Saturday, June 24, 2023

Pani ki Baant jog rahe Batiyagarh ke gaun

  6 Feb 2018


SHG ko nahi mil rahi bank se sahayata

 9 Feb 2018


 15 Feb 2018


Parikshcha kendra gaun se 15 KM door

  28 Feb 2018


Pragatishil Kisan bhi hai kochewada gaun ki mahilaen

 


Congratulations! You are a winner of Laadli Media Awards!

 Congratulations! You are a winner of Laadli Media Awards!

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Population First laadlimediaawards@gmail.com

Tue, Aug 14, 2018, 2:18 PM
to me

Dear  Ms. Ruby Sarkar


I have great pleasure in informing you that your entry titled " Jameen Ke Patte Mile Toh Auraton Ne Dikhaya Jouhar" published in  Deshbandhu Bhopal India has been selected for The Laadli Media Awards for Gender Sensitivity 2017 in the News Report - Print Category. The Award event is being held at United Service Institute of India, Delhi on September 14, 2018

Please do not publicize this till the date of the event. 

We shall reimburse you the second class AC fare for your travel to Delhi and also provide you accommodation for the 14th night. Do reserve your ticket and keep us posted of your travel plans. The accommodation details shall be intimated shortly.

Request you to send your updated mailing address, if any. Kindly share with us a photograph of you for the brochure.  As we would also like to inform your editor to join us for the event, do share the contact details of your editor.

Congratulations once again! Hope to see you at the event.


Warm regards,

 Dr. A. L. Sharada

Director, Population First


Bhatak rahe Adivasi nahi mila muavja

 


                                                             Chawalal
                                                                         Jadon Adiwasi

                                                                              Halkeram


                                                                        Prem Singh 


माधव राष्ट्रीय उद्यान से विस्थापित आदिवासियों के परिवारों का दर्द
आयोग की अनुशंसा के बाद भी  नहीं मिला मुआवजा 
रूबी सरकार 
 शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान से सहरिया विशेष जनजाति  के लगभग 100 परिवारों को विस्थापित कर नया बल्लारपुर गांव में वर्ष 2000 में बसाया गया। भूमि अधिग्रहण कानून का पालन करते हुए 61 परिवारों को तो ज़मीन के पट्टे दिये गये, लेकिन बचे 39 परिवार 18 साल से दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। मुआवजे के नाम पर उन्हें मात्र 56 हजार रुपये दिये गये, इनमें 36 हजार मकान बनाने और 20 हजार ज़मीन को समतलीकरण के लिए। इन आदिवासियों को 10-10 बीघा ज़मीन के  पट्टे देने की बात तो सरकार कर रही है, लेकिन कब तक, इस बात की सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। शिवपुरी कलेक्टर का कहना है, कि राजस्व की भूमि है नहीं और वनभूमि को डी-नोटिफाइड कराने में समय लग रहा है। उसके उपरांत ही इन्हें ज़मीन के पट्टे मिलेंगे।  इन  परिवारों की आंखें टक लगाकर ह$क पाने की राह देखते- देखते कठोर और निश्चल हो चुके है। 
दो साल पहले  मार्च के महीने  में  राज्य मानव अधिकार आयोग के अधिकारियों ने यहां दौरा किया, तो   उनमें थोड़ी आस जगी  थी,  कि उनके आंसूं पोछने कोई तो आगे आया । लेकिन आयोग की स्पष्ट अनुशंसा के बाद भी उन्हें कुछ नहीं मिला। 
75 वर्षीय चहुंआलाल बताते हैं, कि विस्थापन के समय उनके पास लगभग 50 गाय थी, जो उनके आजीविका का एकमात्र साधान था, लेकिन चरनाई न होने की वजह से उन्होंने गायों को वहीं जंगल में छोड़ आया। चहुंआ दिव्यांग है , उसका बेटा आज दूसरों की ज़मीन पर बटाई पर काम कर रहा है, जिससे किसी तरह उसका गुजारा चलता है। उन्होंने कहा, मानव अधिकारों के हनन के लिए जब आयोग ने इन परिवारों को 2-2 लाख तथा जिनके परिवारों के मुखिया की मृत्यु टीबी व अन्य बीमारियों से  पत्थर खदानों (माइन्स) में  काम करने के कारण हुई है, उन्हें 5-5 लाख रुपये की अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि एक माह के भीेतर  देने की अनुशंसा की थी, तो सभी के अंदर एक खुशी की लहर दौड़ गई थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, हम सब मायूस होते गये। 
जादोन आदिवासी भी 75 साल पूरे कर लिये हैं। उनकी आंखों की ज्योति धीरे-धीरे जा रही है। पत्नी पहले ही गुजर चुकी हैं और एक ही बेटा है, जो उनसे अलग शहर में रह रहा है। मुआवजे की आस में जाधव ने बल्लारपुर नहीं छोड़ा । उसने कहा, कि जंगल की जड़ी-बूटी से अच्छी कमाई हो जाती थी। सफेद मुसली 5 हजार रुपये किलो, इसके अलावा तेंदु पत्ता, गोंद, महुआ आदि से अच्छी आमदानी हो जाती थी। अब तो नगद है ही नहीं। राशन से जो मिल जाये , उसी से गुजारा चलता है। 
हलके राम सहरिया को खदान में काम करते-करते तपेदिक हो गया है , वर्ष 2000 में विस्थापन के समय वह 18 साल का था, तभी से वह आजीविका के लिए खदान में काम करने लगा। धीरे-धीरे उसे कई बीमारियों ने जकड़ लिया। वर्तमान वह तपेदिक का इलाज एक निजी डॉक्टर से करवा रहा है।  अब तो एकदम बूढ़ा लगने लगा है। हलके ने बताया, 6 भाई-बहन और माता-पिता के साथ वह नया बल्लारपुर में बसने आया था। खदान में काम करते हुए सभी ने एक के बाद एक दम तोड़ दिया। अब तो केवल मेरे साथ एक बहन जिंदा है। शिवपुरी के ही दूसरे गांव की लडक़ी से उसकी शादी हुई, ससुराल वालों की मदद से उसकी जिंदगी की गाड़ी चल रही है। इन लोगों ने कहा, 5वीं बार वे  राजधानी आकर अधिकारियों  को अपनी व्यथा सुना रहे हैं, परंतु अधिकारियों की तरफ से सिर्फ आश्वासन ही मिल रहा है।  

दरअसल, राज्य मानव अधिकार आयोग की अनुशंसा में स्पष्ट रूप से सहरिया आदिवासियों के मानव अधिकार हनन का  उल्लेख है। आयोग ने ं वन विभाग को निर्देश दिये थे, कि जिन 39 परिवारों को ज़मीन के पट्टे नहीं मिले हैं, उन्हें एक माह के भीतर  मुआवजा और  कम से कम 2 हेक्टेयर ज़मीन उपलब्ध कराये जाये तथा 18 साल की अनुचित विलम्ब को देखते हुए आयोग ने अब तक की अवधि के लिए  9 फीसदी वार्षिक ब्याज दर से भुगतान देने को कहा था। 
 इधर वन विभाग ने  9 फीसदी वार्षिक ब्याज दर भुगतान की अनुशंसा को आधारहीन और अतिरंजित कह कर विराम लगा दिया। हालांकि वन विभाग की ओर से  वन भूमि संबंधित अनुमति प्राप्त करने के लिए वर्ष 2001 से लगातार प्रयास किये जा रहे हैं , अधिकारियों का मानना है, कि वैधानिक प्रक्रियाओं की जटिलता के कारण प्रकरण में विलम्ब हो रहा है । 

