Saturday, September 16, 2023

पति बॉर्डर पर तो पत्नी मध्यप्रदेश में बढ़ा रहीं महिलाओं का हौसला

 





पति बॉर्डर पर तो पत्नी मध्यप्रदेश में बढ़ा रहीं महिलाओं का हौसला

रूबी सरकार  

परवरिश  संभ्रांत परिवार मे, शादी हुई वह भी बड़े परिवार में, पति कर्नल राजा दीक्षित, एक बेटी, फिर भी भोपाल की दीपा दीक्षित को  लगता था कि उसके जीवन में कुछ छूट रहा है। उन्होंने सीलीगुड़ी के आर्मी स्कूल, हरियाणा में क्रिकेटर वीरेंद्र सहबाग द्वारा स्थापित  स्कूल के अलावा भोपाल में संस्कार बैली के साथ ही  15 सालों तक देश  के अनेक बड़े स्कूलों, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में भी शिक्षक और प्राचार्य तक रहीं , फिर भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी। क्योंकि इन्हीं स्कूलों में काम करते हुए जब समुदाय के बीच जाती थी तो वहां एक ही कमरे में दो-तीन कक्षा के बच्चों को पढ़ते हुए देखती थीं। कई स्कूलों में  कमरे के उपर छत नहीं होता था। यह असमानता दीपा को खलने लगी और उनकी बेचैनी बढ़ती गई। जब दीपा की बच्ची बड़ी होकर स्कूल जाने लगी, तब उन्हें लगा कि अब समाज के लिए कुछ करना चाहिए।  जिससे असमानता, भेदभाव  कम हो और उनके जीवन में कुछ बदलाव आए। दीपा कहती हैं कि वे पति के साथ-साथ देश के जिस कोने में गई, वहां उन्होंने गरीबी-अमीरी, महिला-पुरुष के बीच असमानता व भेदभाव को देखा। जिससे उन्हें बहुत तकलीफ होती थी।

भोपाल वापस आई तो यहां भी करीब-करीब वही दृश्य देखने को मिला । उन्होंनें पति से इस पर चर्चा की । पति राजा दीक्षित की श्रीनगर बार्डर पर पोस्टिंग और बेटी दिल्ली में उच्च शिक्षा  के लिए जाने के बाद दीपा ने खाली समय में स्लम्स में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगी। उन बच्चों को पढ़ाने के दौरान उनकी पहचान  स्लम्स में रह रहीं हुनरमंद महिलाओं से हुई।  कला पारखी दीपा ने देखा कि स्लम्स की महिलाओं में जबरदस्त हुनर हैं, वे घर पर बैठकर जरदोजी का काम करती हैं और बिचौलिए आकर उन्हें थोडे पैसे देकर उनका आर्ट ले जाते हैं और बाजार में उसे चे दामों में बेचते हैं।

डसने सोचा क्यों न इनकी कला को प्रोत्साहित किया जाए। जिससे उनकी आजीविका में सुधार आए। इन्हें इनके काम का ऊचित दाम मिले।  बाजार में इन कलाकारों केा कोई नहीं जानता।  पहले झिझक थी, फिर हिम्मत जुटाकर उनसे बात की, तो पता चला कि संसाधन की कमी के कारण वे बिचौलियों पर निर्भर हैं। दीपा ने अपनी जमापूंजी लगाकर उनके लिए कच्चा सामान खरीद कर उन्हें उपलब्ध कराया। इसके बाद उनके तैयार किए सामनों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए शो रूम्स और सरकारी विभागों से पहल की। इस तरह जरूरतमंद महिलाएं दीपा के साथ जुड़ती चली गईं और दीपा का रागिनी फाउंडेशन का आकार बढ़ता चला गया। महिलाओं को उनके काम का अच्छा दाम मिलने लगा। एक-एक आइटम पर दो सौ से तीन सौ रुपए का फायदा होने लगा। वह आत्मनिर्भर बन रही थी और दीपा की ख्याति फैल रही थी। अब दीपा भोपाल से बाहर भी उनके लिए बाजार ढूंढ़ने लगी। उन्होंने राज्य एवं भारत सरकार के साथ-साथ कई निजी कंपनियों से अनुबंध कर ग्वालियर-चंबल इलाके की महिलाओं के बाजार तैयार करने लगी। वह महिलाओं से बैग, फोल्डर, सोविनियर, कपड़े, गिफ्ट आइटम तैयार करने के लिए कार्यशालाएं की।

