Wednesday, June 14, 2023

जनजातीय गौरव सप्ताह में करोड़ों खर्च, पर आदिवासियों को क्या मिला !




 जनजातीय गौरव सप्ताह में करोड़ों खर्च, पर आदिवासियों को क्या मिला !

रूबी सरकार

जनजातीय गौरव सप्ताह का समापन में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मंडला में टोकन के रूप में आदिवासियों को वन अधिकार पट्टे प्रदान किए । उन्होंने आदिवासियों को  यह संदेश देने की कोशिश की, कि भाजपा ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो उनलोगों का भला सोचती हैं। लेकिन बात तो 10158 वनग्रामों  में वन अधिकार मान्यता कानून की  हुई थी, जिसमें सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार पत्र आदिवासियों को  मिल जाने थे और अगर व्यक्तिगत पट्टे की बात की जाए, तो सुप्रीम कोर्ट में मध्यप्रदेश के तीन लाख, साठ हजार आदिवासियों के दावे लंबित है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सरकार ने वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट से दावे निपटाने के लिए समय मांगा था और न्यायालय उनकी बात पर भरोसा कर उन्हें समय दिया था। बीच में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार आई, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए वन मित्र पोर्टल बना दिया। पोर्टल पर भी आदिवासियों ने वन अधिकार पट्टे के लिए आवेदन दिए, लेकिन अभी तक उस पर क्या कार्यवाही हुई, यह किसी को नहीं मालूम।
 जहां तक सामुदायिक वन प्रबंधन की बात है, तो 18 सितंबर को  जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रदेश के आदिवासी नायक  शहीद शंकर शाह व उनके पुत्र रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस के दिन जनजाति गौरव के लिए कई कार्यक्रमों की घोषणा जबलपुर में कर रहे थे, तब उसमें 18 सितंबर से लेकर 15 नवंबर के बीच 58 दिनों में प्रदेश के 19158 गांवों को सामुदायिक वन संसाधनों के  अधिकार  दिए जाने की भी घोषणा की थी। इसके लिए आदिम जाति क्षेत्रीय विकास निदेशालय की ओर से  सभी जिला कलेक्टरों को एक पत्र जारी किया गया, जिसमें 15 नवंबर 2021 तक समस्त ग्राम सभाओं को वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकारों के अधिकार पत्र सौंपे जाने को सुनिश्चित करने के लिए कहा था। जिला कलेक्टरों ने इस पत्र को कोई महत्व नहीं दिया और निश्चित तिथि तक कलेक्टरों की ओर से कोई जवाब निदेशालय को नहीं भेजा गया। इससे पता चलता है कि सरकार और अफसरशाही आदिवासियों के मसले पर कितनी गंभीर है।
दरअसल घोषणा देश के गृह मंत्री अमित शाह के सामने हुई थी और जब कलेक्टरों द्वारा कार्यवाही किए जाने की जो अंतिम तिथि दी गई थी, उस दिन मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया था। अब सवाल यह उठता है कि बिरसा मुंडा के जन्मदिन 15 नवम्बर के दिन भाजपा आदिवासियों के लिए मार आकाश पाताल गुंजायमान कर जो सम्मेलन का आयोजन किया, क्या वह केवल आदिवासियों की भीड़ जुटाने के लिए था।
प्रदेश के आदिवासी अब यह जानना चाह रहे हैं कि 52 करोड़ों कुछ जानकारों के अनुसार 100 करोड़ सरकारी खर्च से इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर जो सम्मेलन किया गया, क्या वह भाजपा के एजेंडे का हिस्सा भर था। क्योंकि आदिवासियों को तो कुछ मिला नहीं। बस में आना-जाना और दो वक्त के टिफिन के अलावा । कुछ के अनुसार आने-जाने के खर्च के नाम पर थोडा़ बहुत नगद भी दिया है। इस जनजातीय गौरव सप्ताह से किसका गौरव बढ़ा। उनके आजीविका, जमीन और आवास के मसले हल तो हुए नहीं।  आदिवासियों की जमीनी आवाज क्या है! आइए जानते हैं- राजधानी से सटे सागर जिले के झीकनी वनग्राम के रामसिंह आदिवासी  कई पुश्तों से इसी गांव में रहते हैं, कुल 4 एकड़ वन भूमि पर उसका कब्जा है, जिस पर वह चना, ज्वार, बाजरा , मसूर आदि की खेती कर गुजारा करते हैं। इसके लिए उसे वन विभाग के कर्मचारियों से लाठी खानी पड़ती है। एक बार तो उसके ऊपर वन विभाग के कर्मचारियों ने एफआईआर दर्ज करवा दी। क्योंकि उसके पास पीने के लिए पानी नहीं था उसने एक छोटा सा गड्ढा खोद डाला था। आज भी वह जमानत पर है। रामसिंह बताते हैं, कि परिवार में 10 सदस्य है और सभी इसी खेती पर निर्भर है। कभी-कभी मजदूरी मिल जाती है तो वह भी कर लेते हैं। खेती के लिए पर्याप्त पानी नहीं है, नाले की पानी से यहां सिंचाई होती है। पीने के लिए एक गड्ढा खोदा, तो हमारे ऊपर मुकदमा दर्ज हो गया। आज भी कोर्ट में मामला चल रहा है।
इस गांव में रामसिंह अकेले नहीं है, बल्कि 25 आदिवासी परिवार इसी तरह अस्थिरता का जीवन जी रहे हैं। कभी खेत में खड़ी फसल वन विभाग के कर्मचारी उखाड़ लेते हैं। कुछ कहने पर कानून की धमकी देते हैं। कहते है, तुम जबरन कब्जा कर रह रहे हो। यहां के सौंसर आदिवासी सालों हो गया वन अधिकार के पट्टे के लिए आवेदन दे चुके हैं। कितनी बार मुख्यमंत्री से मिले, केवल आश्वासन ही इन्हें मिला । पट्टा नहीं मिला। भरत रामसिंह की बात को आगे बढ़ाते हुए कहता है, कि वर्ष 2006 से पहले का कब्जा है। पर सामुदायिक वन प्रबंधन तो छोडि़ए , जिस पर सालों से खेती कर रहे हैं, उसका पट्टा तक सरकार नहीं दे ही रही है। कलेक्टर, मुख्यमंत्री , पोर्टल तक में आवेदन दिया, कुछ नहीं हुआ। इन दोनों की बातों का समर्थन हनुमंत पहाड़े, रूपाबाई, तुलसा,तुलसीराम जानकी बाई आदि ने भी किया। सागर जिले के मालथौन,खुरई,बंडा विकासखंड, देवरी , राहतगढ़ जैसे दर्जन भर गांव है, जहां आदिवासी भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। पट्टा न होने के कारण जिस जमीन पर वे खेती करते हैं, उसे वन विभाग या तो फसल आने के बाद लूट लेते हैं या फिर बीज अंकुरित होने से पहले ही उसे उजाड़ देते हैं। अब तो प्लांटेशन के नाम पर भी सरकार आदिवासियों को जंगल से बाहर करने पर आमादा है। अकेले सागर जिले में करीब साढ़े चार हजार दावे और ग्वालियर में 1632 दावे ऑनलाइन सरकार के पास लंबित है। इसी तरह काताजर वनग्राम, विकासखंड बिछिया जिला मंडला के आदिवासी किसान जमनीबाई कुशराम, इमरत उद्दे और संपत से वन भूमि का कब्जा छीनकर वन विभाग के कर्मचारियों ने इन लोगों को जंगल से ही भगा दिया।आज तक वे कोर्ट में इसके लिए लड़ रहे हैं।
 