अपर मुख्य वन संरक्षक वन्यप्राणी आलोक कुमार ने बताया, वर्ष 2002 में माधव राष्ट्रीय उद्यान  प्रबंधन द्वारा ग्राम बलारपुर के 9 विस्थापित परिवारों केा वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध कराने के लिए इको विकास समिति के माध्यम से 53 हजार रुपये का ऋण स्वरोजगार स्थापित  करने के लिए दिया जा चुका है। 
उन्होंने कहा, कि विस्थापित सहरिया आदिवासियों के टीबी से ग्रसित होने को गलत प्रचारित किया जा रहा है। श्री कुमार ने  इसे निराधार एवं अनुचित बताया।  उन्होंने कहा, कि सिर्फ जमीन के पट्टे न मिलने के कारण आदिवासी पत्थर की खदानों में काम करने नहीं जाते, बल्कि जिनके पास ज़मीन है, वे भी खदानों में काम करने जाते हैं और केवल खदानों में काम करने से टीबी नहीं होता है, खान-पान, रहन-सहन भी इसके लिये जिम्मेदार है, इसीलिए इनके बच्चे अधिकतर  कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। 
 आलोक कुमार ने बताया, आदिवासियों को पट्टे देने का कार्य उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। राष्ट्रीय उद्यान  प्रबंधन द्वारा  ग्राम बल्लारपुर के  विस्थापित परिवारों के लिए पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भारत शासन  से अनुमति की कार्यवाही जारी है तथा अन्य भूमि पर पट्टे देने का अधिकार कलेक्टर से संबंधित है। दूसरी तरफ कलेक्टर का कहना है, कि वन विभाग की ओर से पहल हो, तो वे वैकल्पिक व्यवस्था करने को तैयार है। 
 विस्थापन स्थल के वन भूमि होने की जानकारी संज्ञान में आने के कारण पट्टे वितरण का कार्य रोक देने की बात करते हुए वन विभाग ने कहा है, कि  बिना अनुमति पट्टा वितरण जारी रखना वन संरक्षण अधिनियम 1980 का उल्लंघन है। 


आयोग पीडि़तों को विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा
 शिवपुरी दौरे में आयोग के अनुसंधान दल कलेक्टर  से मिले थे, कलेक्टर ने बताया था, कि  39 परिवारों को प्रतिकर राशि देने के संबंध में मध्यप्रदेश शासन की ओर से उन्हें कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुए है।   वे मौके पर जाकर 70 वर्षीय चऊवालाल पाल (पिता स्व. परसूपात पाल), 55 वर्षीय बिन्नूबाई (पति  स्व.  सोढू), 50 वर्षीय मनटोली (पिता श्याम आदिवासी ), 36 वर्षीय रामनिवास (पिता नानूराम भील और 32 वर्षीय मुकेश (पिता किशनलाल आदिवासी ) से मिले और  उनके कथन भी लिये, इन आदिवासियों ने अपने कथन में बताया, कि  शासन द्वारा पुराने बल्लारपुर के  जिन 100 परिवारों को विस्थापित कर नया बल्लारपुर में बसाया  , उनमें से 61 परिवारों को शासन द्वारा  पट्टे पर जमीन दी, जबकि  शेष 39 परिवारों को आज तक जमीन  के पट्टे नहीं मिले और न ही शासन  द्वारा उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकर राशि दी गई। विस्थापन के बाद आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे नहीं मिले । उनके पास आजीविका के कोई साधन न होने से वे पत्थर की खदानों में काम करने को मजबूर हुए । इस तरह परिवारों के मुखिया पुरुष सदस्यों की खदानों में कार्य करने से टीबी व अन्य संक्रमण हो गया और उनकी कम उम्र में मुत्यु हो गई। 
सहरिया विशेष जनजाति है, इसलिए उन्हें और उनकी संस्कृति को बचाये रखने के लिए आयोग ने इस मामले को गंभीरता से लिया और मौके पर जांच दल भेजकर वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद लगातार वन विभाग को मुआवजे के संबंध में अनुस्मारक पत्र भेजता रहा।  हालांकि वन विभाग आयोग की अनुशंसा मानने को बाध्य नहीं है। ऐसी   स्थिति में पीडि़तों केा कानूनी लड़ाई लडऩी पड़ेगी । इस सूरत में  आयोग विस्थापितों को विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा । आयोग की मंशा केवल इतना है, कि किसी के मानव अधिकारों  का हनन न हो ।

                                   अशोक कुमार मरावी
                                          निरीक्षक
                                       अनुसंधान दल
                                राज्य मानव अधिकार आयोग

Ptham Prawakta 16 Sep 2018



Mithila ki Himmat se Atmanibhar hua saraikheda gaun

 

Pci AWARD2019
Mithila


क्या मालवा-निमाड़ से भी चलेगी कैंसर एक्सप्रेस?

 

                                                                 Madanlal, Kasrawat

chandresh , kasrawat
Ishwar Patidar, Kasrawat

Sonu Jaysawal , Kasrawat


Vivek Rawal , Organization

Dr.Rakesh Patidar
16 Oct 2018

क्या मालवा-निमाड़ से भी चलेगी कैंसर एक्सप्रेस?
 रूबी सरकार 
पंजाब के बटिंडा से राजस्थान के बीकानेर तक चलने वाली अबोहर जोधपुर एक्सप्रेस यूं तो किसी भी सामान्य ट्रेन की तरह हो सकती थी, लेकिन पंजाब के हरे-भरे खेतों वाले इलाकों से जिस तादाद में लोग आचार्य तुलसी कैंसर संस्थान , बीकानेर  में अपनी जांच और इलाज करवाने के लिए इस ट्रेन से सफर करते हैं, उससे इस ट्रेन का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस हो गया है। जी हां , मध्यप्रदेश का मालवा-निमाड़ क्षेत्र जो अपनी उपजाऊ ज़मीनों के लिए जाना जाता था, अब कैंसर का घर बन चुका है। यहां से गुजरात के कैंसर अस्पतालों को जाने वाली बसें इसकी गवाह है। 
इस सेवा के संचालकबताते हैं, कि पहले बस सीधे अहमदाबाद के लिए जाती थी, लेकिन सारे यात्री बड़ोदरा के बाघेडिया धीरज अस्पताल तक ही सफर करते थे और वहां पहुंचते ही पूरी बस खाली हो जाती थी, इसलिए पहली बार 2013 में एक विशेष बस खरगोन से सिर्फ धीरज कैंसर अस्पताल तक के लिए  शुरू की गई, लेकिन मरीजों की संख्या धीरे-धीरे इतनी बढ़ गई, कि दूसरी विशेष बस चलानी पड़ी। यात्रियों की सुविधा के लिए बस पर ही खरगोन से धीरज अस्पताल लिखवा दिया गया है। 
ऐसी ही एक बस में सफर कर रहे कुछ मरीजों से इस संवाददाता ने बातचीत की। भील गांव की राधा बहन ने बताया, कि वह खेतों में अपने पति के साथ काम करती है, लेकिन अब उसका शरीर साथ नहीं देता। 10 साल पहले उसकी आंखों और शरीर में जलन शुरू हुई, जिसका इलाज उसने पहले महेश्वर  और फिर बड़वानी के डॉक्टरों से  करवाया । जब आराम नहीं मिला, तो किसी  की सलाह पर वह धीरज कैंसर अस्पताल पहुंची । वहां के डॉक्टरों ने तमाम जांच के बाद बच्चेदानी में गठान  बताया। कुछ समय तक लगातार राधा खरगोन से बड़ौदा फॉलोअप के लिए जाती रही। थोड़ा आराम भी मिला, लेकिन पैसे खत्म हो गये, तो उसने इलाज के लिए जाना बंद कर दिया।  अब जब दोबारा तकलीफ बढ़ी, तो इलाज के लिए उसे जाना पड़ रहा है। इसी तरह ढाबा गांव के जगदीश मीणा को कीमो थैरेपी के लिए धीरज अस्पताल हर 21 दिन के बाद जाना पड़ता है। कसरावद के महेन्द्र वर्मा  का तो दो महीने पहले मुंह के कैंसर का ऑपरेशन हुआ है। इसी तरह 62 वर्षीय रमेश सिंह राठौर का 2011 में धीरज अस्पताल  में ही पेट के कैंसर का ऑपरेशन हुआ है। अधिकतर समय खेत में बिताने वाले भगवान सिंह राठौर तो अब लगभग बिस्तर पर ही हैं। उनका मर्ज तो ठीक-ठीक पकड़ में भी नहीं आ रहा है। 
बस में यात्रियों को बैठाने वाला सोनू जायसवाल बताता है, कि वर्ष 2013 से वह यह काम कर रहा है। उसने कहा, गनीमत यह है, कि मेरी मां धीरज अस्पताल से इलाज के बाद ठीक हो गई, जबकि कई मरीजों की तो इलाज के दौरान ही मौत हो गई। सोनू ने बताया, पिछले 5-6 सालों से वह यही काम कर रहा है। उसने कहा, धीरे-धीरे मरीजों की बढ़ती संख्या को देखकर ऐसा लगता है, कि पंजाब की तरह यहां भी कहीं ट्रेन न चलानी पड़े । उसने कहा, कि उसे दुख तो बहुत होता है, लेकिन उसे यह नहीं मालूम , कि आखिरी कैंसर होता क्यों है।  डॉक्टर इलाज तो करते है, पर यह नहीं बताते, कि आखिर मरीज बढ़ क्यों रहे हैं। 
द रिसर्च ट्रायल इन्टीट्यूट ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर (एफआईबीएल)के कृषि विशेषज्ञ ईश्वर पाटीदार ने बताया, कि दरअसल  खेतों में लगी फसलों को इल्लियों, कीड़ों-मकोड़ों या तना-छेदक और चूसक कीटों या नींदा  से बचाने के लिए किसान द्वारा कीटनाशक या नींदानाशक और यूरिया का जो इस्तेमाल हो 

