Thursday, August 19, 2010


‘है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं’
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित साहित्यिक-मासिक पत्र नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक जिसे उसके संपादक रवीन्द्र कालिया ने सुपर बेवफाई विशेषांक दो कहा है, में प्रकाशित हिन्दी कााकार एवं महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय का, उसी विश्वविद्यालय में कार्यरत राकेश मिश्र द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। जो इन दिनों विवाद का विषय बना हुआ है। उस साक्षात्कार में श्री राय ने हिन्दी जगत में जारी नारी विमर्श को स्त्री लेखकों के बीच छेड़ी सबसे बड़ी छिनाल कौन प्रतिस्पर्द्धा तक सीमित करके देखा है, एक लेखिका की सद्य प्रकाशित आत्मकाा को अपनी ओर से ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ का शीर्षक भी दे दिया है। साक्षात्कार में आगे हंस के संपादक एवं कााकार राजेन्द्र यादव और कााकार दूधनाथ सिंह पर भी आक्रामक वक्तव्य हैं। यह तो खैर साहित्य के गुटबंदी या कि खेमेबाजी का परिचायक है, लेकिन छिनाल शब्द के इस्तेमाल ने हिन्दी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं की लेखिकाओं को भी उत्तेजित कर दिया है। कहना न होगा कि अपने साक्षात्कार में राय भारतीय समाज की जिस पितृसथात्मक संरचना और सामंती मानसिकता को नारी की दोयम दर्जे की सिति के लिए जिम्मेदार ठहराते है, यह शब्द वहीं से निकलकर आया हुआ है। स्वयं राय की पृष्ठभूमि सामंती रही है और ऊपर से वे भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं, गोया करैला और ऊपर से नीमचढ़ा ।
हालांकि राय ने छिनाल को संस्कृत के ‘छिन्ननाल’ यानी मूल से कटा हुआ से संबंधित करके अपना बचाव करने की कोशिश की है। मेरी दृष्टि में ‘छिनाल’ शब्द मूलत: छिनार है, जो नार यानी स्त्री के पहले निन्दासूचक उपसर्ग छि यानी संस्कृत में छि: लगाने से बना है। संस्कृत में जिसे पुंश्चली कहते है, देशज जबान में उसी को छिनाल कहा जाता है।
बेशक यह नारी निंदक शब्द है। तो हिन्दी की लेखिकाएं , पाठिकाएं, छात्राएं और सचेत स्त्रियां ही नहीं, बल्कि स्त्री को समादर देने वाले पुरुष लेखक और पाठक भी अतिशय क्षुब्ध हैं। कुलपति पद से उनके इस्तीफे की मांग की जा रही है। नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया पर भी बूरी बीत रही है, उन्हें भी नया ज्ञानोदय के संपादक तथा भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक के पद से हटाने की मांग उठ रही है।
जो भी हो, इस वाक्य से भारतीय समाज में स्त्री को- विशेषकर मानसिक आजादी की जीवन जीना चाहती स्त्री को- किन निगाहों से देखा जाता है- इस तय की झलक मिलती है। अगर साहित्यिक समाज में ही स्त्री की कलम पर अघोषित पाबंदी लगी हो तो शेष समाज में मुंहदुब्बर स्त्री पर बलात् लादे गए गूंगेपन कल्पना की जा सकती है। यह वही भारतीय स्त्री है, जिसने तमाम लोकगीत रचे हैं और वेदों के रचनाकाल में भी ऋषिका के रूप में सक्रिय रही हैं। आज वह अपना जीया हुआ सच लिख रही है तो आपका जी क्यों कूढ़ता है मिस्टर राय? यह तो पूछा ही जा सकता है।
रूबी सरकार

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