May 15, 2020
आदिवासी महिलाओं का करामाती परमार्थ
रूबी सरकारबुुंदेलखण्ड का ललितपुर जिले का तालबेहल विकास खण्ड का लगभग 27 गांवों में लॉकडाउन बावजूद शहरों की तरह खाने के लाले नहीं पड़े है। क्योंकि इन गांवों को स्वयंसेवी संस्था परमार्थ ने लगभग एक दशक पहले इन्हें आत्मनिर्भर बना दिया था। निर्धन और असहाय लोगों का पलायन रोकने के लिए संस्था ने पहले पानी का प्रबंधन, तालाब, कुंआ आदि का निर्माण कर पानी को संचय करना सिखाया। फिर पानी के साथ-साथ पोषण युक्त भोजन के लिए पोषण वाटिका पर गांव वालों के साथ काम करना शुरू किया । कार्ययोजना के तहत सबसे पहले कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों के मूलभूत जरूरतों का सर्वे किया, फिर उन्हीं की जरूरतों से जुड़ी सरकार की योजनाओं से उन्हें परिचित कराया। जिसका लाभ लेते हुए गांव वालों ने पोषण वाटिका और पानी दोनों स्तर पर काम किया। आज हालत यह है, कि कोरोना संक्रमण काल में यह गांव आबाद है। कभी अपनी भूमि, अपनी माटी का अहसास और सुकून को अलविदा कह परदेस में ठोकर खाने को मजबूर यह आदिवासी अब जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आ रही हैं। जबकि पहले यहां के आदिवासी अपने घर पर बुजुर्ग और बेबस बच्चों को छोड़कर पलायन पर जाते थे। दिहाड़ी व पत्थर की खदानों पर काम करते थे, जिससे इस जनजाति की महिलाएं एवं पुरुष सिलिकोसिस सरीखी बीमारियों से ग्रसित हो जाते थे, इससे इनकी आयु तो घटती ही थी, साथ ही समुचित पोषक आहार न मिलने से बस्तियों में कुपोषित बच्चों की भरमार थी।
सर्वप्रथम इन गांवों में समेकित आदिवासी विकास कार्यक्रम के अंतर्गत गुजरात की मॉडल पर ‘बाड़ी परियोजना‘ शुरू की गई। इस परियोजना में जिन आदिवासी महिलाओं के पास जमीन थी, उन्हें नींबू, अमरूद, बेर , बबूल, मटर, साग-सब्जियों के बीज और पौधे निःषुल्क उपलब्ध कराया गया। इनके खेत और बागीचों की फेसिंग करवाई गई, जिससे इनके खेत को जानवर उजाड़ न सके। इस तरह लगभग तीन साल बाद इन आदिवासियों को सब्जी और फलों से इतनी कमाई होने लगी, कि वे खेत छोड़कर कहीं जाने को तैयार नहीं हुए। इसके अलावा भ्ूमिहीन महिलाओं केा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए तीन-तीन बकरियां दी गई थी । आगे चलकर इन बकरियों की संख्या बढ़ती गई और महिलाएं आपस में 10-10 की संख्या में समूह बनाकर इन बकरियों का आदान-प्रदान करती गई। ये महिलाएं सिर्फ खेत में काम नहीं करतीं, बल्कि बाजार जाकर इन सब्जियों को बेचती भी हैं और प्रतिदिन लगभग 5 सौ रूपये इससे कमा भी लेती हैं। इस तरह आत्मनिर्भरता के साथ-साथ अब इनका आत्मविष्वास भी बढ़ा गया है। महिलाएं आपस में सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करती हैं। स्वास्थ्य के प्रति एक-दूसरे को जागरूक करती हैं। मौसमी प्रकोप से अपने उत्पादन को बचाती है, बाल-विवाह , कुपोषण, किषोरियांे की पढ़ाई जारी रखने जैसे मुद्दों पर इनकी समझ विकसित हुई है।
इन्हीं में से एक गांव चंद्रापुर, यहां की जल सहेली पुष्पा बताती है, िकवे अपने खेत में देवरानी के साथ भरी दोपहरी मंे भी काम करती है, उसने बताया, अभी जो देशबंदी चल रही है, उसमें शहर के लोगों को पानी और खाने की तकलीफ हो रही है, लेकिन हमें अपने खेत से सब कुछ आसानी से मिल रहा है। पहले गर्मी के मौसम में हैण्डपम्प सूख जाते थे। अगर आज ऐसा होता, तो गांव वाले संक्रमण से ज्यादा प्यास से मर जाते । अब हम पानी की बचत , हैण्डपम्प मरम्मत और तालाब का गहरीकरण सब कुछ सीख लिया है। हमलोगों ने कई चेकडेम भी बनवाये है। हर घर के पीछे पोषण वाटिका है। उसने कहा, कभी किसी ने नहीं सोचा होगा, कि ऐसा दिन भी आयेगा, जब सब घरों में कैद हो जायेंगे। बाहर की दुनिया उनके लिए इतनी डरावनी हो जायेगी। पहले हम शहर काम मांगने जाते थे, अब शहर के लोग चंद्रापुर से साग-सब्जी लेने आ रहे हैं। उदगुवां गांव की सिरकुंवर के क्या कहने, उसने तो समाजसेवा में कई मेडल भी हासिल कर लिये हैं । फूर्ति से कहती है, पहले 20 हाथ नीचे से पानी खींचती थी। लेकिन आज दूसरों की प्यास बुझाती हूं। गांव वालों ने श्रमदान कर तालाब खुदवाया, जिसमें मछली पालन के साथ-साथ 200 एकड़ जमीन की सिंचाई भी हो रही है। आज हमारे पास खाने को है, पीने को पानी है, हमें देषबंदी में उतनी तकलीफ नहीं है, जितनी पलायन करने वाले मजदूरों की है। शहरी जीवन इस समय बहुत कठिन है, संकट में हम राह चलते श्रमिकों की मदद कर रहे हैं। रजावन गांव की लक्ष्मी भी कुछ इसी तरह की बात करती है, कि पहले कमाने के हम शहर जाते थे, अब शहर की जो हालत है, उसे देखकर लगता है, हमने सही समय पर मेहनत कर गांवों को आबाद किया । आज ये महिलाएं पितृसत्तात्म सत्ता को चुनौती दे रही है और घूंघट से बाहर निकलकर मुसीबत में दूसरों के काम आ रही हैं।
किसने सोचा था, संक्रमण के चलते लगभग 60 दिनों के लिए देशबंदी हो जायेगी और गरीब और मजदूरों के सामने भूखों मरने की नौबत आ जायेगी। इस समय जितने मजदूर घर वापस जा रहे हैं, वह सालभर पहले शायद ही शहरों की ओर रूख करें। कोविद-19 ने यह साबित कर दिया, कि परदेस- परदेस ही होता है, वह कभी अपनी भूमि, अपनी माटी का अहसास और सुकून नहीं दे सकता।
बुंदेलखण्ड इलाका जो कभी अपनी सांस्कृतिक विरासतें और ऐतिहासिक धरोहरों, प्राकृतिक एवं लाल्तिय उमंगो के लिए जानी जाती थी, लेकिन आज यह क्षे़त्र जल सहेलियों की सूझ-बूझ और उनके श्रम के लिए जानी जाती है।यहां की मेहनतकष जल सहेलियों ने ऐतिहासिक बावडि़या एवं कुंए, जो अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे थे, ऐसे कई बड़े जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया है। समय-समय पर इन महिलाओं के चर्चे विदेशी मीडिया में भी होती है।
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