रहा हैं, वह न केवल वातावरण को प्रदूषित कर रहा है, वरन् सांसों के जरिये इंसान के शरीर में जाकर उसे कैंसर की ओर धकेल रहा है। खेतों में रसायन  का  प्रयोग पूरे मालवा-निमाड़ में इतना बढ़ गया है, कि अब इससे बच पाना लोगों के लिए मुश्किल होता जा रहा है। 
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र कसरावद के डॉ. राकेश पाटीदार इस क्षेत्र में कैंसर के प्रभाव अधिक होने के बारे में बताते हैं, कि किसान अधिक उपज के लिए खेती में बेतहाशा विषैले रसायनों का प्रयोग करते हैं। दूसरी तरफ बीटी कपास क ी वजह से भी लोग आंखों और चर्म रोगों से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। चर्म रोग तो अब दवा से भी ठीक नहीं हो रहा है। ऊपर से स्थानीय लोगों के पुरज़ोर विरोध के बावजूद एक निजी खाद कंपनी को यहां कारखाना लगाने की  अनुमति देकर सरकार ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। फर्टीलाइजऱ कंपनी की वजह से ज़मीन का पानी  पूरी तरह दूषित हो चुका है। 
वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. चंद्रेश बताते हैं, कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में आने वाले 99 फीसदी मरीज फंगल इन्फेक्शन से पीडि़त होते हैं, जिन पर अब दवा भी असर नहीं करती। डॉ चंद्रेश कैंसर जैसी बीमारियों के पीछे रासायनिक खादों, कीटनाशक,नींदानाशक,अंकुरण-नाशक और फफूंद-नाशक दवाओं को ही जिम्मेदार मानते हैं। उन्होंने कहा, कि पहले कैंसर जैसी बीमारी गांवों की तुलना में शहरों में अधिक पाई जाती थी, क्योंकि शहर का हवा,पानी, भोजन, रहन-सहन को इसके  लिए जिम्मेदार माना जाता था, लेकिन अब शहर और गांव में कोई विशेष अंतर नहीं रह गया है। शहरों में पहले से आई बीमारियां अब गांवों में भी उतनी ही मात्रा में व तेजी से फैल रही हैं।  
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विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 5 कृषि रसायनों को कैंसर का कारण माना
मेंरे  पास 600 हेक्टेयर जमीन हैं , जिसपर मैं जैविक खेती करता हूं। टीकरी विकास खण्ड (बड़वानी) के आस-पास के लगभग गांव पूरी तरह से बायो डायनेमिक और जैविक खेती करते हैं।  लोगों को कैंसर से बचाने के लिए सरकार को जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए और रासायनिक खेती को पूरी तरह बंद कर देना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विभीषिका की तरह फ़ैल रहे कैंसर रोग का दोषी कुल 5 कृषि रसायनों को माना है। ये सब रसायन सारे पश्चिमी देशों में प्रतिबंधित हो चुके हैं, लेकिन भारत में अभी भी धड़ल्ले से बिक रहे हैं।   किसान अधिक उपज की लालच में इसके चपेट में आ रहे हैं । जिसका दुष्परिणाम कैंसर के रूप में देखने को मिल रहा है। यहां तक कि वही रसायन पीकर किसान आत्महत्या तक कर रहे हैं। 
 दूसरी तरफ मिश्रित खेती के बंद होने से जो विविधता की हानि हुई है, उसकी पूर्ति नहीं हो सकती। कपास में पैसा आ गया, पर दालें ख़त्म हो गईं। गरज यह , कि प्रोटीन के अभाव में हमारी खाद्य सुरक्षा तो खतरे में आ गई। खरगोन ही नहीं बड़वानी के राजापुर से भी बस भरकर लोग कैंसर के इलाज के लिए बड़ौदा- अहमदाबाद जा रहे हैं। 

                                      मदनलाल
                                          अध्यक्ष
                                    बायो रि एसोसिएशन
                                         अजन्दी गांव
                                    टीकरी विकास खण्ड    
                                          बड़वानी
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आखिर हम किस दौर में जा रहे
जैविक कपास के उत्पादन में पूरी दुनिया में मध्यप्रदेश पहले नम्बर पर है। हालांकि इसका रकबा सरकार की उदासीनता के चलते लगातार कम होता जा रहा है। किसान क्वालिटी के बजाय क्वान्टिटी पर ज़ोर दे रहे हैं। वे ज्यादा से ज्यादा उत्पादन लेना चाहते हैं। इस होड़ में हर किसान रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगे हैं। नतीजतन इस इलाके में लगभग 70 फीसदी से ज्यादा किसान कैंसर से पीडि़त हो गये हैं। बहुत दुखद और शर्म की बात है, कि खरगोन से धीरज अस्पताल के लिए दो-दो विशेष बस चलाई जा रही हैं।  
                                          विवेक रावल
                                      सीईओ और निदेशक
                                      बायो रि इण्डिया लिमिटेड 
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झूठ फैलाया जा रहा है
 रासायनिक और बीटी की खेती से किसान प्रभावित हो रहे हैं। यह सिर्फ कोरी कल्पना है, कि रासायनिक खाद और कीटनाशक से किसान बीमार नहीं हो रहे हैं, बल्कि बीमार होने के कई अन्य कारण है।  इसके बारे में अध्ययन होने चाहिए। रासायनिक और कीटनाशक से बीमार होने का भी कोई अध्ययन आज तक नहीं हुआ है और न ही इस तरह के कोई आंकड़े उपलब्ध हैं। 
                                       डॉ. राजेश राजौरा 
                                            प्रमुख सचिव 
                            किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग 





टिकाउ खेती से बच सकती है किसान की जेब और जान

                             5 nov 2019


महिलाएं नहीं पहनतीं अपनी बुनी हुई साडि़यां

 


भेडिय़ों से बचकर आई बेटी अग्रि परीक्षा देने को मजबूर

 


