Thursday, September 23, 2010


बेटियों को भी मौका दीजिए
रूबी सरकार
24 सितम्बर अंतर्राष्टÑीय बालिका दिवस घोषित करने के पीछे लैंगिक असमानता खत्म करना और दुनियाभर में हाशिए पर जीवन जी रही लड़कियों को स्थाई
समाम्मान के प्रति लोगों को जागरूक करना है । भारत में 1000 पुरुषों के पीछे 933 महिलाएं समाज के सामने एक चुनौती है। 1981 से यह लिंग अनुपात लगातार गिर रहा है, बालिकाओं के पक्ष में यह आंकड़ा निरंतर कम से कम होता जा रहा है। शहरी क्षेत्रों में यह गिरावट और भी तेजी से हो रही है। हरियाणा में
एक हजार बालकों के पीछे 803 बालिकाएं ही है, जबकि पंजाब में मात्र 775 हैं। राजस्थान, बिहार उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश में लिंगानुपात आठ
सौ का आंकड़ा पार नहीं कर पाया है। केवल केरल ही ऐसा राज्य हैं जहां एक हजार बालकों के पीछे 1058 लड़कियां हैं। इसके पीछे सबसे मुख्य कारण
रूढ़िवादिता,अशिक्षा ही है।
दुनिया अब भारत की बढ़ती ताकत को सलाम कर रही है। अमेरिका की एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया का तीसरा सबसे ताकतवर राष्टÑ है। रिपोर्ट में यह
संभावना व्यक्त की गई है कि 2025 तक भारत का दबदबा और बढ़ेगा। लेकिन क्या यह लैंगिक असमानता, अशिक्षा को दूर किए बिना संभव है? आच्छी आबादी को
नजरअंदाज कर भारत कभी भी पूरी तरह ताकतवर नहीं हो पाएगा। महिलाओं से जुड़े अनेक मुद्दे ऐसे है, जो अभी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। अगर शिक्षा
की ही बात की जाए, तो समाज के विकास , आ.ाुनिकीकर.ा, उद्योग और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि देश का हर नागरिक शिक्षित हों।
60 फीसदी महिलाएं निरक्षर
महिलाओं को शिक्षित बनाने में कई योजनाएं पहले से ही काम कर रही है। इसमें मीसा पहल प्रमुख है। हर राज्य के ब्लाक स्तर तक मी.ाा उत्सव के माध्यम से
लड़कियों को स्कूल भेजने का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। स्कूली स्तर पर शिक्षकों को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे शिक्षा के मायम से कन्या भ्रूण हत्या और लिंग
अनुपात कम करने की दिशा में पहल करें। साथ ही स्वास्थ्य और स्वच्छता, मध्याहन भोजन की गुणवत्ता की निगरानी , कलस्टर स्तर पर बाल मेलों के आयोजन कर शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें। प्रत्येक जिले में शिक्षा के साथ-साथ कालीन बुनाई, हस्तशिल्प, खाद्य प्रसंस्करण, चित्रकला और आत्म रक्षा के प्रशिक्षण पर जोर दिया गया। देश में सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में 60 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं। इनमें करीब 40 फीसदी महिलाएं शहरी हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद
अनुसूचित जाति की बालिकाओं में साक्षरता दर अप्रत्याशित रूप से 60 फीसदी से कम है। करीब 21 फीसदी लड़कियां बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। हालांकि हाल के वर्षों में कम हुई है। फिर भी बिहार महिलाओं को शिक्षित करने में सबसे पीछे है। यहां 33 फीसदी महिलाएं ही शिक्षित हैं। बिहार के अलावा हिन्दी भाषी प्रदेशों में राजस्थान 44 फीसदी, उत्तर प्रदेश 43 फीसदी, झारखण्ड 40 फीसदी और मध्यप्रदेश में 77 फीसदी लड़कों के मुकाबले मात्र 50 फीसदी महिलाएं ही शिक्षित हैं। जबकि केंद्र शासित दादरा नागर हवेली में 43 फीसदी, अरूणाचल में 44 और जम्मू-कश्मीर में 42 फीसदी महिलाएं ही शिक्षित हैं। बेटियों के प्रति उदासीनता,गरीबी, परेशानी, स्कूल की दूरी, स्वास्थ्य संबंधी परेशानी या काम में ज्यादा रुचि, स्कूल में शैचालय न होना या कभी-कभी शिक्षकों का व्यवहार भी लड़कियों को स्कूल छोड़ने पर मजबूर करने के मुख्य कारण हैं। नियमों के अनुसार आज भी 24 फीसदी स्कूल एक किलोमीटर के दायरे में नहीं है।
लिहाजा दूरी के कारण माता-पिता लड़कियों को स्कूल नहीं भेज पाते। पढ़ाई के बजाय ये लड़कियां खेत या .ार के काम में ज्यादा व्यस्त रहती है।
अनिवार्य शिक्षा अधिनियम
आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का प्रावधान राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत
किया। बाद में वर्ष 2002 में संविधान संशोधन के जरिए 6 से 14 साल के बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया। इस मौलिक अधिकार की गारंटी देने के लिए नया कानून मुफ्त और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 बनाया गया और देश में यह एक अप्रैल, 2010 से प्रभावशील हो गया है।
इस कानून के तहत शिक्षा,पोषण आहार के साथ-साथ स्वास्थ्य की जांच को भी शामिल किया गया है। साथ ही प्राईवेट स्कूलों में 25 फीसदी स्थान कमजोर वर्गों के लिए
आरक्षित रखने का निर्देश भी दिया है। सरकार के पास 16 लाख प्राइमरी स्कूल है और इनमें से 43 फीसदी स्कूलों में ही कम्प्यूटर सुविधा उपलब्ध है। अगर 40 करोड़ बच्चे स्कूल जाना चाहे, तो सरकार के पास अभी भी इतने बच्चों के लिए स्कूल नहीं है। इसके अलावा 65 लाख औपचारिक शिक्षकों के सामने स्कूलों में पढ़ाई के साथ-साथ स्वच्छता और स्वास्थ्य की जांच करवाना भी चुनौती है। लड़कियों के शरीर में हार्मोनल परिवर्तन के कारण उनके लिए यौन शिक्षा की व्यवस्था भी सरकार को करनी होगी । हालांकि शहरी स्कूल के पाठ्यक्रमों में यौन शिक्षा पहले से ही मौजूद है।
भारत में अधिकतर लड़कियां रक्त अल्पतासे ग्रस्त हैं और कम उम्र में शादी और मां बनना उनकी नियति बन गई है। शिक्षा के माध्यम से इस अभिशाप को खत्म करना
एक अलग तरह चुनौती है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए मानव संसाधान विकास मंत्रालय ने अंबानी घराने की नीता अंबानी, सांसद सुप्रिया सुले, स्व. राजीव गांधी की
बेटी प्रियंका वाड्रा एवं सांसद कानिमोझी को दूत बनाया है। बेहतर होता यदि इन महिलाओं को बालिकाओं की बुनियाद मजबूत करने में किया गया होता । यदि
महिलाएं शिक्षित और जागरूक होगी, तो निश्चित रूप से देश मजबूत होगा।
रूबी सरकार

