के अनेक विशिष्टजन भी मौजूद थे। संगीत का यह सिलसिला सुबह पांच बजे तक चला। पूरी यूनिट ने उन्हें शीघ्र बम्बई आने का न्यौता दिया, ताकि उनकी कला से पूरे देश का परिचय कराया जा सके। बम्बई पहुंचकर ख्वाजा साबिर ने एमएम मुगनी से शकीला की तारीफ की और उनकी ओर से शकीला को बम्बई आने का न्यौता भेज दिया। 11 दिसम्बर, 1956 को शकीला अपने परिवारजनों के साथ बम्बई पहुंची। शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष के बाद उन्हें फिल्म और स्टेज शोज में प्रदर्शन का अवसर मिला। धीरे-धीरे वे भारत के अन्य शहरोें में भी कार्यक्रम प्रस्तुत करने जाने लगी। सन् 1957 में निर्माता सर जगमोहन मट्टू ने उन्हें विशेष रूप से अपनी फिल्म जागीर में अभिनय करने का अवसर दिया। इसके बाद उन्हें सह-अभिनेत्री, चरित्र अभिनेत्री की भूमिका निभाने के अनेक अवसर मिले। एचएमवी कंपनी ने सन् 1971 में उनका पहला रिकार्ड बनाया और पूरे भारत में शकीला बानो अपने हुस्र और हूुनर की बदौलत पहचानी जाने लगीं।
उन्होंने सांझ की बेला, आलमआरा, फौलादी मुक्का, रांग नम्बर, टैक्सी ड्राइवर, परियों की शहजादी, गद्दार चोरों की बारात, सरहदी लुटेरा, आज और कल, डाकू मानसिंह, दस्तक, मुंबई का बाबू, जीनत, सीआईडी जैसी मशहूर फिल्मों के लिए अपनी आवाज दी। शकीला बानो ने हिन्दी के अलावा गुजराती में भी कव्वाली गाई।
उनकी ख्याति भारत के अलावा दूसरे देशों में फैलने लगी। उन्होंने सन् 1960 में पूर्व अफ्रीका में लगभग 44 कार्यक्रम प्रस्तुत किए। सन् 1966 में वे इंग्लैण्ड के विभिन्न शहरों में 32 कार्यक्रम और कुवैत यात्रा के दौरान 12 कार्यक्रम पेश किए। सन् 1978 में अमेरिका और कनाडा के कई शहरों में आठ कार्यक्रम पेश किए । वर्ष 1980 में उन्होंने पाकिस्तान का दौरा किया। वे पहली महिला कव्वाल थीं, जो विदेशों में पसंद की गई और उन्हें आदर-सम्मान मिला। शकीला बानो की कोई संतान नहीं थी, अपने छोटे भाई अनीस मोहम्मद खान के बेटे डब्लू को गोद लेकर अपने बेटे की तरह पाला।
दिसम्बर, 1984 में गैस त्रासदी के समय वह भोपाल में थीं, इसलिए वह भी इस त्रासदी की शिकार हुर्इं। तीव्र अस्थमा, मधुमेह और गुर्दा रोग ने उन्हें जकड़ लिया। मुंबई के जॉर्ज अस्पताल में लम्बे समय तक उनका इलाज चला। लेकिन इन बीमारियों से लम्बी और दर्दनाक लड़ाई के बाद 59 वर्ष की आयु में उनका निधन 16 दिसम्बर, 2002 की रात को हो गया।