3 JANUARY 2019

भेडिय़ों से बचकर आई बेटी अग्रि परीक्षा देने को मजबूर 
 रूबी सरकार 
 बैतूल से लगभग 35 किलोमीटर दूर माकड़ा गांव के कोरकू समुदाय की  10वीं पास 17 वर्षीय किशोरी देविका दो माह पहले तक दिहाड़ी मजदूरी पर कटाई के लिए सुबह ट्रेन से होशंगाबाद जाती और देर रात वापस लौटती थी। एक दिन अचानक वापसी में उसका मोबाइल फोन गुम गया। उसने घर पर किसी को नहीं बताया और अगले दिन अपने नम्बर पर फोन लगाया। उधर से किसी पुरुष की आवाज़ आई, जिसने उससे कहा, फोन उसके पास है, जब वह मिलेगी, तो वह फोन वापस कर देगा। अगले दिन दो लड़के देविका को उसका फोन वापस देने की बात कहकर उसी ट्रेन में मिले, लेकिन फोन वापस करने के बजाय उससे इधर-उधर की बातें करने लगे। धीरे-धीरे उन लड़कों ने उसे झांसे में ले लिया और दीपावली के दिन देविका के गांव आकर उससे कहा, कि मेरी मां तुमसे मिलना चाहती है, चलो तुम्हे उनसे मिलवाकर वापस छोड़ देंगे। देविका उनकी बातों में आ गई और किसी को बिना बताये उन लड़कों के साथ चल दी। जब लड़कों ने उसे ट्रेन में बिठाया, तब वह डर गई और घर वापस लौटने की जि़द करने लगी। उस वक्त लड़कों ने न जाने उसे क्या खिला दिया , कि वह बेहोश हो गई। जब उसे होश आया, तो वह कूनी (राजस्थान)पहुंच चुकी थी। उसके बाद तो उसे एक घर में बंद कर दिया गया, जहां से भागने का कोई रास्ता ही नहीं था।  देविका समझ गई, कि वह अगवा हो चुकी है। उसे पता चला, कि  दोनों आपस में मामा -भांजा हैं और घर पर एक औरत भी है। दोनों लड़कों में से एक का नाम पवन था, जो लगातार 22 दिनों तक देविका से दुष्कर्म करता रहा। एक दिन उसे पता चला, कि उसे 2 लाख रुपये में नागौर जिले के लाडपुर  में मुन्नूराम को बेच दिया गया है। अब  मुन्नूराम ने उसे यह कहकर  बंधक रख लिया, कि तुम्हारी शादी अपने बेटे से करायेंगे। लगभग एक माह बीत चुका था, लेकिन न तो वह देविका की शादी करवा रहा था और न ही उसे आज़ाद कर रहा था। इस बीच एक दिन मुन्नूराम उसे एक शादी समारोह में ले गया, जहां उसने सूझ-बूझ दिखाते हुए एक औरत से अपने पिता शांताराम से बात करने के लिए फोन की मांग की और जैसे ही उसे फोन मिला , उसने तुरंत अपने पिता को फोन लगाकर अपने साथ हुई ज्यादतियों के बारे में बताया। तुरंत स्थानीय थाने पहुंचा, लेकिन उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। निराश होकर वह बैतूल पुलिस अधीक्षक के पास पहुंचा और पूरी कहानी बताई। पुलिस अधीक्षक ने आरोपियों को पकडऩे और देविका को बरामद करने पुलिस की एक टीम को  तुरंत राजस्थान में दबिश दी और देविका को बरामद कर वापस बैतूल ले आये। लेकिन आरोपी फरार हो गये। 
 बैतूल पहुंचकर देविका  को पता चला, कि इन लड़कों का यही धंधा है। ये लड़कियों को अपनी जाल में फंसाकर उसे राजस्थान और हरियाणा में बेचने का काम करते हैं। उसने कहा, उसका फोन तो मिला नहीं, उल्टे पायल और बिछिया भी पवन ने उतार लिये। 
बहरहाल, अब गांव में शांताराम का परिवार अलग-थलग है। जब जात पंचायत नहीं बैठेगा, तब तक इस परिवार का हुक्का-पानी बंद रहेगा। न ही उसके यहां कोई चाय-पानी पीने आयेगा और न ही वह गांव के हैण्डपम्प या कुंए से पानी ले पायेंगे। शांताराम बताते हैं, कि जात पंचायत में कम से कम 50 हजार का खर्च आयेगा। इसके लिए उसे कर्ज लेना पड़ेगा। 

महिला सशक्तीकरण के लिए इस कुप्रथा को रोकना ही होगा
इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए लगातार 7-8 सालों से जात पंचायत के बुजुर्ग, ग्राम सभा और महिलाओं के बीच बातचीत चल रही है। खासकर उन लोगों से जो निर्णायक की भूमिका में होते हैं।  इस तरह की प्रथा आदिवासी रीति-रिवाजों में भी नहीं हैं। हम लोगों ने यह भी कहा है, कि इस तरह के मामले ग्राम सभा में जाना चाहिए। 
अगर महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो इस तरह की पंचायत में महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता। जबकि समाज के भीतर व बाहर आदिवासी महिलाएं ज्यादा सशक्त मानी जाती हैं। यहां महिलाएं आज़ाद है और इस तरह की व्यवस्थाएं उन्हें पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ओर धकेलने का प्रयास करती है तथा महिलाओं को आगे बढऩे से रोकती है।  लगातार बातचीत का नतीजा है, कि बैतूल जिले के कुछ आदिवासी महिलाएं इस कुप्रथा का विरोध भी करने लगी है। इनमें शशिकलाबाई का नाम उभर कर सामने आया है, जिन्होंने पंचायत में सवाल उठाये थे। इस तरह की प्रक्रिया किसी भी महिला के अधिकार और उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती है। 
जहां तक लड़कियों की खरीद-$फरोक्त का सवाल है, तो इसके लिए ग्राम सभा और प्रदेश सरकार से पैरवी की जा रही है, कि लड़कियों को पढ़ाई और रोजगार गांव में ही मिले। वह स्वयं तय करें, कि वे क्या करना चाहती हैं। तभी महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिल सकता है। 
इस कुप्रथा को आने में लम्बा समय लगा और इसे दूर करने में भी लम्बा समय लगेगा। लेकिन उम्मीद है, कि धीरे-धीरे यह समाप्त होगा। इसके लिए समुदाय के भीतर और बाहर दोनेां स्तरों पर बात चल रही है। 

                                   रेखा गुजरे
                                    प्रदीपन संस्था
                                        बैतूल   
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क्या है जात पंचायत 
अन्य समाज के साथ शारीरिक संबंध होने पर कोरकू समाज लड़की और उसके परिवार को अशुद्ध मानता हैं। जब लड़की स्वयं अपनी गलती स्वीकार करती है और कहती है, कि वह अपने सामाजिक रीति-रिवाज से पंचायत की बात से सहमत है, तब गांव के बुजुर्ग कोई तिथि निश्चित करती है। उस दिन लड़की को नदी के पास ले जाया जाता है, जहां एक गड्ढा खोदकर उसमें लड़की को खड़ा कर दिया जाता है। फिर उसके ऊपर घास-फूस की एक झोपड़ी बनाई जाती है और उसमें आग लगा दी जाती है। जब थोड़ी बहुत आग लड़की के बालों को छूने लगती है, तो उसे वापस निकालकर नदी में स्नान करवाया जाता है और लड़की पानी में खड़े होकर अपनी गलती मानकर माफी मांगती है । उसके बाद वह अपने सारे गीले वस्त्र वहीं नदी किनारे छोड़कर शुद्ध कपड़े पहनती है। यह सारी प्रक्रिया भूमका (पंडित) की उपस्थिति में होता है। इसके बाद पूरे गांव वालों को उनकी मांग के अनुसार सामूहिक भोज करवाया जाता है। तब जाकर कहीं लड़की पुन: अपने जात में शामिल हो पाती है। 


