Wednesday, June 14, 2023

भारत के आखिरी गांव तुरतुक में मध्यप्रदेश की हस्तशिल्प का प्रदर्शन



 भारत के आखिरी गांव तुरतुक में मध्यप्रदेश की  हस्तशिल्प  का प्रदर्शन

रूबी सरकार
संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा तुरतुक पर फतह के 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में पहली बार तुरतुक फेस्टिवल आयोजन तुरतुक गांव में ही किया गयाा। तुरतुक गांव के भारत में विलय की स्वर्ण जयंती के गरिमामय फेस्टिवल  में देष भर के चुनिंदा शिल्पकारों को आमंत्रित किया गया था, जिसमें मध्य प्रदेश के युवा शिल्पकार मोहम्मद बिलाल खत्री को भी मध्यप्रदेश के बाग प्रिंट के प्रदर्शन और वहां के लोगों को इस कला के बारे में जानकारी देने के लिए शामिल किया गया। बिलाल ने वहां  मध्य प्रदेश के बाग शहर का प्रसिद्ध प्रिंट फैब्रिक पारंपरिक कला को प्रदर्षित किया और वहां के लोगों को इस कला के एतिहासिक महत्व के बारे में पूरी जानकारी दी। तुरतुक के लोगों ने बाग प्रिंट में काफी रुचि दिखायी। ग्रामीणों के अलावा आर्मी के बड़े अधिकारियों ने भी इस शिल्प को समझा, सराहा और बाग प्रिंट कला की प्रशंसा कर बिलाल को प्रोत्साहित किया। साथ ही अपने हाथों से बाग प्रिंट का ठप्पा लगाकर स्वयं भी खुश हुए।  बिलाल के अलावा टेक्सटाइल में कश्मीर , हरियाणा और पंजाब के कलाकारों को भी शामिल किया गया था। कलाकारों की टोली में देष भर के 200 से अधिक कलाकारों को शामिल किया गया था। जिसमें फैब्रिक के अलावा लोक गायन, नृत्य और अन्य विधाओं से जुड़े कलाकार थे। 12 दिन यह यात्रा बिलाल के लिए यादगार बन गया।

दरअसल वर्ष 1947 की जंग के बाद तुरतुक ग्राम पाकिस्तान के नियंत्रण में चला गया था। लेकिन 1971 की लड़ाई में भारत द्वारा इसे फिर से हासिल कर लिया गया और फतह के बाद यहां भारत का तिरंगा फहरा दिया गया। 50 साल पूर्ण होने पर भारत सरकार द्वारा ‘‘आजादी का अमृत महोत्सव‘‘ के उपलक्ष्य में तुरतुक फेस्टिवल आयोजित किया। तुरतुक के भारत में विलय के 50 साल में यह पहला फेस्टिवल था।
प्रदेश के युवा शिल्पकार मोहम्मद बिलाल खत्री बाग प्रिंट के पहले मास्टर शिल्पकार हैं, जिन्हें भारत के आखिरी गांव तुरतुक में अपनी बाग प्रिंट हस्तशिल्प कला का प्रदर्शन करने का अवसर मिला। अपने अनुभव साझा करते हुए बिलाल बताते हैं, कि ग्राम तुरतुक की खूबसूरती बेमिसाल है। तुरतुक दो पहाड़ियों के बीच बसा एक बहुत ही खूबसूरत छोटा सा गांव है। इसे सियाचिन ग्लेशियर का प्रवेश द्वार कहा जाता है। मुस्लिम आबादी वाला यह गांव पूरी तरह से हिन्दुस्तानी संस्कृति में रचा-बसा है। बिलाल ने कहा, 1971 में गांववालों को बुरा वक्त इसलिए देखना पड़ा था, क्योंकि परिवार बिछड़ गये थे। अगर पति पाकिस्तान में रह गया, तो पत्नी हिन्दुस्तान में। इसी तरह भाई-बहन रिश्तेदार सब कुछ पाकिस्तान में रह गये थे, तो कुछ यहां हिन्दुस्तान में। धीरे -धीरे भारत सरकार ने सब बिछड़ों को मिलाया। तुरतुक के नौजवानों को फौज में नौकरी दी। 2010 तक भारत सरकार ने इस गांव में जाने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा रखी थी , लेकिन उसके बाद इसे पर्यटकों के लिए खोल दिया गया। बिलाल ने कहा, इस गांव में आना और यहां के लोगों से मिलना -जुलना बहुत सुकून देता है। प्राचीन श्योक नदी और बर्फ से ढके हिमालय के बीच तुरतुक गांव में सेना द्वारा चलाए जा रहे सद्भावना स्कूल है।यहां खुबानी के बागों और हरे-भरे खेतों के बीच भागते-दौड़ते बच्चे किसी चित्रकार की कल्पना जैसी है। तुरतुक भारत की अंतिम चौकी है,, जो भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा से 10 किमी से भी कम दूरी पर बसा है। बिलाल ने कहा, कुदरती खूबसूरती, की तरह यहां के लोग  भी सरल और सहज है।उनका कुषल व्यवहार बरबस ही किसी को आकर्षित करती हैं। यह इलाका कराकोरम पहाड़ों से घिरा हुआ है। दूर-दूर तक पहाड़ ही पहाड़ नजर आते हैं।
देश के एक छोर पर बसे तुरतुक गांव की सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह फौजियों के हाथों में है। कुदरती नेमतों से मालामाल इस गांव में ब मुष्किल तीन सौ घर है। जो खेती-किसानी के साथ-साथ छोटा-मोटा कारोबार कर अपनी आजीविका चलाते हैं, हालांकि भारत सरकार की सारी सुविधाएं और योजना का लाभ  अन्य गांवों की तरह इन तक भी पहुंचती है।
मोहम्मद बिलाल बताते हैं,  िकवे यहां दो बार सम्मानित भी हुए । पहली बार भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय ने इन्हें सम्मानित किया, दूसरी बार तुरतुक के एक्जीक्यूटिव काउंसिल  गुलाम मेहंदी द्वारा तुरतुक शासन-प्रशासन की ओर से उन्हें सम्मानित किया गया।