अक्टूबर माह में ग्वालियर में 17 गांव के सहरिया आदिवासी अपनी जमीन की समस्या को लेकर कलेक्टर से मिलने गए थे। जबकि यह काम आदिम जाति कल्याण विभाग का है। विभाग को यह जिम्मेदारी दी गई है  िक वे इन सहरिया आदिवासियों की समस्या का हल करे। आदिवासियों के बीच वर्षों से काम कर रहे डोंगर शर्मा बताते हैं कि दरअसल विभाग आदिवासियों की सुध न लेकर राजनेताओं की चाटुकारिता में पूरा समय बिता देते हैं। वे बताते हैं कि यहां ष्षेर गांव में 62 परिवारों को व्यक्तिगत दावा का अधिकार तो मिल गया लेकिन सदियों से जितनी जमीन पर वे खेती कर रहे हैं , उससे बहुत कम जमीन उन्हें दी गई। इसकी शिकायत कलेक्टर कार्यालय में की गई, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई। इससे इनकी आजीविका का हल नहीं हो सका। जबकि मुख्यमंत्री कहते हैं कि जनजातीय गौरव सप्ताह, जनजातियों में जागरूकता लाने और उनकी जिंदगी बदलने का एक अभियान है।
आदिवासी मामलों के जानकार मंडला के राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि सबसे शर्मनाक यह है कि प्रधानमंत्री के भाषण में सामुदायिक वन अधिकारों का कोई उल्लेख भी नहीं था। इससे साफ हो जाता है कि इस तरह का भव्य सम्मेलन आदिवासी समुदायों के बीच भाजपा की खिसकती जमीन को साधने की कोशिश है, न कि आदिवासियों के हित में कोई फैसला लेना इसका उद्देश्य था।
उन्होंने कहा कि असल में कलेक्टरों को भेजे गए जो समस्त ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार सुपुर्द करने वाला दस्तावेज तैयार किया गया, वही गलत ढंग से तैयार किया गया है। इसमें पेसा कानून की पूरी तरह अनदेखी की गई है। वन अधिकार कानून-2006 की धारा -3 एक झ के अनुसार सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित या संरक्षित या प्रबंध करने का अधिकार ग्राम सभा को पहले से ही है, जिसकी वे सतत उपयोग के लिए परंपरागत रूप से संरक्षा कर रहे हैं। अतः सक्रिय भूमिका की जगह प्रबंधन करने का अधिकार जोड़ा जाना चाहिए था। आदिवासी परंपराओं के अनुसार आपसी विवाद निपटाने और प्राकृतिक संसाधनों का समुदाय के हित में प्रबंधन करने का अधिकार ग्राम सभा को पहले से ही दिया गया है। लेकिन इस पर अमल नहीं हो रहा है। आदिवासी इतने पढ़े-लिखे है नहीं और सरकार इन्हें जागरूक करना नहीं चाहती। सिन्हा ने कहा वन विभाग को इन्हें तकनीकी सहयोग देकर जंगल की रक्षा और उसके संसाधनों के बारे उपयुक्त जानकारी देनी चाहिए। पारंपरिक ज्ञान आदिवासियों के पास पहले से ही है।

जनजातीय गौरव सप्ताह में करोड़ों खर्च, लेकिन आदिवासियों को क्या मिला!

दिः  22&11&-2021   

https://hindi.newsclick.in/Tribal-Pride-Week-spent-crores-but-what-did-the-tribals-get





 


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