खुद समाज से तिरस्कृत होने के बावजूद अनाथ बेटियों को अपनाया



22 JANUARY 2019

खुद समाज से तिरस्कृत होने के बावजूद अनाथ बेटियों को अपनाया 

्ररूबी सरकार 
 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किन्नरों को 'थर्ड जेण्डरÓ की मान्यता दिये जाने के बावज़ूद समाज उनकी उपेक्षा और तिरस्कार करता है। लेकिन इसके विपरीत किन्नर समुदाय, समाज के प्रति कृतज्ञता भाव रखता है । वह सभ्य समाज द्वारा बदनामी के डर से छोड़ दी गई या सड़क किनारे फेंक दी गई बेटियों को भी अपना लेता है। 
ऐसी ही एक किन्नर गुरू सुरैया हैं, जिन्होंने 4 बेसहारा बच्चियों को गोद लेकर न केवल उसकी भलीभांति परवरिश की, बल्कि उनमें से दो की धूम-धाम से शादी भी करवाई। 
सुरैया भोपाल स्थित मंगलवारा किन्नर समुदाय की गुरू हैं। उनका सौ लोगों का बड़ा परिवार है, जिनका पूरा खर्चा दान से चलता है। बावजूद इसके उन्होंने  4 अनाथ बच्चियों को गोद लिया। जिनमें से दो बच्चियों की शादी करा चुकी हैं और बच्चियों के भी अपने परिवार बन गये हैं।   बा$की दोनों बच्चियां अभी छोटी हैं। एक नर्सरी में तथा दूसरी 6वीं में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कर रही हैं। सुरैया बताती हैं, पूरी कानूनी कार्रवाई के बाद उन्होंने बच्चियों को गोद लिया है। एक वाकया सुनाते हुए उन्होंने कहा, कि एक बार किन्नर सम्मेलन में भाग लेने वह दिल्ली गई थी, लौटते वक्त ट्रेन में एक पुलिस वाले ने गोद में बच्ची देखकर उसे पकड़ लिया और पूछा- किसका बच्चा चुराकर भाग रही हो। ट्रेन के सारे यात्री इकट्ठा हो गये थे। अफरा-तफरी का माहौल बन गया था। काफी बहस के बाद जब उन्होंने पुलिस को गोद लेने के सारे कागज़ात दिखाये, तब जाकर उन्हें छोड़ा। 
सुरैया कहती हैं, कि बिना सरकारी मदद के अपने दान में मिले पैसे से बच्चियां जितना पढऩा चाहे, उन्हें पढ़ायेंगी। सुरैया एक बेटी को डॉक्टर और दूसरी को न्यायाधीश बनाना चाहती हैं। बेटी अल्फिया और आलिया ने भी मां की बात पर सहमति व्यक्त करती हैं। हंसते हुए सुरैया कहती हैं, कि  हमारे समाज में खुद को आकर्षक दिखाने की होड़ में   कपड़े और ज़ेवरों के लिए बहुत पैसे खर्च करने पड़ते है। फिर भी समाज से मिले हुए दान का कुछ हिस्सा हमलोग कमजोर और उपेक्षित वर्ग के लिए भी खर्च करते हैं। उन्होंने कहा, यूं तो दान देकर कहा नहीं जाता,लेकिन आपको जानना है, इसलिए बता रही हूं। मैंने दो बेटियों की शादी में अन्य सामग्रियों के साथ दोनों को दो मकान भी खरीद कर दिये हैं, जिससे वे अपने छत के नीचे सुख से रह सके।  सुरैया कभी-कभार अनाथ आश्रमों ,अस्पताल, स्कूलों  में जाकर जरूरतमंदों की मदद करती हैं। जबकि आय पहले से बहुत घटी है।  पहले लोग खुशी-खुशी दान देते थे, अब ऐसा नहीं है। महंगाई की मार हम पर भी पड़ी है। लोग हमें देखकर दरवाजा बंद कर देते हैं। 
मंगलवारा किन्नर समाज की बसाहट पर वह बताती हैं, कि हमें गोण्ड राजाओं ने यहां बसाया था। कई पीढिय़ों से हम यहां रह रहे हैं। 50 वर्षीय सुरैया कहती हैं, उनका पूरा परिवार  इसी शहर में रहता हैं, लेकिन किन्नर समुदाय में शामिल होने के बाद वे अपने परिवार से कभी नहीं मिलीं।
 दया और ममता से भरी हुई सुरैया अपने समाज को पढ़ा-लिखा और आत्मनिर्भर बनाना चाहती हैं।  उन्होंने कहा, किसी की इच्छा है, तो वह खूब पढ़े, आत्मनिर्भर बनें, लेकिन ऊॅचे पद पर पहुंचकर सिर्फ अपने परिवार की नहीं, बल्कि पूरे किन्नर समाज का भला करे, उन्हें आत्मनिर्भर बनाये ।                  (सुरैया नायक से हुई बाातचीत के आधार पर)      

घटते शिशु लिंगानुपात ने बढ़ाई चिंता


 

                    9 Feb 2019

घटते शिशु लिंगानुपात ने बढ़ाई चिंता 

 सामाजिक संगठनों ने की संसदीय फोरम बनाने की मांग  
रूबी सरकार
 जनगणना 2011 के बाद जारी सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे और सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम दोनेां सरकारी स्रोतों ने राज्यों में जन्म के समय लड़कियों की संख्या में महत्वपूर्ण गिरावट दिखाई है। वर्ष 2012 से 16 के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों के अनुसार जिन राज्यों में जन्म के समय लिंग अनुपात में गिरावट देखी गई है, उनमें मध्यप्रदेश के अलावा आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल भी शामिल हैं। 
सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) ने पिछले 10 सालों में मध्यप्रदेश में 0 से 6 वर्ष आयु वाले बालकों के मुकाबले बालिकाओं की संख्या में वर्ष 2009 में कुछ सुधार आया था। इस वर्ष एक हजार बालकों के मुकाबले 938 बालिकाएं दर्ज की गई थी, लेकिन वर्ष 2010 में यह संख्या घटकर 922 हो गई। वहीं वर्ष 2011 में यह चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई। एक हजार बालकों के मुकाबले मात्र 897 बालिकाएं ही दर्ज की गई। वर्ष 2012 में कुछ सुधार के साथ 912 और  फिर वर्ष 2013 में बालिकाओं की संख्या घटकर 904 रह गई। इसी तरह वर्ष 2014 में लिंगानुपात 908, वर्ष 2015 में 904 और वर्ष 2016 में कुछ सुधार के साथ 909 दर्ज की गई है। इससे साफ ज़ाहिर है, कि शिशु लिंगानुपात 2021 की जनगणना में बालिकाओं के पक्ष में नहीं होगा, अगर आने वाले वर्षों में भी यही प्रवृत्ति बनी रही, तो  0-6 आयु वर्ग में प्रति हजार बालकों के मुकाबले 909 बालिकाओं से भी अनुपात नीचे चला जाएगा।  बेटियों के पक्ष में कानून और कई सरकारी योजनाओं के बावजूद बेटियों के मुकाबले बेटों की चाह समाज के लगभग सभी वर्गों और जातियों में बढ़ रहा हैं। इसके अलावा दहेज निषेध अधिनियम, महिलाओं के लिए सम्पत्ति का अधिकार (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम), घरेलू हिंसा अधिनियम के खराब क्रियान्वयन, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के साथ-साथ 2 बच्चों की मानक शर्त ने बालिकाओं की स्थिति में गिरावट में अहम योगदान दिया है। साथ ही इस तरह की सोच से  पितृसत्तात्मक मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। 
 लैंगिक समानता के लिए काम करने वाला संगठन गल्र्स काउण्ट के समन्वयक रिज़वान बताते हैं, कि जन्म के समय लिंग अनुपात में गिरावट  गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि यह अन्य कई कारकों के अलावा सीधे लिंग का पता लगाने में सक्षम तकनीक के दुरुपयोग से जुड़ा है। पहले लिंग परीक्षण और फिर लिंग आधारित समापन का पूरा संचालन गोपनीयता में किया जाता है। दम्पत्ति पहले यह पता लगाने के लिए  भुगतान करते हैं, कि क्या एक्स-वाई या एक्स-एक्स है और फिर एक्स-एक्स को खत्म करने के लिए डॉक्टरों को और अधिक भुगतान करते हैं। लड़कियों के प्रति यह भेदभावपूर्ण व्यवहार पिछले दो दशकों में अनियमित तकनीक तक आसान पहुंच के कारण काफी बिगड़ गया है। इसलिए मध्यप्रदेश में जन्म के समय गिरते लिंग अनुपात को ठीक करने के लिए पीसीपीएनडीटी एक्ट को कड़ाई से लागू कराना होगा।  पीसीपीएनडीटी अधिनियम के दायरे में लिंग निर्धारण की सभी तकनीक आती हैं, जिसमें  नवीनतम क्रोमोसोम पृथक्ककरण तकनीक भी शामिल है और यह कानून लिंग के खुलासे पर रोक लगता है। 
स्वी रोग विशेषज्ञ डॉ. नीलम सिंह ने अपनी चिंता को साझा करते हुए कहा, सरकार ने पिछले साल वर्षों में पीसीपीएनडीटी अधिनियम के कुछ नियमों में संशोधन कर बड़े पैमाने पर क्लिनिकल प्रैक्टिस में उभर रहे नए रूझानों का सामना किया है और क्लीनिकों को अनुशासित किया है जिन्होंने नियम से बचने के लिए नए तरीके खोज रखे थे। दूसरी ओर , चिकित्सा पेशेवरों ने देश में कानून की विभिन्न अदालतों में रिट याचिकाएं दायर करके पीसीपीएनडीटी अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है और कई बार गर्भवती महिलाओं को प्रसव पूर्व सेवाओं से वंचित करने की हद तक राज्य की कार्रवाई का भी विरोध किया है। 
वन बिलियन राइजिंग भारत के समन्वयक आभा भैया ने कहा, कि समस्या की तात्कालिकता और विशालता को देखते हुए घटते शिशु लिंगानुपात पर एक संसदीय फोरम की तत्काल आवश्यकता है, जिसमें जेंडर क्रिटिकल जिलों के सांसदों और विधायकों को शामिल किया जाना चाहिए। सदस्यों का मुख्य कार्य अपने जिलों में पीसीपीएनडीटी अधिनियम, दहेज, घरेलू हिंसा अधिनियम जैसे विधानों के कार्यान्वयन की बारीकी से निगरानी के लिए एक तंत्र विकसित करना चाहिए। सांसदों और विधायकों को जन्म के समय गिरते लिंगानुपात और इससे सभी संबंधित महत्वपूर्ण कारकों, पहलुओं जैसे की महिलाओं और लड़कियों की आर्थिक सशक्तीकरण, कौशल विकास, सुरक्षा, गतिशीलनता, आजीविका, सम्पत्ति का अधिकार, माध्यमिक शिक्षा के आगे सतत शिक्षा और सरकारी योजनाओं के पुनर्गठन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे और प्रशिक्षित  कर्मियों के साथ प्रभावी तंत्र स्थापित करना सुनिश्चित करना चाहिए। आदर्श रूप से फोरम में सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित कर एक पब्लिक-प्राइवेट दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 
 अधिवक्ता वर्षा देशपाण्डे ने कहा, कि संसदीय मंच को जल्द से जल्द स्थापित किया जाना चाहिए क्योंकि महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ भेदभाव का मुद्दा बहुत गहरा है और इसे सांसदों और विधायकों की प्रतिबद्धता के बिना संबोधित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा, कि देश की लड़कियों के लिए सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने में सभी को एक साथ आने और एकमत होने की आवश्यकता है। यह बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं बयान से आगे बढऩे का  समय है। 

