भोपाल गैस त्रासदी के 34 वर्ष बाद भी पीडि़तों को न्यायालय व सरकारों से न्याय नहीं मिला न्याय
अप्रैल 2019 में सर्वोच्च न्यायालय में होगी सुनवाई
Feb 5, 2019
रूबी सरकार
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 28 जनवरी, 2019 को भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन और भोपाल गैस पीडि़त सहयोग संघर्ष समिति की वह याचिका जो मई 2004 एवं वर्ष 2010 से लंबित था, को सुनने की रजामंदी दी है। इस तरह लगभग 14 वर्ष से लंबित 5 गुना मुआवजे की याचिका पर ही सुनवाई ही नहीं हुई है । इस बीच 2010 में मुआवजा प्रकरण में तत्कालीन भारत सरकार भी शामिल हो गई थी, उसके द्वारा एक कैरिटिव पीटिशन सर्वोच्च न्यायालय में लगाई गई थी । अब यह सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में अप्रैल 2019 में होगी।
भोपाल गैस त्रासदी के 3 दशक 4 वर्ष पश्चात् भी गैस प्रभावितों को मुआवजा, इलाज तथा दोषियों को दंड दिए जाने के लगातार सरकार से मांगों न्यायालय में लगातार दायर जनहित याचिकाओं के उपरांत भी गैस प्रभावितों को न्याय नहीं मिला है । गैस त्रासदी के प्रभावितों में से लगभग 35 हजार से अधिक प्रभावितों की मौत हो चुकी है और लगभग एक लाख से अधिक प्रभावित गंभीर बीमारियों अर्थात फेफड़ों, किडनी, लीवर की बीमारियों को भुगत रहे हैं । लगभग 3 लाख लोग निरंतर बीमार बने हुए हैं, इनमे गैस त्रासदी के पश्चात् पैदा हुए बच्चों और उन पर गैस के दुष्प्रभावों की जानकारी नहीं है अलग -अलग वैज्ञानिक संस्थाओं ने यह चिंता जाहिर की है, कि गैस त्रासदी के बाद पैदा हुई संतानों में गैस के दुष्प्रभाव हुए है तथा उन पर निगरानी किये जाने की आवश्यकता है। किन्तु राज्य एवं केंद्र सरकारों ने इनके निगरानी के ठोस उपाय नहीं किये हैं । परिणामस्वरूप गैस पीडि़त बच्चों में तरह-तरह की विकलांगता पैदा हो रही है। शरीर के किसी अंग का काम नहीं करना तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की बड़ी संख्या हैं।
भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन तथा अन्य ने 1998 में बेहतर इलाज के लिए एक जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की थी। लम्बे सुनवाई के अंतराल के बाद 9 अगस्त 2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक विस्तृत आदेश अपने अंतिम निर्णय में दिया था जिसमें गैस प्रभावितों के न केवल इलाज, बल्कि उनके शोध तथा भोपाल मेमोरियल के सुधार के व्यापक आदेश देते हुए इलाज के प्रकरण को उच्च न्यायालय जबलपुर को सौंप दिया गया था। 2012 से उच्च न्यायालय इलाज व्यबस्था की निगरानी कर रहा है तथा इसके व्यवाहरिक और सूक्ष्म अमल के लिए एक निगरनी कमेटी का गठन किया गया है। जिसे मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के सेवा निवृत न्यायमूर्ति वी के अग्रवाल देख रहे हैं। उनके द्वारा न्यायालय को प्रस्तुत की गई 20 से अधिक रपटों पर भी केंद्र सरकार के परिवार एवं स्वास्थ मंत्रालय तथा मध्यप्रदेश सरकार के गैस राहत और पुनर्वास विभाग ने भी अमली कार्यवाही में गंभीर रुख नहीं अपनाया है। निरंतर दवाब होने के बाद भी गैस राहत विभाग तथा बीएमएचआरसी चिकित्सालय में कोई व्यापक ठोस सुधार नहीं हुए हैं ।इस सबसे त्रस्त आकर भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन ने राज्य और केंद्र सरकार के अधिकारीयों के विरुद्ध न्यायालय की अवमानना का मामला उच्च न्यायालय के समक्ष दायर किया है । बावजूद इसके राज्य तथा केंद्र सरकार के सम्बन्धित अधिकारी निडर बने हुए है तथा उन्हें कोई परवाह गैस पीडि़तों के प्रति नहीं है । लगभग 34 वर्ष बाद भी गैस पीडि़तों को उनके बीमारियों को लेकर चिन्हित नहीं किया गया है अर्थात बीमारी अनुसार उनका वर्गीकरण अब तक नहीं हुआ है ।
वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद तथा मध्य प्रदेश में कमलनाथ के सत्ता संभालने के बाद भी दोनों सरकारों ने गैस प्रभावितों के किसी भी पक्ष पर चर्चा नहीं की है ।
मध्यप्रदेश सरकार के पास गैस प्रभावितों के इलाज के साथ- साथ आर्थिक सामाजिक व पर्यवार्नीय पुनर्वास की जवाबदेही है ।अब तक राज्य सरकार ने इस सम्बन्ध में गंभीर रुख नहीं अपनाया । आर्थिक पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार द्वारा 2010 में 104 करोड़ रूपये की राशि का प्रावधान किया गया था, किन्तु वह राशि भी अन्यंत्र उपयोग की जा रही है । संगठन के अब्दुल जब्बार ने कहा, कि इस सम्बन्ध में गैस राहत विभाग के मंत्री आरिफ अकील को तुरुन्त हस्तक्षेप करने तथा उस राशि का आर्थिक पुनर्वास में व्यय करने का अनुरोध किया है।
गौरतलब है, कि सर्वोच्च न्यायालय ने अब्दुल जब्बार व शाहनवाज खान द्वारा दायर उस अपील याचिका को निरस्त कर दिया है, जिसमें भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोतीसिंह व एस पी श्री स्वराजपुरी को यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भोपाल से षड्यंत्र कर वापस भगाने में वर्ष 2010 में सामने आये तथ्यों के आधार पर भोपाल से भागने का एक मुकदमा मुख्य न्यायधीश सीजेएम भोपाल के समक्ष जून 2010 में उस समय दायर किया गया था, जब यूनियन कार्बाइड के शेष अधिकारीयों को 2 वर्ष की सजा सुनाई गई थी । उपरोक्त मुकदमा 31 अगस्त 2018 को उच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया था। इसी मामले को लेकर जनवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला दायर किया गया था।
उल्लेखनीय है, कि 2 और 3 दिसम्बर 1984 की रात को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने के टैंक से रिसी 40 टन मिथाइल आयसोसायनेट (एमआईसी) गैस , जो एक गम्भीर रूप से घातक ज़हरीली गैस है, उसके कारण एक भयावह हादसा हुआ। कारखाने के प्रबंधन की लापरवाही और सुरक्षा के उपायों के प्रति गैरजि़म्मेदाराना रवैये के कारण एमआईसी की एक टैंक में पानी और दूसरी अशुद्धियां घुस गईं, जिनके साथ एमआईसी की प्रचंड प्रतिक्रिया हुई और एमआईसी तथा दूसरी गैसें वातावरण में रिस गईं। ये जहरीली गैसें हवा से भारी थीं और भोपाल शहर के करीब 40 किलोमीटर इलाके में फैली 56 वार्डों में से 36 वार्डों में इसका गंभीर असर हुआ। इसके असर से (कई सालों में) 20,000 से ज़्यादा लोग मारे गए और लगभग साढ़े 5 लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा। उस समय भोपाल की आबादी लगभग 9 लाख थी। यूनियन कार्बाइड कारखाने के आसपास के इलाके में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर हुआ असर भी उतना ही गम्भीर था। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड उस समय यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के नियंत्रण में था, जो अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी है औऱ बाद में डॉव केमिकल कम्पनी (यूएसए) के अधीन रहा। अगस्त 2017 से डॉव केमिकल कम्पनी (यूएसए) का ईआई डुपोंट डी नीमोर एंड कंपनी के साथ विलय हो जाने के बाद यह अब डॉव-डुपोंट के अधीन है।
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