बाग प्रिंट का क्या है महत्व

दरअसल मध्य प्रदेश के बाग शहर का प्रसिद्ध प्रिंट फैब्रिक एक पारंपरिक कला रूप में जाना जाता है । यह यहां के लोगों के लिए गैर-कृषि आजीविका का स्रोत है। रेशम और कपास पर ये प्रिंट बहुत फबता  हैं। यह ग्रामीण आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों के सहसंबंध के लिए भी जाना जाता है। राजस्थान के सांगानेरी प्रिंटों से मिलते-जुलते बाग प्रिंट लाल और काले रंग के विशिष्ट पैटर्न हैं । यह कला इस क्षेत्र के स्वयं सहायता समूहों और व्यक्तिगत उद्यमियों को बाजार से जोड़ने का मौका भी देता है। ग्रामीण आजीविका में यह हस्तशिल्प अत्यधिक योगदान देता है।

बाग प्रिंट छपाई और कपड़े के उपचार की प्रक्रिया एक बहुस्तरीय प्रक्रिया है, इसमें रंग उपचार, कपड़े भिगोना, उबालना, सुखाना, धोना और छपाई करना शामिल है। कपड़े पर उपयोग किए जाने वाले रंगों की संख्या के आधार पर इन चरणों को आमतौर पर दोहराया जाता है।
प्रक्रिया की शुरुआत कपड़े को कच्चे नमक, गर्म पानी और बकरी के गोबर में भिगोने से होती है। हल्का पीला रंग जो कपड़े को मिलता है वह इस चरण के कारण होता है। इसके बाद, कपड़े को धोया जाता है, फैलाया जाता है और खुले में सुखाया जाता है। इस अवधि के दौरान, एक विशाल तांबे के बर्तन में इमली के बीज और फिटकरी को भिगोकर और उबालकर लाल रंग निकाला जाता है। लाल रंग बाग फैब्रिक में विशिष्ट माना जाता है। ठेठ लाल रंग इमली के बीज से निकाला जाता है। बाग पूरी तरह से संसाधनों से लैस है, यह क्षेत्रीय अंतर-निर्भरता और विशेषज्ञता का मेल है।

मुद्रण के लिए कलाकारों द्वारा उपयोग किए जाने वाले ब्लॉक गुजरात के पेथापुर से आता है। इस प्रकार यह क्षेत्रीय व्यापार की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हैं जो इस देशी उद्योग के लिए आजीविका का आधार बनता है। कपास, क्रेप, रेशम और अन्य प्रकार के कपड़े के अनुरूप ब्लॉक बड़ी सटीकता के साथ बनाए जाते हैं। लकड़ी पर फूलों की नक्काशी के बीच उनके पास कई छोटे छेद होते हैं ताकि रंग के छापों को धुंधला होने से रोका जा सके।

इसके बाद, कपड़े को एक तख्ती या मेज पर फैलाया जाता है, जिसके नीचे जूट, भूसा और कपड़े की कई परतें होती हैं, जो ब्लॉक प्रिंटिंग के लिए एक लचीला आधार प्रदान करती हैं, जिसे कारीगरों द्वारा कुशलता से किया जाता है। इमली से निकाले गए गुलाबी रंग को फिर विभिन्न ब्लॉकों के माध्यम से उभारा जाता है। फूल, पत्ते, पारंपरिक मूर्तियाँ, यानी ढेर सारे पैटर्न हैं। जब तक कोई और निर्देश न दिया जाए, कलाकार अपनी कल्पना का उपयोग कपड़े को डिजाइनों को उभारकर श्रमसाध्य रूप से जीवंत करने के लिए करता है।
बाग रचनात्मक कला में महिलाओं की भागीदारी की कमी इस व्यवसाय की लिंग विषम प्रकृति को उजागर करती है। माना जाता है कि महिलाओं में सौंदर्य की दृष्टि से अधिक झुकाव होता है, बाग प्रिंट उद्योग में आमतौर पर खत्री समुदाय के पुरुषों की भागीदारी देखी जाती है।
दूसरी बात इस शिल्प का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू विभिन्न पौधों और सब्जियों से निकाले गए प्राकृतिक रंगों का उपयोग हैं । इसके अलावा  प्राकृतिक जल स्रोतों पर निर्भरता इस कला के अस्तित्व की कुंजी है, जो स्थिरता, पारिस्थितिकी संरक्षण और पर्यावरणीय खतरों से संबंधित प्रश्न भी उठाती है। यह अवसर भी है और खतरा भी। बाग कला में बाग क्षेत्र की मिट्टी नदियों वनस्पति वन्य जीवन और जलवायु का असर साफ नजर आता है। जितना खूबसूरत यह दिखता है उतना ही मुश्किल है इसे बनाना।  एक साड़ी या दुपट्टा तैयार होने में 20 दिन लग जाते हैं।

                                                                                oct 31,2021 Amrit Sandesh Raipur 



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