 


Friday, June 23, 2023

National Award for excellence in Journalism 2018 PCI, Ruby Sarkar

National Award for excellence in Journalism 2018 PCI


भोपाल गैस त्रासदी के 34 वर्ष बाद भी पीडि़तों को न्यायालय व सरकारों से न्याय नहीं मिला न्याय

 भोपाल गैस त्रासदी के 34 वर्ष बाद भी पीडि़तों को न्यायालय व सरकारों से न्याय नहीं मिला न्याय

अप्रैल 2019 में सर्वोच्च न्यायालय में होगी सुनवाई
 Feb 5, 2019
रूबी सरकार
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने  28 जनवरी, 2019 को भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन और भोपाल गैस पीडि़त सहयोग संघर्ष समिति की वह याचिका जो मई 2004 एवं वर्ष 2010 से लंबित था, को सुनने की रजामंदी दी है। इस तरह लगभग 14 वर्ष से लंबित 5 गुना मुआवजे की याचिका पर ही सुनवाई ही नहीं हुई है । इस बीच 2010 में मुआवजा प्रकरण में तत्कालीन भारत सरकार भी शामिल हो गई थी, उसके द्वारा एक कैरिटिव पीटिशन सर्वोच्च न्यायालय में लगाई गई थी । अब यह सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में अप्रैल 2019 में होगी।  
भोपाल गैस त्रासदी के 3 दशक 4 वर्ष पश्चात् भी गैस प्रभावितों को मुआवजा, इलाज तथा दोषियों को दंड दिए जाने के लगातार सरकार से मांगों न्यायालय में लगातार दायर जनहित याचिकाओं के उपरांत भी गैस प्रभावितों को न्याय नहीं मिला है । गैस त्रासदी के प्रभावितों में से लगभग 35 हजार से अधिक प्रभावितों की मौत हो चुकी है और लगभग एक लाख से अधिक प्रभावित गंभीर बीमारियों अर्थात फेफड़ों, किडनी, लीवर की बीमारियों को भुगत रहे हैं । लगभग 3 लाख लोग निरंतर बीमार बने हुए हैं, इनमे गैस त्रासदी के पश्चात् पैदा हुए बच्चों और उन पर गैस के दुष्प्रभावों की जानकारी नहीं है अलग -अलग वैज्ञानिक संस्थाओं ने यह चिंता जाहिर की है, कि गैस त्रासदी के बाद पैदा हुई संतानों में गैस के दुष्प्रभाव हुए है तथा उन पर निगरानी किये जाने की आवश्यकता है। किन्तु राज्य एवं केंद्र सरकारों ने इनके निगरानी के ठोस उपाय नहीं किये हैं । परिणामस्वरूप गैस पीडि़त बच्चों में तरह-तरह की विकलांगता पैदा हो रही है। शरीर के किसी अंग का काम नहीं करना तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की बड़ी संख्या हैं। 
भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन तथा अन्य ने 1998 में बेहतर इलाज के लिए एक जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की थी। लम्बे सुनवाई के अंतराल के बाद 9 अगस्त 2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक विस्तृत आदेश अपने अंतिम निर्णय में दिया था जिसमें गैस प्रभावितों के न केवल इलाज, बल्कि उनके शोध तथा भोपाल मेमोरियल के  सुधार के व्यापक आदेश देते हुए इलाज के प्रकरण को उच्च न्यायालय जबलपुर को सौंप दिया गया था। 2012 से उच्च न्यायालय इलाज व्यबस्था की निगरानी कर रहा है तथा इसके व्यवाहरिक और सूक्ष्म अमल के लिए एक निगरनी कमेटी का गठन किया गया है। जिसे मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के सेवा निवृत न्यायमूर्ति वी के अग्रवाल देख रहे हैं। उनके द्वारा न्यायालय को प्रस्तुत की गई 20 से अधिक रपटों पर भी केंद्र सरकार के परिवार एवं स्वास्थ मंत्रालय तथा मध्यप्रदेश सरकार के गैस राहत और पुनर्वास विभाग ने भी अमली कार्यवाही में गंभीर रुख नहीं अपनाया है। निरंतर दवाब होने के बाद  भी गैस राहत विभाग तथा बीएमएचआरसी चिकित्सालय में कोई व्यापक ठोस सुधार नहीं हुए हैं ।इस सबसे त्रस्त आकर भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन ने राज्य और केंद्र सरकार के अधिकारीयों के विरुद्ध न्यायालय की अवमानना का मामला उच्च न्यायालय के समक्ष दायर किया है । बावजूद इसके राज्य तथा केंद्र सरकार के सम्बन्धित अधिकारी निडर बने हुए है तथा उन्हें कोई परवाह गैस पीडि़तों के प्रति नहीं है । लगभग 34 वर्ष  बाद भी गैस पीडि़तों को उनके बीमारियों को लेकर चिन्हित नहीं किया गया है अर्थात बीमारी अनुसार उनका वर्गीकरण अब तक नहीं हुआ है ।
वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद तथा मध्य प्रदेश में कमलनाथ के सत्ता संभालने के बाद भी दोनों सरकारों ने गैस प्रभावितों के किसी भी पक्ष पर चर्चा नहीं की है । 
मध्यप्रदेश सरकार के पास गैस प्रभावितों के इलाज के साथ- साथ आर्थिक सामाजिक व पर्यवार्नीय पुनर्वास की जवाबदेही है ।अब तक राज्य सरकार ने इस सम्बन्ध में गंभीर रुख नहीं अपनाया । आर्थिक पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार द्वारा 2010 में 104 करोड़ रूपये की राशि का प्रावधान किया गया था, किन्तु वह राशि भी अन्यंत्र उपयोग की जा रही है । संगठन के अब्दुल जब्बार ने कहा, कि इस सम्बन्ध में गैस राहत विभाग के मंत्री आरिफ अकील को तुरुन्त हस्तक्षेप करने तथा उस राशि का आर्थिक पुनर्वास में व्यय करने का अनुरोध किया है।  
 
