Thursday, March 25, 2010

संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी

महिला सशक्तिकरण की पहली शर्त महिला की पहचान होना है। जब वे अपने अस्तित्व की स्थापना कर अपने व्यक्तित्व का विकास करंेगी, तभी सामाजिक क्रांति का सूत्रपात होगा। मध्य प्रदेश सरकार ने महिलाओं को समता, समानता और गरिमा व क्षमताओं के साथ विकास के लिए बहुआयामी प्रक्रिया निर्धारित किए है। जिससे परिस्थितियां ऐसी बनें कि महिलाओं के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में होने के साथ ही समाज के विभिन्न स्तरों में उनकी सामूहिक क्षमता का सशक्तिकरण हो। लाडली लक्ष्मी योजना, कन्यादान, जननी सुरक्षा के साथ ही महिलाओं को स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण जैसी योजनाएं इसमें शामिल हैं।
स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण के बाद गांवों और शहरों के विकास के लिए सत्ता की बागडोर अब दो लाख से अधिक महिलाओं के हाथों में आ गया है। संविधान निर्माताओं के सपनों को पूरा करने की दिशा में अब प्रदेश में 180000 महिला पंच, 11520 महिला सरपंच, 3400 महिला जनपद सदस्य, 415 महिला जिला पंचायत सदस्य 156 जनपदों और 25 जिला पंचायतों में महिला अध्यक्ष, 1780 महिला पार्ष्द, 95 नगर पंचायत महिला अध्यक्ष, 32 नगरपालिका महिला अध्यक्ष व 8 नगर निगमों में महिला महापौर जिमेदारी से काम कर रही हैं।
उनके राजनीति में अधिक फैलाव के साथ-साथ चुनौतियां भी है। इन चुनौतियों में प्रमुख है महिलाओं के पक्ष में लिंग अनुपात में वृद्धि। किसी भी महिला प्रधान, मुखिया या सरपंच के लिए या हम यह तय कर सकते हैं कि उनके गांव में महिलाओं का लिंग अनुपात कम न हो। या फिर गड़बड़ाया हुआ लिंग अनुपात ठीक हो। या हम उन्हें ये कह सकते हैं कि अपने पंचायत में दस साल की अवधि में इसमें सुधार करने की कोशिश करो। इस सुधार के लिए उन्हें क्या करना होगा? इन मुद्दों को चुनाव घोषणा-पत्र में बदलना होगा। यह कोशिश करनी होगी कि हमारे सभी मुद्दे चुनाव के मुद्दे बनें और सभी कुछ पंचायत में जाए। तभी हम जमीनी हकीकत में चीजों के बदलने की कल्पना कर सकते हैं।
चुनौती यह भी है कि पावर के बारे में सोच बदलने की। उनके साथ इस पर चिंतन करना होगा कि चीजों को बदलने के लिए पावर की जरूरत होती है। न्यायिक प्रणाली में महिलाओं की भागीदारी। सेशन जज और मजिस्ट्रेट के स्तर पर अभी महिलाएं बहुत कम हैं। जबकि वास्तव में उनकी राजनीतिक भागीदारी काफी ज्यादा है। पंचायत के अंदर भी न्यायिक कमेटियां हैं। ग्रामीण अदालत का प्रस्ताव भी है, कानून बनने वाला है। महिलाओं को इसमें या भूमिका मिलने वाली है? यदि न्यायिक व्यवस्था के अंदर जेंडर पर्सपेक्टिव डाल सकते हैं तो यह बड़ी उपलधि होगी राजनीतिक भागीदारी के साथ यह परिवर्तन सत्ता की बनावट में महत्वपूर्ण अंतर आएगा।
जब कानून और आर्थिक नीतियांे दोनों को मिलाकर लागू किया जाता है, तो दरअसल पावर वास्तविक प्रशासन में बदलता है। इसलिए मांग तो जरूर उठाना चाहिए और महिलाओं को इसे पारंपरिक प्रशासन में लाना चाहिए। आर्थिक रूप से हम जितना उन्मुक्त हो रहे हैं, सामाजिक सोच के स्तर पर उतना ही संकीर्ण हो रहे हैं। जब वैश्र्वीकरण की प्रक्रिया गति पकड़ेगी और संसाधन सिकुडेंगे तब महिलाएं , जो आज सत्ता में हैं वो कहां होंगी? उनकी भूमिका क्या होगी? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्र्ान है और इस प्रजातांत्रिक जगह को बचाए रखने के लिए हमें जरूर सोचना चाहिए। तैयारी करनी चाहिए। देश आर्थिक रूप से उन्मुक्त हो रहा है पर यही उन्मुक्तता राजनीतिक प्रक्रिया में नहीं आ पा रही है। इसका महिलाओं की स्थिति पर बड़ा असर पड़ रहा है। यही से चुनौतियां शुरू होती है। नीतियों को बनाना, जेंडर सोच को विकसित करना और इस सोच के आधार पर कार्यक्रम और योजनाओं को लागू करने के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित करना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। महिलाओं को चुनौतियों से जुझते हुए आगे बढ़ना होगा।