दीपा कहती हैं कि अब उसे खाली समय में सार्थक काम करने का बहुत बड़ा मकसद मिल गया। इन दिनों वह सिर्फ महिलाओं के हूनर को ही प्लेटफॉर्म नहीं देती, बल्कि किशोरियों का जीवन भी संवार रही हैं। दीपा ने सरकार के सहयोग से किशोरियों को आत्मनिर्भर बनाने के अलग-अलग प्रोफेशन के लिए उन्हें प्रशिक्षण दे रही हैं। इसके लिए उन्हें कई स्वयंसेवकों का साथ मिला। जो अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। दीपा एक साथ तीन परियोजना पर काम कर रही हैं। पर्यटन विभाग के साथ मिलकर वह ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा दे रही हैं। गांव में पर्यटकों के ठहरने के लिए ग्रामीणों को होम स्टे का प्रशिक्षण दे रही हैं। अब तक पर्यटकों के लिए मुरैना जैसे जिले में 15 होमस्टे तैयार हो चुका है। इसकेे अलावा फॉरेस्ट गार्ड के लिए किशोरियों का प्रषिक्षण जारी है। मध्यप्रदेष के माधव नेशनल पार्क में कुछ लड़कियों को गार्ड की नौकरी भी मिल चुकी है।

ग्वालियर-चंबल में काष्ठकला, पेंटिंग्स आदि कई विधाओं में उनका  प्रशिक्षण देने का काम अनवरत चल रहा है। कई किषोरियों का प्लेसमेंट भी हो चुका है। अब तक प्रशिक्षण प्राप्त कर करीब पांच सौ अधिक महिलाएं और किशोरियां आत्मनिर्भर बनी हैं। दीपा कहती है कि जब गांव की लड़कियां फॉरेस्ट गार्ड बनकर यूनिफॉम में मध्यप्रदेश के जंगल व जानवरों की सुरक्षा करती हैं या चंबल के मिलावती कस्बे में ग्रामीण परिवारों के घर पर आकर कनाडा के पर्यटक होम स्टे करते है और ग्रामीण परिवार अतिथि देव भवः की संकल्पना को ध्यान में रखकर उनकी सेवा करते हैं तब गर्भ  महसूस करती हूं। लगता है कि हमें जिस काम के लिए ईश्वर ने धरती पर भेजा , शायद मैं उसे कुछ हद तक पूरा कर पा रही हूं। यह सोच और सेवा सभी को नसीब नहीं होती।

इतना ही नहीं, दीपा का फाउंडेशन के प्रयास से ग्वालियर -चंबल में घरेलू हिंसा से लेकर महिलाओं से संबंधित कई अपराधों में कमी आई है। लोगों को काम मिलने लगा, तो अपराध में कमी आने लगी। किशोरियों को आत्मरक्षा के गुर सिखाने के बाद उनके विरूद्ध छेड़छाड़ व अन्य अपराधों में कमी आई।

Amrit Sandesh 10 september 23




जिस मालगाड़ी से बंदेलखंड में कभी पानी आता था अब उसी से चावल की हो रही सप्लाई

 



जिस मालगाड़ी से बंदेलखंड में कभी पानी आता था
 अब उसी से चावल की हो रही सप्लाई


रूबी सरकार


 चित्रकूट-बांदा जिला कभी डाकूओं और अपराधियों के लिए कुख्यात था। लेकिन अब चित्रकूट-बांदा ही नहीं, बल्कि पूरे बुंदेलखंड में अपराधियों की संख्या घटी है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका सर्वोच्च लोक सम्मान से सम्मानित पद्मश्री उमाशंकर पाण्डेय  का है, जिन्होंने कई दशकों तक इस क्षेत्र में जल संरक्षण का काम किया। उमाषशकर बांदा जिले का एक गांव जखनी, के रहने वाले हैं। पहले तो इन्होंने सूखे जखनी  को खेत में मेड़़ बंधान कर जलग्राम बनाया। इसके बाद सूखे के लिए बुंदेलखंड के किसानों को  प्रशिक्षण देकर न केवल वहां समुदायों की आजीविका में सुधार लाए, बल्कि अपराध और पलायन को भी रोकने में सफलता हासिल की। पाण्डेय को समुदाय के साथ जुड़कर काम करने की प्रेरणा अपनी मां सुमित्रा देवी से मिली। वे बताते हैं कि जिस मालगाड़ी से कभी बुंदेलखंड में पानी की सप्लाई की जाती थी।  आज उसी मालगाड़ी से बासमती चावल की सप्लाई पूरे देश में हो रही है।