Thursday, February 17, 2011


अद्वितीय धु्रपद गायिज़ असगरी बाई

देश ज़्ी प्रसिद्ध ध्रुपद गायिज़ असगरीबाई ज़ जन्म बिजावर छतरपुर में 12 अगस्त 1918 ज़े हुई। छह वर्ष ज़्ी आयु में वह अपने गुरु ज़्े साथ वह टीज़्मगढ़ आ गईं। बताया जाता है ज़् िटीज़्मगढ़ महाराज वीरसिंह जूदेव नेअपने दरबार में गोहद निवासी उस्ताद जहूर खां से ज़्हा था, ज़् िउन्हें अपने रा’य में एज़् अद्वितीय गायिज़ चाहिए, जिससे दरबार में गायन परंपरा चलती रहे। उस्ताद जहूर खां ज़े असगरी बाई ज़ ख्याल आया। उन्होंने असगरी बाई ज़े गोद लिया और गाना सिखाना शुरू ज़्र ज़्यिा। असगरी बाई 14-15 साल ज़्ी उम्र में सारे रागों से परिचित हो चुज़्ी थीं। उनज़्ी माँ नजÞीर बेगम बिजावर ज़्े पूर्व शाही परिवार ज़्ी एज़् गायिज़ थी, जबज़् िउनज़्ी दादी बलायत बीबी अजयगढ़ रियासत ज़्े दरबार में गायिज़ थी ।
एज़् बार वीरसिंह जूदेव ज़्े दरबार में सिद्धेश्वरी देवी अपना गायन प्रस्तुत ज़्र रही थीं, उसी समय असगरी बाई उछल-उछल ज़्र उन्हें देखना चाह रही थी। वीरसिंह जूदेव ज़ ध्यान जब असगरी बाई ज़्ी हरज़्त पर गया, तो उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और पूछा - ज़्सिज़्ी बेटी हो? असगरी बाई ने उस्ताद जहूर खां ज़्ी ओर इशारा ज़्रते हुए जवाब दिया ज़् िमैं इनज़्ी बेटी हूं। इससे आगे राजा ज़े असगरी ज़्े गायन विद्या ज़्े बारे में जाननी थी, सो उन्होंने पूछा ज़् ियह क्या गा रही हैं? असगरी बाई ने जवाब दिया, यह तोड़ी गा रही हैं। ज़्सि राग में? भैरवी में । राजा ने ज़्हा क्या तुम गा सज़्ती हो? असगरी ने तुरंत तोड़ी सुनाई । उन्होंने धमार और ध्रुपद भी गाया। राजा उनज़्े गायन से इतने प्रभावित हुए ज़् िउन्हें टीज़्मगढ़ ज़्लिे ज़्े राधा-माधव मंदिर में नौज़्री दे दी। असगरी अपने गुरु उस्ताद जहूर खां ज़्े साथ घण्टों रियाज ज़्रती थीं, वहीं आगरा ज़्े एज़् ज़ेयला व्यापारी चिमनलाल गुप्ता आया ज़्रते थे। दोनों एज़्-दूसरे ज़्े प्रति इतने आर्ज़्षित हुए, ज़् ि 35 साल ज़्ी उम्र में असगरी बाई ने उनसे गंधर्व विवाह ज़्र लिया। असगरी बाई ज़्े पांच पुत्र और तीन पुत्रियां हैं।
उस समय ध्रुपद गायन ज़्ेवल मंदिरों तज़् ही सीमित था । असगरी बाई ध्रुपद गायन में इतनी विशेषज्ञता हासिल ज़्र ली थी ज़् ि उन्होंने अपनी भारी दमदार आवाज में ध्रुपद गायन ज़े पहले राज दरबार, फिर सार्वजनिज़् मंच में पहचान दिलाई। असगरी बाई ज़्ुण्डेश्वर में पखावज ज़्े सिद्धहस्त ब्रह्चारी महाराज से मिलने जाया ज़्रती थीं, वहीं उनज़्ी मुलाज़त गुणसागर सत्यार्थी से हुई। वे असगरी बाई ज़ गाना सुनज़्र इतने मुग्ध हो गए ,ज़् िभोपाल आज़्र अलाउद्दीन खां संगीत अज़दमी ज़्े तत्ज़लीन सचिव अशोज़् वाजपेयी से ज़्हज़्र उनज़ नाम मानदेय ज़्लाज़रों ज़्ी सूची में शामिल ज़्रवा दिया। इसज़्े बाद असगरी बाई ज़े दो हजार रुपए मानदेय पर आमंत्रित ज़्यिा जाने लगा। असगरी बाई ज़्रीब 1978-1980 तज़् अज़दमी से सम्बद्ध रहीं। उन्होंने तत्ज़लीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ज़्ी उपस्थिति में 84 बार ताल बदलज़्र ऐसा ध्रुपद गाया, ज़् िउनज़्े साथ पखावज पर संगत ज़्र रहे बनारस ज़्े स्वामी पागलदास गायन खत्म होते ही मंच पर असगरी बाई ज़्े ज़्दमों पर गिर पड़े। उन्होंने ज़्हा, ज़् िऐसा गवैया आज तज़् हमने नहीं देखा। उस समय अर्जुन सिंह ने असगरी बाई ज़े पांच हजार रुपए इनाम में दिए थे। उन्हें दिल्ली में हाईग्रेड ज़्ी उपाधि भी मिली। उन्होंने सुर श्रृंगार मुबंई, संगीत-नाटज़् अज़दमी दिल्ली, फैजाबाद, वृन्दावन, जयपुर, नांदेड, हैदराबाद, भुवनेश्वर ज़्े साथ ही देश ज़्े ज़्ई शहरों में प्रस्तुतियां दीं। उनज़्ी प्रतिभा ज़्े सभी ज़यल थे। वे टीज़्मगढ़ राज दरबार में 35 साल तज़् रहीं । असगरी बाई मेवाती घराने से संबंध रखती थीं।
ओरछा राजवंश ज़्े लिए मुख्य गायज़् ज़्े रूप में असगरी बाई ने ध्रुपद गायन

