Saturday, June 24, 2023

घटते शिशु लिंगानुपात ने बढ़ाई चिंता


 

                    9 Feb 2019

घटते शिशु लिंगानुपात ने बढ़ाई चिंता 

 सामाजिक संगठनों ने की संसदीय फोरम बनाने की मांग  
रूबी सरकार
 जनगणना 2011 के बाद जारी सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे और सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम दोनेां सरकारी स्रोतों ने राज्यों में जन्म के समय लड़कियों की संख्या में महत्वपूर्ण गिरावट दिखाई है। वर्ष 2012 से 16 के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों के अनुसार जिन राज्यों में जन्म के समय लिंग अनुपात में गिरावट देखी गई है, उनमें मध्यप्रदेश के अलावा आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल भी शामिल हैं। 
सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) ने पिछले 10 सालों में मध्यप्रदेश में 0 से 6 वर्ष आयु वाले बालकों के मुकाबले बालिकाओं की संख्या में वर्ष 2009 में कुछ सुधार आया था। इस वर्ष एक हजार बालकों के मुकाबले 938 बालिकाएं दर्ज की गई थी, लेकिन वर्ष 2010 में यह संख्या घटकर 922 हो गई। वहीं वर्ष 2011 में यह चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई। एक हजार बालकों के मुकाबले मात्र 897 बालिकाएं ही दर्ज की गई। वर्ष 2012 में कुछ सुधार के साथ 912 और  फिर वर्ष 2013 में बालिकाओं की संख्या घटकर 904 रह गई। इसी तरह वर्ष 2014 में लिंगानुपात 908, वर्ष 2015 में 904 और वर्ष 2016 में कुछ सुधार के साथ 909 दर्ज की गई है। इससे साफ ज़ाहिर है, कि शिशु लिंगानुपात 2021 की जनगणना में बालिकाओं के पक्ष में नहीं होगा, अगर आने वाले वर्षों में भी यही प्रवृत्ति बनी रही, तो  0-6 आयु वर्ग में प्रति हजार बालकों के मुकाबले 909 बालिकाओं से भी अनुपात नीचे चला जाएगा।  बेटियों के पक्ष में कानून और कई सरकारी योजनाओं के बावजूद बेटियों के मुकाबले बेटों की चाह समाज के लगभग सभी वर्गों और जातियों में बढ़ रहा हैं। इसके अलावा दहेज निषेध अधिनियम, महिलाओं के लिए सम्पत्ति का अधिकार (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम), घरेलू हिंसा अधिनियम के खराब क्रियान्वयन, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के साथ-साथ 2 बच्चों की मानक शर्त ने बालिकाओं की स्थिति में गिरावट में अहम योगदान दिया है। साथ ही इस तरह की सोच से  पितृसत्तात्मक मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। 
 लैंगिक समानता के लिए काम करने वाला संगठन गल्र्स काउण्ट के समन्वयक रिज़वान बताते हैं, कि जन्म के समय लिंग अनुपात में गिरावट  गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि यह अन्य कई कारकों के अलावा सीधे लिंग का पता लगाने में सक्षम तकनीक के दुरुपयोग से जुड़ा है। पहले लिंग परीक्षण और फिर लिंग आधारित समापन का पूरा संचालन गोपनीयता में किया जाता है। दम्पत्ति पहले यह पता लगाने के लिए  भुगतान करते हैं, कि क्या एक्स-वाई या एक्स-एक्स है और फिर एक्स-एक्स को खत्म करने के लिए डॉक्टरों को और अधिक भुगतान करते हैं। लड़कियों के प्रति यह भेदभावपूर्ण व्यवहार पिछले दो दशकों में अनियमित तकनीक तक आसान पहुंच के कारण काफी बिगड़ गया है। इसलिए मध्यप्रदेश में जन्म के समय गिरते लिंग अनुपात को ठीक करने के लिए पीसीपीएनडीटी एक्ट को कड़ाई से लागू कराना होगा।  पीसीपीएनडीटी अधिनियम के दायरे में लिंग निर्धारण की सभी तकनीक आती हैं, जिसमें  नवीनतम क्रोमोसोम पृथक्ककरण तकनीक भी शामिल है और यह कानून लिंग के खुलासे पर रोक लगता है। 
स्वी रोग विशेषज्ञ डॉ. नीलम सिंह ने अपनी चिंता को साझा करते हुए कहा, सरकार ने पिछले साल वर्षों में पीसीपीएनडीटी अधिनियम के कुछ नियमों में संशोधन कर बड़े पैमाने पर क्लिनिकल प्रैक्टिस में उभर रहे नए रूझानों का सामना किया है और क्लीनिकों को अनुशासित किया है जिन्होंने नियम से बचने के लिए नए तरीके खोज रखे थे। दूसरी ओर , चिकित्सा पेशेवरों ने देश में कानून की विभिन्न अदालतों में रिट याचिकाएं दायर करके पीसीपीएनडीटी अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है और कई बार गर्भवती महिलाओं को प्रसव पूर्व सेवाओं से वंचित करने की हद तक राज्य की कार्रवाई का भी विरोध किया है। 
वन बिलियन राइजिंग भारत के समन्वयक आभा भैया ने कहा, कि समस्या की तात्कालिकता और विशालता को देखते हुए घटते शिशु लिंगानुपात पर एक संसदीय फोरम की तत्काल आवश्यकता है, जिसमें जेंडर क्रिटिकल जिलों के सांसदों और विधायकों को शामिल किया जाना चाहिए। सदस्यों का मुख्य कार्य अपने जिलों में पीसीपीएनडीटी अधिनियम, दहेज, घरेलू हिंसा अधिनियम जैसे विधानों के कार्यान्वयन की बारीकी से निगरानी के लिए एक तंत्र विकसित करना चाहिए। सांसदों और विधायकों को जन्म के समय गिरते लिंगानुपात और इससे सभी संबंधित महत्वपूर्ण कारकों, पहलुओं जैसे की महिलाओं और लड़कियों की आर्थिक सशक्तीकरण, कौशल विकास, सुरक्षा, गतिशीलनता, आजीविका, सम्पत्ति का अधिकार, माध्यमिक शिक्षा के आगे सतत शिक्षा और सरकारी योजनाओं के पुनर्गठन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे और प्रशिक्षित  कर्मियों के साथ प्रभावी तंत्र स्थापित करना सुनिश्चित करना चाहिए। आदर्श रूप से फोरम में सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित कर एक पब्लिक-प्राइवेट दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 
 अधिवक्ता वर्षा देशपाण्डे ने कहा, कि संसदीय मंच को जल्द से जल्द स्थापित किया जाना चाहिए क्योंकि महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ भेदभाव का मुद्दा बहुत गहरा है और इसे सांसदों और विधायकों की प्रतिबद्धता के बिना संबोधित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा, कि देश की लड़कियों के लिए सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने में सभी को एक साथ आने और एकमत होने की आवश्यकता है। यह बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं बयान से आगे बढऩे का  समय है। 

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