दरअसल स्वतंत्रता सेनानी के परिवार में जन्मे  उमाशंकर पाण्डेय को युवावस्था में मां ने किसी बात पर डांटते हुए कहा था, कि जीवन में कुछ नया करना चाहते हो, तो पहले अपना गांव घूम लो। यहां के लोगों से मिलने के बाद मां ने मशहूर बांदा जेल में अपराधियों से मिलने की सलाह दी थी। मां के कहने पर उमाशंकर गांव व जेल दोनों  जगह गए । उन्होंने देखा कि गांव में 58 फीसदी घरों में ताले जड़े हुए थे और जेल के कैदियों जखनी वालों की संख्या अधिक थी। वापस आकर  उन्होंने अपने मां से दोनों जगहों की बात साझा की और प्रश्न किया कि ऐसा क्यों है?  मां ने इसके जो कारण बताए, उससे उमाशंकर की जीवन की दिशा ही बदल गई। उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि गांव में रहकर ग्रामीणों की जिंदगी में सुधार लाना है। उनकी आजीविका में सुधार लाने के लिए  खेती-किसानी को बढ़ावा देने के अलावा उस समय दूसरा और कोई रास्ता नहीं था।  कृषि ही एक मात्र उपाय है, जो इंसान का पेट भरता है।  इससे पलायन और युवाओं को अभाव के चलते अपराधी बनने से रोका जा सकता है।
आजीविका सुधारने के लिए उस वक्त एक ही उपाय था कि गांव की जमीन को उपजाउ बनाया जाए। उन्होंने भमि सुधार के अंतर्गत ग्रामीणों को उबड़-खाबड़ जमीन को समतल  करना सिखाया। इसके बाद खेतों में मेड़़ बंधान के लिए ग्रामीणों को प्रेरित किया। यह श्रमसाध्य काम था। हालांकि यह पुरखों की विधि है। लेकिन  बड़े किसान ही कोल समुदाय के सहयोग से यह कर पाते थे। क्योंकि कोल समुदाय को इस काम में सिद्धहस्त प्राप्त था, जो बड़े किसानों के खेतों में मजदूरी करते थे। उमाषशंकर ने श्रमदान के जरिए किसानों को खेतों में मेड़ बनाना सिखाया, जिससे खेतों में नमी आने लगी। मिट्टी में सूक्ष्म जीव पलने लगे, इससे भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ गई । जब परिणाम सामने आने लगे, तब उन्होंने नारा दिया 'खेत में मेड़़ और मेड़़ में पेड़' , बस क्या था।  धीरे-धीरे पूरे गांव में हरियाली लहलहाने लगी।  भूमि के कटाव के कारण मृदा  के पोषक तत्व  खेत से बह जाते थे, अब वह रुकने लगा। पशुओं को चारा मिलने लगा। किसान मेड़़ पर  बेल, सहजन, सागौन, करौदा, अमरूद,नींबू जैसे फलदार और छायादार औषधि के पेड़ लगाने लगे। खेतों में धान व गेहूं का उत्पादन इतना बढ़ गया कि भारत सरकार ने भी इस गांव को मॉडल गांव के रूप में स्वीकर किया और निर्णय लिया कि देश में मनरेगा के अंतर्गत ग्रामीणों को मजदूरी देकर मेड़़ बंधान करवाया जाए। इससे ग्रामीणों को दोहरा लाभ मिलेगा।
उमाशंकर के प्रयास से बिना प्रचार-प्रसार के मेड़़बंदी विधि डेढ़ लाख से अधिक गांव तक पहुंच गई। जलशक्ति व ग्रामीण विकास मंत्रालय, नीति आयोग ने इस परंपरागत जल संरक्षण विधि को उपयुक्त माना । ग्रामीणों ने मनरेगा के अंतर्गत जल सहेजने के लिए कुंआ,तालाब, बांध, बड़े-बड़े जलाशय बनाना शुरू कर दिए । अब जखनी में पानी से लबालब भरे बड़ी दाई तालाब, रद्दू बाबा तालाब, रसिया तालाब, गड़रिया तालाब, नरसिंह तालाब, बड़ा तालाब और जखनिया तालाब अपने आप में बसंत सा मौसम बयां करते हैं। बढ़ता जलस्तर जखनी के किसानों की हिम्मत की कहानी है।
मंगल पाण्डेय फाउंडेशन के सचिव उमाषशंकर कहते हैं, कि जल सहेजने का एक ही सिद्धांत है कि जहां वर्षा की बूंदे गिरे उसे वहीं रोके। इस विधि से केवल भूजल स्तर ही नहीं बढ़ता, बल्कि लाखों खेत के जीव-जंतु को पेड़ पौधों को पीने के लिए पानी मिलता है। खेत से फसल लाने के लिए पुरखों की यह सबसे पुरातन जल संरक्षण विधि है, जो परंपरागत के साथ सामुदायिक है। सुलभ है, बगैर किसी तकनीकी मशीन , शिक्षण, प्रशिक्षण के कोई भी किसान नौजवान मजदूर खुद अपनी मेहनत से अपने खेत में इस विधि से जल संरक्षण कर सकता है।  'खेत में मेड़़, मेड़़ पर पेड़' इस विधि के कारण भारत वर्ष में जलग्राम जखनी को जाना जाने लगा है। यह मेड़़ बंधान केवल खेतों तक ही सीमित नहीं है, इसे बड़े-बड़े उद्योगिक घरानों ने भी अपनाया है। उमाषशंकर द्वारा शुरू किए गए इस परंपरागत प्रयास से बुंदेलखंड में रवि और खरीफ का रकबा बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार जिस गांव में कभी 200 बीघे में सामान्य धान  होता था, वहां 1000 बीघे में धान होने लगा है। इसी तरह गेंहू की उपज में भी काफी वृद्धि हुई है।
समुदाय की आजीविका सुधारने के लिए समुदाय के साथ मिलकर अथक प्रयासों से उमाषशंकर पाण्डेय ने जो प्रयास किए, उसके लिए भारत सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च लोक सम्मान 'पद्मश्री' से सम्मानित किया है। पाण्डेयजी कहते हैं कि पानी, पेड़ और मिट्टी के लिए बिना थके, बिना रूके डटे रहना ही उनके जीवन का उद्देश्य है।