में असाधारण विशेषज्ञता हासिल ज़्र ली थी। असगरी बाई ज़े सुनने ज़्ई शाही परिवारों द्वारा आमंत्रित ज़्यिा जाने लगा था ।
उनज़्ी प्रतिभा सिर्फ ध्रुपद गायिज़ ज़्े रूप में ही नहीं, बल्ज़् िउपशास्त्रीय गायन में भी वह दखल रखती थीं। ऐसी अद्वितीय गायिज़ ज़े अपने जीवन ज़्े ज़्ठिन दिनों में बीड़ी और अचार भी बनाज़्र बेचना पड़ा। मध्यप्रदेश सरज़र ने टीज़्मगढ़ जिले में ध्रुपद ज़्ेंद्र स्थापित ज़्र उन्हें गुरु ज़्े रूप में नियुक्त ज़्यिा। उन्हें शासन ज़्ी ओर से छह हजार रुपए मासिज़् वेतन मिलता रहा। लेज़्नि यह ज़्ेवल तीन साल तज़् ही उन्हें मिला। इसज़्े बाद उन्हें पांच सौ रुपए प्रतिमाह पेंशन ही मिलती रही।
गरीबी से तंग आज़्र एज़् बार असगरी बाई ने अपने सारे पुरस्ज़र शासन ज़े लौटाने ज़्ी पेशज़्श भी ज़्र दी थी। तब उस्ताद अमजद अली खान ने उन्हें अपने पिता उस्ताद हाफिज अली खान साहब ज़्े नाम पर एज़् लाख, 10 हजार रुपए सहायता राशि दी थी, इस राशि से उन्होंने अपने दोनों पोतियों ज़्ी शादी ज़्ी। लम्बी बीमारी ज़्े बाद 9 अगस्त, 2006 ज़े असगरी बाई ज़ निधन हो गया । वे 1935 से 2005 तज़् सज़््िरय रहीं। उनज़्े असाधारण प्रतिभा ज़े देखते हुए भारत सरज़र ने सन् 1990 में उन्हें पद्मश्री अलंज़्रण प्रदान ज़्यिा। इसज़्े अलावा उन्हें तानसेन सम्मान, संगीत नाटज़् अज़दमी सम्मान और मध्यप्रदेश सरज़र ज़ शिखर सम्मान भी सम्मानित ज़्यिा गया। उन्हें नारी शक्ति सम्मान भी मिला। इसज़्े अलावा देश ज़्े अनेज़् मंचों पर वे समय-समय पर सम्मानित हुईं। आईटीसी संगीत रिसर्च अज़दमी से उनज़ नाता 1997 तज़् बना रहा तथा आईटीसी संगीत सम्मेलन में उन्हें आईटीसी अवार्ड से भी नवाजा गया था।

पुरस्ज़र एवं सम्मान

- पद्मश्री अलंज़्रण- 24 मार्च 1990
- संगीत नाटज़् अज़दमी पुरस्ज़र- फरवरी 1987
- मध्यप्रदेश सरज़र ज़्ी द्वारा तानसेन सम्मान - दिसम्बर 1985
- मध्यप्रदेश सरज़र द्वारा शिखर सम्मान- फरवरी 1986
- नारी शक्ति सम्मान -
- आईटीसी संगीत अवार्ड- 1997