अगर पंचायत की महिलाएं जेंडर की समझदारी विकसित कर पाती हैं तो यह शक्ति आसानी से सामाजिक बदलाव की एक शक्ति बन सकेगी। इसी तरह राज्य विधान सभाओं और संसद में 33 फीसदी महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना अभी भी महिलाओं के लिए चुनौती है। हालांकि भारत का संविधान सभी महिलाओं को समानता की गारंटी देता है। धारा 14 में वर्णित राद्गय द्वारा किसी के साथ लैंगिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता, धारा 15-1 स्ाभी को अवसरों की समानता तथा धारा 16 समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान है। पर, कितनी महिलाओं को यह सब आसानी से मिल पाता है। असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं समान हैसियत की श्रमिक कभी नहीं बन पाईं। आज शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जहां महिलाएं काम नहीं करती। लेकिन हर जगह उनका वेतन कम है। समाज का यह एक कड़वा सच है। महिलाओं के श्रम की कम कीमत का सबसे बड़ा कारण उनका महिला होना है। तर्क यह दिया जाता है कि पुरुषें को अपने परिवार का भरण-पोषण करना पड़ता है, जबकि महिलाएं केवल अतिरिक्त आय के लिए श्रम करती हैं। यथार्थ ठीक इसके विपरीत है। करोड़ों की संख्या में महिलाएं अपने कमाई से परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। विकास की यात्रा में सभ्य समाज में शिक्षित महिला की बात करते हुए समाज असर उन ज्वलंत मुद्दों को पीछे छोड़ देते हैं, जिससे महिलाओं का भविष्य जुड़ा है। सत्ता और व्यक्ति द्वारा उसका शोषण किया जाना, भ्रूण हत्या, बाल विवाह, कार्यस्थल पर स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव आदि शामिल है। यूं भी महिलाएं अब गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलना चाहती हैं इसलिए नई चुनौतियों से संघर्ष करती यह महिलाएं ज्यादा सबल और सशक्त हैं। महिलाओं के लिए बनाए गए सामाजिक और धार्मिक विधान, देह से जोड़ी गई पवित्रता और शुचिता की धारणाएं, परंपराओं और रुचियों के नाम पर किए जा रहे अमानवीय व्यवहार अब समाप्त होने चाहिए। महिलाएं को दूसरों द्वारा परिभाषित होना नकार कर स्वयं की परिभाषा गढ़नी चाहिए। स्वयं को सपूर्ण मानव व्यक्तिगत के रूप में देखना एवं अबला छवि से मुक्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
बहरहाल, भारतीय राजनीति में महिलाओं की शून्यता अब धीरे-धीरे कम हो रही है। पंचायती राज के पूरे 15 वर्षों के दौरान महिलाओं ने अपनी शक्ति को पहचाना है और उनमें किसी हद तक राजनीतिक चेतना का भी प्रसार हुआ है। वे संषर्घों से ऊपर उठकर अपने अनुभवों से राजनैतिक बहस को दिशा देने की तैयारी में हैं। सार्वजनिक विषय तथा निर्णयों पर विचार-विमर्श का दायरा अब रसोई घर तक पहुंच गया है। महिला आरक्षण विध्ोयक पारित होने के बाद जो महिलाएं संसद और विधानसभाओं में चुनकर आएंगी उनका पंचायत स्तर की महिलाओं तक नेटवर्क होगा, जिसके कारण पंचायत में महिलाओं को और अधिक सशक्त होने का अवसर मिलेगा।

रूबी सरकार

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