  Amrit Sandesh 03 semtember 23




मध्य प्रदेश में गांवों की तस्वीर पलट रहा सामुदायिक रेडियो

 




मध्य प्रदेश में गांवों की तस्वीर पलट रहा सामुदायिक रेडियो

रूबी सरकार

मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में बैगाभीलसहरियागोंडभारिया और कोरकू जैसी जनजातियों के अपने सामुदायिक रेडियो हैंजिन पर ये अपनी ही बोली-भाषा में कार्यक्रम बनाते और प्रसारित करते हैं। लोकगीतलोक-कहानियांभजन से लेकर कविताएं और राजनीतिक परिचर्चा तक इन बोलियों में होती है। दिलचस्प यह कि इनके कार्यक्रमों को सुना भी खूब जाता है।

दरअसल भारत सामुदायिक विविधता वाला देश है। इसलिए सीमित क्षेत्र विशेष में उनकी भाषा में जानकारी पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम आज भी रेडियो बना हुआ है। इससे वहां क्षेत्र विशेष के कलाकारों को उनकी भाषा में बात करने वालों को काम मिलता है। ं गांव में  प्रचार-प्रसार और जागरूकता फैलाने का बहुत बड़ा माध्यम रेडियो है। बच्चों के टीकाकरण हो या अन्य स्वास्थ्य संबंधी जानकारीषिक्षाविकास और रोजगार की बातेंउन्नत कृषि की जानकारी सब कुछ रेडियों रूपक के माध्यम से दी जाती है। इससे समुदाय का जुड़ाव भी होता है।