खामोशी से गायब होतीं बेटियां
- भारत में प्रति एक हजार बालकों में 933 बालिकाएं
- मध्यप्रदेश में प्रति एक हजार बालकों में 912 बालिकाएं
- छत्तीसगढ़ राज्य बेहतर एक हजार बालकों के पीछे 990 बालिकाएं


भोपाल। भारत में लड़कियों की जनसंख्या लड़कों के मुकाबले लगातार गिरता जा रहा है। विषम लिंग अनुपात से सामाजिक ढांचा बिगड़ने का खतरा मंडराने लगा है। 2005 में जहां लड़कियों की जन्मदर 33 फीसदी थी, वहीं 2005 में यह 31.9 फीसदी ही रह गयी है। मध्यप्रदेश में यह गिरावट लगातर जारी है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में अब एक हजार लड़कों के मुकाबले मात्र 912 लड़कियां ही रह गई हैं। भिंड, मुरैना, ग्वालियर और दतिया में यह स्थिति और भी भायावह है। मुरैना में 1000 लड़कों के पीछे 837 लड़कियां, भिंड में 832, ग्वालियर में 853 और
दतिया में यह मात्र 874 ही रह गई है। शहरी क्षेत्रों में यह गिरावट बहुत तेजी से बढ़ रही है। जबकि सुखद आश्चर्य यह है कि छत्तीसगढ़ पिछड़ा
राज्य होने के बावजूद यहां लिंगानुपात बहुत कम है। मध्यप्रदेश सरकार दावे के साथ कहती है कि लाडली लक्ष्मी योजना से लोगों के सोच में बदलाव आया है। सरकार के अनुसार अब समाज बेटियों को बोझ न मानकर इस योजना का लाभ ले रहे हैं, जिससे लिंगानुपात पहले के मुकाबले अब सुधारने लगा है।
24 सितम्बर को अंतर्राष्टÑीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाना है। लेकिन इसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मंदिर-मस्जिद विवाद का फैसला सुनाया जाना है, जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई हैं। लिहाजा केंद्र और प्रदेश सरकारें कानून व्यवस्था बनाए रखने की जद्दोजहद में जुटी हुई हैं। नतीजा यह है कि कहीं बेटियों के पक्ष में कोई आयोजन होने पर संदेह जताया जा रहा है। इस दिन स्कूलों एवं अन्य संस्थाओं में बेटियों को बचाने के लिए भरवाए जाने वाले शपथ-पत्र भी कानून व्यवस्था के चपेटे में आ सकता है। रस्मी आयोजनों की अनुमति को लेकर भी सरकार भी दुविधा में हैं। जाहिर है कि बेटियां इस समय सरकार की राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा नहीं है। बेटियों को बचाने के लिए सरकार के पास कोई समग्र दृष्टिकोण नहीं है। जिससे परिणाममूलक ढांचा खड़ा किया जा सके। विडम्बना यह है कि केंद्र के पास भी लिंगानुपात को रोकने के लिए कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है। 1994 में बनी पीएनडीटी एक्ट भी कन्या भ्रूण को सुरक्षित रखने में सफल नहीं है।
उत्तर केंद्र सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दूत के रूप में नीता अंबानी, प्रियंका गांधी वाड्रा, सुप्रिया सुले और कानीमोझी को नियुक्त किया है। ये महिलाएं शक्तिशाली पुरुषों की बेटियां या बीवीयां हैं। बेहतर होता अगर सरकार इनका उपयोग बेटियों को बचाने के लिए करे।
उत्तर, यूनिसेफ के अनुसार दो दशकों में पांच वर्ष की उम्र से पहले ही बच्चों की मौत होने के मामले में कोई खास कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्टÑ बाल कोष शाखा के मुताबिक 70 फीसदी बच्चों की मौत एक पहले साल में ही हो जाती है। अगर शिशु मृत्यु दर में कमी लाने की गति ऐसी ही रही, तो 2015 तक इसमें कमी लाने के लिए निर्धारित सहस्रादी विकास लक्ष्यों को हासिल कर पाना मुश्किल होगा।
रूबी सरकार