Wednesday, January 12, 2011






संघर्ष के बीच नित नए आयाम गढ़ें गुलदी

कला-संस्कृति के क्षेत्र में गुल बर्धन का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं । ता-उम्र इस क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान के लिए वर्ष 2009 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा है। हालांकि यह सम्मान उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था, लेकिन देर आयद-दुरुस्त आयद।
पद्मश्री गुल बर्धन और कला की दुनिया में श्रद्धा की पात्र गुल दी का जन्म 19 नवम्बर,1928 को मुंबई में गुजराती वैश्य परिवार में हुआ।
विवाह से पूर्व उनका कुलनाम झवेरी था। उनके पिता हंसराज शाह सौराष्ट्र से कारोबार के सिलसिले में मुंबई आकर बसे थे। गुल दी ने स्नातक की शिक्षा मुंबई से हासिल की। बचपन में चंचल स्वभाव की गुल झवेरी अंग्रेजों से नफरत करती थी। उनके मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था। गुल झवेरी, इंदिरा गांधी की वानर सेना का नेतृत्व मुंबई में किया करती थी, जो हिन्दुस्तान को आजाद कराने के लिए दृढ़संकल्पित थी। यह सेना स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को खुफिया सूचनाएं पहुंचाया करती थी। 1947 में देश आजाद हुआ और गुल दी का अंग्रेजों के साथ लुका-छिपी का खेल खत्म हुआ । अब गुल झवेरी युवा अवस्था में पहुंच चुकी थी। मान्य परंपरा में नया जोडऩे की ललक उन्हें नित नए विचारों की दुनिया में ले आयी। शास्त्रीय नृत्य विद्या में कुछ नया करने के लिए वे इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गईं और नाट्य गीतों एवं नाटकों में भाग लेने लगी। पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इण्डिया पर केंद्रित बैले नाटक की तैयारी के दौरान जो उदयशंकर जी के शिष्य शांति बर्धन के निर्देशन में चल रहा था तथा जिसका प्रदर्शन दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू के समक्ष किया जाना था, की रिहर्सल के दौरान गुल दी, शांति बर्धन के सान्निध्य में आई। उनके काम, विचार और धैर्य देखकर गुल दी इतनी प्रभावित हुईं कि तपेदिक से ग्रस्त शांति बर्धन से उन्होंने विवाह कर लिया। दोनों ने मिलकर लिटिल बैले ग्रुप की स्थापना की। कला के प्रति शांति बर्धन के अप्रतिम समर्पण से नाट्यशाला की ख्याति दुनिया में फैलने लगी। 1954 में शांति बर्धन का निधन हो गया। नाट्यशाला की सारी जिम्मेदारी गुल बर्धन पर आ गई। तब से कर्मठ गुल दी ने अपना जीवन रंग श्री लिटिल बैले ट्रूप को समर्पित कर दिया।
रंग श्री लिटिल बैले ग्रुप की स्थापना 1952 में मुंबई में हुई थी। उसके बाद क्रमश: यह ग्रुप माधवराव सिंधिया के पिता के अनुरोध पर 1964 में ग्वालियर आ गया। यहां इसे लिटिल बैले ट्रूप नाम दिया गया। ग्वालियर में कलाकारों के वर्चस्व की लड़ाई के बीच गुल दी इतनी आहत हुर्इं कि उन्होंने ग्वालियर छोड़ भोपाल को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। यहां पर भी कलाकारों द्वारा इसे तोडऩे की कोशिश की गई। लेकिन गुल दी की जीवटता इस बात का साक्ष्य है, कि आज भी दुनिया का सबसे उम्रदराज बैले ग्रुप उनके नेतृत्व में लोक परंपराओं से प्रेरणा ग्रहण करते हुए निरंतर प्रयोगशील है। यहां केरल, ओडि़सा, बंगाल और मणिपुर के कलाकार अपनी कला प्रतिभा का प्रदर्शन गुलबर्धन के नेतृत्व में कर रहे हैं। शांति बर्धन के कलाकर्म पर गुल दी ने एक पुस्तक ताल अवतार की रचना की है। यह पुस्तक नृत्यकला को समृद्ध करने की दिशा में मूल्यवान है। ताल अवतार में गुल दी लिटिल बैले ट्रूप की विशेषताओं के साथ-साथ नृत्य गुरु शांति बर्धन की अनोखी विशिष्टता का उल्लेख किया है। पुस्तक में रामायण जैसे नए नृत्य नाटकों की खोज ,जो देश का अद्वितीय श्रृंगार के रूप में जाना जाता है, का खूबसूरती से वर्णन है।