हुआ यह कि 1991 के बाद उदारीकरण के दौर में कुछ बड़ा और विराट करने के चक्कर में रेडियों को खूंटी पर टांग दिया गया था और उसके बदले कई अन्य माध्यम सामने आ गए थे। जिसे समाज ने हाथों-हाथ लियालेकिन समय बीतने के साथ-साथ समुदाय व सरकार दोनों को महसूस होने लगा कि एक बड़ा वर्ग जानकारी के अभाव में पीछे छूट रहा है। तब दोबारा से रेडियों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास शुरू हुआ।

 मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ का छोटा-सा गांव गडवाड़ा के आदिवासी आज रेडियो की आवाज से जागते हैं। यहां महान क्रांतिकारी टंट्या मामा के नाम पर सामुदायिक रेडियो शुरू हुआ , जिस पर यहां की स्थानीय भीली बोली में कार्यक्रम प्रसारित होते हैंजिन्हें आदिवासी बड़े चाव से सुनते हैं।

 इसी तरह बैतूल जिले के चिचोली में गुनेश मरकाम और साथी मिलकर गोंड भाषा में कार्यक्रम बनाते और प्रसारित करते हैं। इस रेडियो केंद्र के कारण  आसपास के 20 से अधिक गांवों के लिए किसी सुपरस्टार से कम नहीं हैं।

माखन पुरम  में कर्मवीर सामुदायिक रेडियो केंद्र 90.0 एफएम शुरू

इसी कड़ी में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने पहल करते हुए अपने नए परिसर माखनपुरम  में सामुदायिक रेडियो कर्मवीर का प्रसारण   प्रारंभ कर दिया है। विश्वविद्यालय के कुलगुरु  प्रो डाॅ केजी सुरेश का  मानना है कि सामुदायिक रेडियो कर्मवीर आसपास के क्षेत्रों में बदलाव लाने का एक माध्यम होगा । प्रो सुरेश कहते हैं इसके जरिए गांवकस्बो के लोगों तक पहुंचा जा सकता है ,उनके सुख-दुख में भागीदार बन सकते हैं। रेडियो कर्मवीर में सुबह 9 से 12 बजे तक विविध कार्यक्रम प्रसारित किए जाएंगे। जो विश्वविद्यालय के विद्यार्थी तैयार करेंगे। कंटेंट में ग्रामीणों की भी भागीदारी रहेगी।

उन्होंने कहा कि ये रेडियो भोपाल के शहरी इलाकों के साथ साथ गोरेगांवबिशनखेड़ीमुगलिया छापनीलबड़रातीबड़ सहित कई अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में भी सुना जा सकेगा। सरकारी ग्रामीण विकास की योजनाओं के प्रति जागरूक करने में ये रेडियो चैनल अहम भूमिका निभाएगा। प्रो. . सुरेश के अनुसार‘विद्यार्थियों के माध्यम से जल्द ही ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता कार्यक्रम भी आयोजित किए जाएंगेजिनके माध्यम से यह जानकारी भी ली जाएगी कि ग्रामीण किस तरह के रेडियो कार्यक्रम सुनना पसंद करते हैं।

इससे जहां माखन पुरम के आस-पास के ग्रामीण अपने में सिमटे-सिमटे रहते थेअब सामुदायिक रेडियो कर्मवीर के कारण दुनिया-जहान के समाचार सुन पाएंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मन की बात के साथ-साथ सरकारी योजनाओं की जानकारी भी उन्हें मिलेगी। योजनाओं को समझ कर उनके लिए आवेदन करेंगे और उन्हें लाभ पहुंचाने में विद्यार्थी उनकी मदद करेंगे। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण और विद्यार्थियों के बीच एक संवाद स्थापित होगा।

फिलहाल मप्र में केवल जनजातीय क्षेत्रों में ही नौ सामुदायिक रेडियो केंद्र हैं। इनमें आदिवासी बहुल जिला डिंडौरी के चाडा में बैगा रेडियोधुर नक्सली जिला बालाघाट के बैहर में बैगा सामुदायिक रेडियोधार के नालछा में भील रेडियोझाबुआ के मेघनगर में भील सामुदायिक रेडियो व गडवाड़ा गांव में टंट्या मामा रेडियोआलीराजपुर के भाभरा में भीली रेडियोश्योपुर के सेसईपुरा में सहरिया रेडियोबैतूल के चिचोली में गोंड रेडियोगुना के उमरी में भील रेडियोछिंदवाड़ा के बिजौरी में भारिया रेडियो और खंडवा के खालवा में कोरकू सामुदायिक रेडियो धूम मचा रहे हैं। इसके अलावा प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित शासकीय सरोजिनी नायडू कन्या स्कूल में तो सामुदायिक रेडियो के कारण कमाल हो गया है।