गौरतलब है, कि सर्वोच्च न्यायालय ने अब्दुल जब्बार व शाहनवाज खान  द्वारा दायर उस अपील याचिका को निरस्त कर दिया है, जिसमें भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोतीसिंह व एस पी श्री स्वराजपुरी को यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भोपाल से षड्यंत्र कर वापस भगाने में वर्ष 2010 में सामने आये तथ्यों के आधार पर भोपाल से भागने का एक मुकदमा मुख्य न्यायधीश सीजेएम भोपाल के समक्ष जून 2010 में उस समय दायर किया गया था, जब यूनियन कार्बाइड के शेष अधिकारीयों को 2 वर्ष की सजा सुनाई गई थी । उपरोक्त मुकदमा 31 अगस्त 2018 को उच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया था। इसी मामले को लेकर जनवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला दायर किया गया था। 
उल्लेखनीय है, कि 2 और 3 दिसम्बर 1984 की रात को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने के टैंक से रिसी 40 टन मिथाइल आयसोसायनेट (एमआईसी) गैस , जो एक गम्भीर रूप से घातक ज़हरीली गैस है, उसके कारण एक भयावह हादसा हुआ। कारखाने के प्रबंधन की लापरवाही और सुरक्षा के उपायों के प्रति गैरजि़म्मेदाराना रवैये के कारण एमआईसी की एक टैंक में पानी और दूसरी अशुद्धियां घुस गईं, जिनके साथ एमआईसी की प्रचंड प्रतिक्रिया हुई और एमआईसी तथा दूसरी गैसें वातावरण में रिस गईं। ये जहरीली गैसें हवा से भारी थीं और भोपाल शहर के करीब 40 किलोमीटर इलाके में फैली 56 वार्डों में से 36 वार्डों में इसका गंभीर असर हुआ। इसके असर से (कई सालों में) 20,000 से ज़्यादा लोग मारे गए और लगभग साढ़े 5 लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा। उस समय भोपाल की आबादी लगभग 9 लाख थी। यूनियन कार्बाइड कारखाने के आसपास के इलाके में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर हुआ असर भी उतना ही गम्भीर था। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड उस समय यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के नियंत्रण में था, जो अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी है औऱ बाद में डॉव केमिकल कम्पनी (यूएसए) के अधीन रहा। अगस्त 2017 से डॉव केमिकल कम्पनी (यूएसए) का ईआई डुपोंट डी नीमोर एंड कंपनी के साथ विलय हो जाने के बाद यह अब डॉव-डुपोंट के अधीन है।

सूझ-बूझ से घर वापस लौटी देविका को सता रहा जात पंचायत का डर




 
Fri, Feb 15, 2019

सूझ-बूझ से घर वापस लौटी देविका को सता रहा जात पंचायत का डर

 रूबी सरकार 
 बैतूल से लगभग 35 किलोमीटर दूर माकड़ा गांव की 10वीं पास 17 वर्षीय किशोरी देविका (कोरकू)करीब दो माह पहले दिहाड़ी मजदूरी पर कटाई के लिए सुबह ट्रेन से होशंगाबाद जाती और देर रात गये वापस लौटती थी। एक दिन अचानक घर वापसी में उसका मोबाइल फोन गुम हो गया। उसने घर पर किसी को नहीं बताया और अगले दिन अपने नम्बर पर फोन लगाया। उधर से किसी पुरुष की आवाज आई, जिसने उससे कहा, फोन उसके पास है, जब वह मिलेगी, तो वह फोन वापस कर देगा। अगले दिन दो लड़के देविका को उसका फोन वापस करने उसी ट्रेन में मिले, लेकिन फोन वापस करने के बजाय उससे इधर-उधर की बातें करने लगे। धीरे-धीरे उन लड़कों ने उसे झांसे में ले लिया और दीपावली के दिन देविका के गांव आ गये तथा उससे कहा, कि मेरी मां तुमसे मिलना चाहती है, चलो तुम्हे मां से मिलाकर घर वापस छोड़ देंगे। देविका उनकी बातों में आ गई और किसी को बिना बताये उन लड़कों के साथ चल दी। जब लड़कों ने उसे ट्रेन में बिठाया, तब वह डर गई और घर वापस लौटने की जि़द करने लगी। उस वक्त लड़कों ने न जाने उसे क्या खिला दिया , कि वह बेहोश हो गई। जब उसे होश आया, तो वह कूनी (राजस्थान)पहुंच चुकी थी। उसके बाद तो उसे एक घर में बंद कर दिया गया, जहां से भागने का कोई रास्ता ही नहीं था।  देविका समझ गई, कि वह अगवा हो चुकी है। उसने बताया, कि वहां उसे पता चला, कि  दो लड़के मामा -भांजा हैं और घर पर एक औरत भी है। दोनों लड़कों में से एक का नाम पवन था, जो उसके साथ लगातार 22 दिनों तक दुष्कर्म करता रहा। एक दिन उसे पता चला, कि उसे 2 लाख रुपये में नागौर जिले के लाडपुर  में मुन्नूराम को बेच दिया गया है। अब  मुन्नूराम ने उसे यह कहकर  बंधक बनाकर रखा, कि तुम्हारी शादी अपने बेटे से करायेंगे। लगभग एक माह बीत चुका था, लेकिन न तो वह देविका की शादी करवा रहा था और न ही उसे आजाद कर रहा था। इस बीच एक दिन मुन्नूराम उसे एक शादी समारोह में ले गया, जहां उसने सूझ-बूझ दिखाते हुए एक औरत से अपने पिता शांताराम उइके से बात करने के लिए फोन की मांग की और जैसे ही उसे फोन मिला , उसने तुरंत अपने पिता को फोन लगाकर अपने साथ हुई ज्यादतियों के बारे में बताया। तुरंत स्थानीय थाने पहुंचा, लेकिन उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। निराश होकर वह बैतूल पुलिस अधीक्षक के पास पहुंचा और पूरी कहानी बताई। पुलिस अधीक्षक ने आरोपियों को पकडऩे और देविका को बरामद करने पुलिस की एक टीम को  तुरंत राजस्थान में दबिश दी और देविका को बरामद कर वापस बैतूल ले आये। लेकिन आरोपी फरार हो गये। 
 देविका  ने बताया, कि वहां पहुंचकर उसे पता चला, कि इन लड़कों का यही धंधा है। ये लड़कियों को अपनी जाल में फंसाकर उसे राजस्थान और हरियाणा में बेचने का काम करते हैं। उसने कहा, उसका फोन तो मिला नहीं, उल्टे पायल और बिछिया भी पवन ने उतार लिये। 
बहरहाल, अब गांव में शांताराम का परिवार अलग-थलग है। जब जात पंचायत नहीं बैठेगा, तब तक इस परिवार का हुक्का-पानी बंद है। न ही उसके यहां कोई चाय-पानी पीने आयेगा और न ही वह गांव के हैण्डपम्प या कुंए से पानी ले पायेंगे। शांताराम बताते हैं, कि जात पंचायत में कम से कम 50 हजार का खर्च आयेगा। इसके लिए उसे कर्ज लेना पड़ेगा। 
क्या है जात पंचायत 
अन्य समाज के साथ शारीरिक संबंध होने पर कोरकू समाज उस लड़की और उसके परिवार को अशुद्ध मानते हैं। जब लड़की स्वयं अपनी गलती महसूस करती है और कहती है, कि वह अपने समाजिक रीति-रिवाज से पंचायत की बात से सहमत है, तब गांव के बुजुर्ग कोई तिथि निश्चित करती है। उस दिन लड़की को नदी के पास ले जाया जाता है, जहां एक गड्ढा खोदकर उसमें लड़की को खड़ा करके घास-फूस की एक झोपड़ी बनाई जाती है और उसमें आग लगा दिया जाता है। जब थोड़ी बहुत आग लड़की के बालों को छूने लगती है, तो उसे वापस निकालकर नदी में स्नान करवाया जाता है और लड़की पानी में खड़े होकर अपनी गलती मानकर माफी मांगती है । उसके बाद वह अपने सारे गीले वस्त्र वहीं नदी किनारे छोड़कर शुद्ध कपड़े पहनती है। यह सारी प्रक्रिया भूमका (पंडित) की उपस्थिति में होता है। इसके बाद पूरे गांव वालों को उनकी मांग के अनुसार सामूहिक भोज करवाया जाता है। इसके बाद वह पुन: अपने जात में सम्मिलित होती है। 