कला पर उनकी दृष्टि, नवीनता और प्रयोगधर्मिता का सम्मान करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 2001 में सर्वाेच्च शिखर सम्मान प्रदान किया । इसके अलावा फ्रेंच केबिनेट ने 1964 में उनकी विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए
उन्हें सम्मानित किया। गुल दी अब तक अनेक राष्ट्रीय अन्र्तराष्ट्रीय पुरस्कारों ने नवाजी जा चुकी हैं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी ने रचनात्मक नृत्य के लिए 2001 में, गुजरात संगीत नाटक अकादमी ने गौरव पुरस्कार 1979 में गुल बर्धन के नेतृत्व में रामायण बैले को यूएसएसआर का पुरस्कार 1975 में मिला। इसके अतिरिक्त गुल दी कइ्र्र फिल्मों में नृत्य प्रदर्शन कर चुकी हैं। इसमें राजकपूर निर्देशित अवारा, चेतन आनंद निर्देशित अंजलि, बलराज साहनी निर्देशित लालबत्ती, केए अब्बास निर्देशित धरती के लाल, विजय भट्ट निर्देेशित समाज को बदल डालो और राम राज्य, फणी मजूमदार निर्देशित बंधन और बिमल राय निर्देशित सुजाता शामिल है। विश्व के कई देशों में लिटिल बैले ट्रूप के प्रदर्शन को प्रशंसा-पत्र प्राप्त हुए हैं। इनमें फ्रांस, हालैण्ड, मेक्सिको, चायना, नेपाल, बेल्जियम, मोरक्को, ट्यूनिसिया, ब्राजील, चिली, अरजेंटिना, यूनाईटेड किंगडम, लेबनान, बुलगारिया,जापान, थाईलैण्ड, हांगकांग, साऊथ कोरिया, पुर्तगाल, इटली तथा जर्मनी प्रमुख हैं। विश्व की प्रख्यात नृत्यांगना गुल दी 28 नवम्बर, 2010 को इस दुनिया से चल बसीं। उनकी इच्छा के अनुसार उनका पार्थिव शरीर भोपाल के हमीदिया अस्पताल को सौंप दिया गया था। विख्यात कम्युनिष्ट माक्र्सवादी नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बाद गुल बर्धन ही हैं, जिन्होंने अपना शरीर दान में दे दिया था।
राष्ट्रीय,अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार:
1- पद्मश्री सम्मान- 2009
2- मध्यप्रदेश सरकार की ओर से शिखर सम्मान- 2001
3- संगीत नाटक अकादमी, गुजरात की ओर से गौरव पुरस्कार-1979
4- फ्रांस केबिनेट की ओर से व्यक्तिगत सम्मान- 1964
5- रामायण बैले के निर्देशक के रूप में जीआईटीआईएस,यूएसएसआर-
1975
रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप की उपलब्धियां:
अन्र्तराष्ट्रीय फेस्टिवल अवार्ड
1- थिएटर नेशन- फ्रांस
2- एडिनबरो फेस्टिवल
3- हॉलैण्ड फेस्टिवल
4- मेक्सिको फेस्टिवल
टूअर अवार्ड:
1- चायना- 1955
2- नेपाल-1956
3- यूएसएसआर, जर्मनी- 1957
4- फ्रांस, बेल्जियम, हॉलैण्ड, मोरक्को, ट्यूनिसिया, ब्राजिल, चिली, अर्जेंटिना, यूनाईटेड किंगडम-1960
5- लेबनन, यूएसएसआर, बुलगारिया- 1964
6- मेक्सिको- 1968
7- इंडोनेशिया, बर्मा- 1971
8- जापान, थाईलैण्ड- 1975
9- साउथ कोरिया, थाईलैण्ड- 1975
10- बेल्जियम, ईस्ट जर्मनी, पुर्तगाल, इटली-1982
11- यूएसएसआर- 1988
12- मॉरीशस-1990
13- थाईलैण्ड- 1995

पता: रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप, 4-27 सिविल लाइन्स, विद्याविहार,
भोपाल- 462002 ।