क्रांतिकारियों की गौरव गाथा गाता है रेडियो आजाद हिंद 90.8

मप्र सरकार का स्वराज संस्थान संचालनालय भोपाल से रेडियो आजाद हिंद का संचालन करता है। इस सामुदायिक रेडियो पर देश-प्रदेश के क्रांतिकारियों की गौरव गाथा सुनाई जाती है। लोग जैसे ही 90.8 पर ट्यून-इन करते हैंउन्हें 1857 की क्रांति से लेकर भारत को स्वतंत्र करवाने में प्राण न्योछावर कर देने वाले वीरों तक की गर्व से भरी कहानियां सुनने को मिलती हैं। इस रेडियो के कारण प्रदेश के स्कूली बच्चे भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सही अर्थों में जानने-समझने लगे हैं।

 Amrit sandesh 13 Autust,202


                                               


नातरा-झगड़ा कुप्रथा के खिलाफ राजगढ़ में महिलाओं का लाल चुनर गैंग

 नातरा-झगड़ा कुप्रथा के खिलाफ राजगढ़ में महिलाओं का लाल चुनर गैंग

रूबी सरकार
मध्य प्रदेश की राजगढ़ ग्राम भोनीपुरा निवासी पिंकी तंवर जब 10 साल की थी, तब उसके पिता ने उसका नातरा ग्राम भोनीपुरा में गिरधारी तंवर के साथ कर दी थी। अभी पिंकी 19 साल की है। हाल ही में  पिंकी के पति का एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। अब उसके खुद के पिता,भाई, मामा एवं अन्य परिजन उसकी सहमति के बिना उसे पांच लाख रुपए में एक अन्य बुजुर्ग को बेच दिया ,जिसकी पहले से ही दो पत्नी है , दोनों उसके साथ ही रहती हैं , परंतु पिंकी उस बुजुर्ग के साथ जाना नहीं चाहती थी , इसलिए वह अपने सास-ससुर के पास भाग गई। लेकिन उसके परिजन वहां जाकर आगजनी करने की धमकी  दे रहे हैं। वे पिंकी पर उस बुजुर्ग से शादी करने के लिए दबाव बना रहे है। पिंकी ने इसकी जानकारी संबंधित थाने में दी और पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाई है। लेकिन अभी तक उसे थाने से सुरक्षा की कोई मदद नहीं मिली। अ ब वह उच्च अधिकारियों के यहां अर्जी देकर सुरक्षा की मांग कर रही है। पिंकी की तरह ही राजगढ़, गुना, शाजापुर  मंदसौर , चाचौड़ के साथ ही राजस्थान के झालावाड़, चित्तौड़गढ़, बारा आदि जिलों की हजारों लड़कियां नातरा जैसी कुप्रथा का दंश झेली रही हैं।