 

ग्रामीण महिलाओं को भी चाहिए सेनिटरी पैड वेंडिंग मशीन


Apr 22, 2019 Pratham Prawakta Magazine Delhi

 ग्रामीण महिलाओं को भी चाहिए सेनिटरी पैड वेंडिंग मशीन  

रूबी सरकार 
 माहवारी को लेकर जागरुकता का अभाव है, जो स्वास्थ्य से संबंधित कई समस्याओं कारण बनता है। अक्सर इस विषय पर समाज में खुलकर बात नहीं की जाती। किशोरी बालिकाएं तो इस पर बोलने से झिझक होती हैं । खासतौर से ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं में इसे लेकर कई तरह की भ्रांतियां  हैं। यही वजह है, कि ग्रामीण इलाकों में अब तक सेनिटरी पैड के इस्तेमाल को लेकर बहुत कम जागरुकता है। हालांकि इसके पीछे एक कारण सेनिटरी पैड की लागत भी है। ग्रामीण इलाकों में रहने वाली हर महिला इसका खर्च नहीं उठा सकती। 
माहवारी पर भ्रांतियां खत्म करने के उद्देश्य से स्वच्छता अभियान के तहत महात्मा गांधी सेवा आश्रम  नेशनल स्टॉक एक्सचेंज और वाटर एड के सहयोग से प्रदेश के कुछ चुनिंदा जिलों जैसे- अनूपपुर, उमरिया, शहडोल, सिवनी, छिंदवाड़ा और खण्डवा में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय की किशोरियों के साथ माहवारी के साथ-साथ जल, और स्वच्छता जागरूकता अभियान चला रहा हैं । जिसके अंतर्गत किशोरियों को हाथ धोने से लेकर माहवारी में सेनिटरी पैड इस्तेमाल की भी जानकारी दिया जा रहा है। 
अनूपपुर जिले का विकास खण्ड पुष्पराजगढ़ स्थित कस्तूरबा छात्रावास लखवारा की उत्प्रेरक किरण सिंह बताती है, कि बहुत मुश्किल से एक छात्रा ने अपनी बात साझा करते हुए बताया था, कि उसके घर पर मां , दीदी माहवारी में पुराने कपड़ों का इस्तेमाल पैड के रूप में करती हैं। यहां तक कि एक ही कपड़े का इस्तेमाल उन्हें बार-बार करना पड़ता है, जिसे वे घोकर अंधेरे कमरे में छिपाकर सूखाती हैं, ताकि उन कपड़ों पर किसी की नज़र न पड़े।  किरण ने बताया, यही हाल अन्य बालिका छात्रावासोंं का है। इन छात्रावासों में अधिकतर अनुसूचित जाति व जनजाति की बालिकाएं हैं।   किरण ने बताया, हमने लड़कियों को सेनिटरी पैड इस्तेमाल और  उस कचरे के भण्डार से शरीर को संक्रमण और बीमारियों से बचाने और उसके सुरक्षित निपटारे का प्रशिक्षण भी लड़कियों को दिया। क्योंकि छात्रावासों में भस्मीकरण (इंसीनरेटर) मशीन नहीं है, जिससे अपशिष्ट  को जलाया जा सके और उसके बड़े भाग को राख व धूएं में बदला जा सके, जो पर्यावरण के लिए एक बड़ा संकट बनती है। 
इसी विकासखण्ड में स्थित खिलजी रोड कस्तूरबा गांधी बालिका छात्रावास की उत्प्रेरक दीपा श्रीवास्तव बताती हैं, कि गांव में 5वीं तक की पढ़ाई के बाद लड़कियां माहवारी के चलते आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पातीं। 13 वर्षीय निहारिका गुप्ता ने बताया, कि उसके साथ 5वीं में 20 लड़कियां थी, उनमें से मात्र 11 लड़कियों ने ही 6वीं में दाखिला लिया। दीपा ने बताया, शुरू में उसे लड़कियों का झिझक मिटाने में बहुत समय लगा। फिर एक तरकीब निकाली, कि खेल-खेल के ज़रिये लड़कियां अपनी बात पर्ची पर बिना नाम लिखे बतायें। इस तरह पर्ची पढ़कर हम समाधान बताने लगे। जिसकी जो समस्या थी, वे समझ जाती थी। इस तरह धीरे-धीरे वह खुलने लगी। 
खण्डवा जिले के हरसूद विकास खण्ड के छनेरा के छात्रावास अधीक्षिका बताती है, कि छात्रावास में बालिकाएं पहले शौचालय का उपयोग नहीं करती थीं, न ही सफ ाई का ध्यान रखती थी। इसी तरह से सेनिटरी पैड को बाथरूम में ही डाल देती थी। हालांकि इस अभियान के बाद अब परिस्थितियां बदल गयी है, बालिकाओं में शौचालय उपयोग को लेकर समझ विकसित हुई है।  
लेकिन कक्षा 8वीें की छात्रा ज्योति बताती है, कि घर के स्तर पर अभी भी समस्या है। जैसे- घर में मां या बड़ी बहन कपड़े का ही उपयोग करती हैं और कपड़ा भी धोने के बाद घर में अंधेरे में सुखाती हैं। हम यहां की जानकारी घर पर बताते हैं, तो वह सुनती नहीं हैं। छात्रावास में हमें पैड मुफ्त में मिल जाती है, परंतु गांव में कहां मिलेगी। रेलवे स्टेशन की तरह गांव के पंचायतों में भी सेनिटरी पैड वेंडिंग मशीन लगानी चाहिए, जहां से हमें 5 रुपये में पैड मिल जाये। वरना ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं में सेनिटरी पैड के इस्तेमाल को लेकर यूं ही बहुत कम जागरुकता है। ऊपर से इसकी लागत भी ज्यादा है, जिसे ग्रामीण इलाकों में रहने वाली हर महिला इतना खर्च नहीं उठा सकती । इसलिए ग्रामीण महिलाएं हमेशा इन खतरों की जद में रहती हैं। 
अभियान के समन्वयक अनिल गुप्ता ने बताया, कि जल और स्वच्छता के लिए बनाये गये मोड्यूल के 6 अध्यायों में सुरक्षित पेय जल का उपयोग व रख-रखाव, शौचालय का उपयोग,  व्यक्तिगत स्वच्छता, हाथों की स्वच्छता, ठोस व तरल कचरा प्रबंधन तथा मल से मुख तक के संक्रमण मार्ग व बीमारियां की जानकारी दी जाती है। इसी तरह से माहवारी स्वच्छता प्रबंधन में व्यवहार परिवर्तन के लिए भी मोड्यूल बनाया गया था, जिसके 6 अध्यायों में माहवारी के सम्बन्ध में मिथक एवं भ्रांतियां, किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन, माहवारी का उचित प्रबंधन, माहवारी स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं पोषण, उपयोग में लायी गयी पैड या कपड़े का सुरक्षित निपटान (जिसमें गड्ढा खोदकर उसे जला देना शामिल है), विद्यालयों तथा  छात्रावासों में माहवारी स्वच्छता संबंधी व्यवस्थाओं पर जागरूक किया जाना शामिल हैं।