दरअसल नातरा कुप्रथा यहां सदियों से चली आ रही हैं। यह प्रथा बचपन में सगाई होने या शादी के बाद वैवाहिक संबंधों में समस्या आने पर या पति या पत्नी में किसी प्रकार की कोई अनबन के कारण जब दोनों अलग होते हैं वर पक्ष वाले बधु पक्ष से एक मोटी रकम की मांग करते हैं जो रकम लाखों में यहां तक कि 20 लाख रुपए से अधिक भी हो सकती है। इसमें गलती किसी की भी हो प्रायः रकम लड़की वालों को ही चुकानी पड़ती है। नातरा शादी के नाम लड़की को एक स्थान से दूसरे स्थान पर मोटी रकम लेकर बेच देने जैसा है। नातरा प्रथा के नाम पर लड़कियों को कई बार बेचा और खरीदा जाता है। इसमें लड़की की इच्छा मायने नहीं रखती । उसकी रजामंदी नहीं ली जाती है और विरोध करने पर उस पर  इतना अत्याचार किया जाता है कि कई बार तो वह स्वयं परेशान होकर आत्महत्या कर लेती है या फिर उसकी हत्या  कर दी जाती है । यदि वह विरोध करती है तो उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। यहां तक कि लड़की का अपहरण भी कर लिया जाता है।
ऐसा ही एक वाकया संतोष तंवर के साथ हुआ है।  बचपन में संतोष की सगाई उसके परिजनों ने जिस लड़के के साथ की थी। बड़ा होने पर उस लड़के ने अपनी पसंद से शादी कर ली। अब झगड़ा प्रथा से बचने के लिए संतोष के ससुराल वाले लड़के के दिव्यांग भाई से उसकी शादी करवाना चाहते हैं। संतोष इसके लिए तैयार नहीं है। शादी से इंकार करने पर संतोष के घर वालों से  10 लाख रुपए की मांग की जा रही है। इस झगड़े को खत्म करने के लिए पंचायत बैठी , जिसने 10 लाख के बजाय 8 लाख रुपए देने का फरमान सुना दिया। वरना संतोष को उठा ले जाने की धमकी दे रहे हैं। संतोष का परिवार बहुत गरीब है। घर-खेत बेचकर भी उसके परिजन इतना पैसा नहीं जुटा सकते। लिहाजा संतोष पर दोनों तरफ से भरी दबाव है  कि वह उसी से शादी कर ले। इस समय संतोष निजी संस्थाओं और पुलिस से मदद के लिए चक्कर काट रही है। जिससे उसकी सुरक्षा  हो जाए। सरकार की ओर से इस प्रथा को बंद करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। पुलिस इसमें हस्तक्षेप नहीं करती । राजनेता इस प्रथा को खत्म करने के लिए कोई कानून नहीं बनाते , क्योंकि राजगढ़ में तंवर और सोंधिया की बहुत बड़ी आबादी है, इसमें उन्हें वोट खिसकने का खतरा नजर आता है। लिहाजा सदियों से यह कुप्रथा बदस्तूर चली आ रही है।
लाल चुनर गैंग की संयोजक मोना मस्तानी बताती हैं कि राजगढ़ जिला आकांक्षी जिलों में शामिल हैं। विकास की दौड़ में यह जिला काफी पिछड़ा है। इस कुप्रथा के पीछे अशिक्षा और बेरोजगारी एक प्रमुख कारण है। यहां प्रायः छोटे काश्तकार है। जो खेती के अलावा काम की तलाश में पलायन करते हैं। कुछ बड़े काश्तकारों के यहां मजदूरी करते हैं। इसिलए यहां के लोग  इसे मोटी कमाई का एक जरिया बना रखा है। इसके पीछे मध्यस्थता करने वालों की भी बड़ी भूमिका है। समझौते के नाम पर उन्हें झगड़े वाली रकम से दलाली मिल जाता है। झगड़े की रकम जितनी मोटी होगी, उन्हें दलाली भी उतनी तगड़ी मिलेगी । मोना बचपन से ही यह सब देखती आ रही थी । उन्होंने इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए पीड़ित महिलाओं को लेकर लाल चुनर गैंग बनाया । इस कुप्रथा को  खत्म करने कलेक्टर के माध्यम से राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा। अब धीरे-धीरे राजनेता भी इस गैंग के समर्थन में आगे आ रहे हैं। राजनेता सामाजिक मदद देने की बात कर रहे है। मोना कहती है कि अगर किसी गरीब लड़की से नातरा तोड़ने पर झगड़ा मांगा जाता है, तो गैंग धावा बोलती हैं साथ ही पीड़ित को इसके लिए कानूनी मदद भी दी जाती हैं। वह कहती है कि इसे खत्म करने के लिए जो मोटी रकम मांगते हैं उन पर सामाजिक दबाव बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि हमने उन सारी पीड़ित लड़कियों को इकट्ठा किया है और उन सबसे आवेदन लेकर प्रशासन को सौंपा है और उन लड़कियों की सुरक्षा की मांग भी की है। उन्होंने कहा कि भविष्य में इस कु प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए सरकार पर कानून बनाने का दबाव बनाउंगी। ताकि कमजोर लड़कियां भी अपने भविष्य के फैसले खुद ले सके।



 Amrit sandesh 16 july 2023