ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गांव की याद
May 7, 2020
रूबी सरकारदारूण कोरोना संक्रमण काल ने हमें प्राचीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गांव की याद दिला दी। उस समय हर गांव की अपनी अर्थव्यवस्था हुआ करती थी । गांव में बढ़ई, नाई, लोहार, कुम्हार, माली के पास खेत नहीं होते थे, वे किसानों के घर जाकर साल भर सेवा किया करते और बदले में किसान, जमींदार साल भर के लिए फसल से उनका हिस्सा पहले निकालकर उन्हें दे दिया करते थे। उनके अलग-अलग हिस्से को ‘पर्जा पाऊनी‘ कहा जाता था । इसके अलावा किसानों के घर पर समय-समय पर जो मंगल प्रसंग होते थे, उसमें इनकी बड़ी भूमिका होती थी । शादी-व्याह का न्यौता देने नाई जाता था । मण्डप में लकड़ी की व्यवस्था बढ़ई तथा फूलों से सजावट माली, सबका काम बंटा होता था और बदले भी इन्हें किसानों से अनाज ही मिलता था । सिक्कों का कोई प्रचलन नहीं था। अंग्रेजों ने सबसे पहले दो चीजों से गांव वालों को परिचित कराया। एक मिट्टी का तेल और दूसरा माचिस। इससे पहले गांव में पड़ोस से आग मांगने की प्रथा चलती थी। आग किसी न किसी रूप में पड़ोस के घरों में जलती रहती थी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव आया, तो बिचौलियों की भूमिका अहम होती चली गई। पहले बिचौलियों को बनिया कहा जाता था, बाद में अन्य लोग भी बिचौलियों का काम करने लगे, जो किसानों से सस्ते दामों में गल्ला खरीदते और उसे शहर ले जाकर ज्यादा दामों में बेचते थे। इस तरह गांव में बिचौलिया समृद्ध होता चला गया और किसान कमजोर । आगे चलकर बिचौलिया शहर से गांव में जरूरत का सामान भी लाने लगा और साथ में सिक्के और नोट भी। इससे पहले जरूरत का सामान गांव में ही आपस में आदान-प्रदान होता था। इस तरह गांव में बिचौलिया इतना मजबूत होता चला गया,कि वह जमींदार को भी पैसा उधार देने लगा। जमींदार से पहले किसानों को खाद-पानी के लिए उधार लेने की परंपरा शुरू हो चुकी थी। गांव में बिचौलियों को शोषक के रूप में जाना जाने लगा और गांव की अर्थव्यवस्था बिगड़ती चली गई। खेती लाभ का धंधा नहीं रह गया, जिनके पास खेेत नहीं थे, जो खेतीहर मजदूर थे, उन्हें गांव में पैसे कम मिलने लगे और वे गांव से शहर की ओर पलायन करने लगे । अब तक पश्चिम की तर्ज पर शहरों में बेतहाश उद्योग-धंघे खुलने लगे थे , जहां गांव के लोग आकर मजदूरी करने लगे।
अब कोरोना-काल ने एक चीज साबित कर दिया, कि आदमी पैसा कमाने के लिए गांव से भागकर शहर जरूर आया, लेकिन उसकी आत्मा गांव में बसती है। लाखों मजदूर किसी भी क्षेत्र के हों, किसी भी जिले या राज्य के हो, सब हजारों किलोमीटर पैदल चलकर, साईकिल पर, नदियों में तैरकर, डण्डे खाकर भी भागकर गांव पहुंचना चाहते थे । सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे शहर में रूकने को तैयार नहीं है, भले ही उनकी जान क्यों न चली जाये। स्वयं सेवी संगठन सेव लाइफ फाउंडेषन के अनुसार देष में 24 मार्च से 14 अप्रैल और 14 अप्रैल से तीन मई तक लॉकडाउन के दौरान देषभर में 600 से ज्यादा सड़क हादसे हुए। इनमें 140 से ज्यादा लोगां की मौत हो गई। इनमें से 100 से ज्यादा लोगों की मौत सिर्फ नौ राज्यों में हुई है। दिल्ली, महाराष्ट््र, गुजरात, असम, केरल, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा सड़क हादसे हुए हैं। सड़कों के किनारे रहने वाले लोगों के अलावा शेष 30 फीसदी मौतें उन प्रवासी मजदूरों की हुई, जो लॉकडाउन के कारण अपने घर वापस जा रहे थे। मजदूरों के साथ लूट की घटनाएं भी हुई।
कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन के दौरान यह बड़ा बदलाव देखा गया, जो यह साबित करता है, कि पश्चिम की तर्ज पर नीतियां बनाकर अब तक जो गांव को कमजोर किया जा रहा था, वह ठीक नहीं था। गांधी जी कहा करते थे,कि भारत की आत्मा गांव में बसती है, खेती को कमजोर मत करो, शहरों में उद्योगों को बढ़ावा मत दो, यह सारी बातें अब लोगों के समझ में आने लगी है। अभी तक गांव से सस्ते मजदूरों को लाकर शहरों में काम दिलाया , उनके रहने के लिए शहरों में बेतहाशा स्लम्स बसाये। जिसमें मजदूर नारकीय जीवन जीते थे । अब उनका इससे मोह भंग हो गया है। उन्हें लग रहा है, कि गांव में सामाजिक -आर्थिक और धार्मिक सुरक्षा अभी भी बहुत मजबूती के साथ जिन्दा है। गांव में भावनात्मक सुरक्षा भी है, अगर मरेंगे तो गांव में मरेंगे क्योंकि शहर में हमारा कोई नहीं है ।
बहरहाल जब भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बात होती है, तो नजरों के सामने केवल खेत और खेती का चित्र उभरता है. जबकि सच यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े उद्योगों की तुलना में ज्यादा विकल्प और विविधताएं हैं. हथकरघा से लेकर कृषि-उद्यानिकी आधारित उद्योग, वन उपज पर आधारित उद्योग से लेकर कला, संस्कृति, निर्माण कौशल, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक 100 से ज्यादा विकल्प नजर आते हैं. अब इन विकल्पों को एकसाथ जोड़कर यानी इनका एकीकरण करके नए भारत के निर्माण की नीति बनाने की जरूरत ह।.
नए भारत की नीति निर्माण की प्रक्रिया कोई केंद्रीयकृत प्रक्रिया नहीं होगी. हर क्षेत्र, हर जिले की अपनी विविध पहचान, क्षमताएं और संसाधन हैं, उनका उपयोग करने के उद्देश्य से ही यह नीति बनना चाहिए. इसमें एक शर्त यह होगी कि स्थानीय संसाधन स्थानीय क्षेत्र के दायरे से बाहर नहीं भेजे जायेंगे. कोई भी वस्तु या संसाधन इन क्षेत्रों से उसी स्थिति में बाहर भेजे जायेंगे, जब वे अधिकता में होंगे और उनका उपयोग किसी अन्य क्षेत्र के विकास के लिए किया जाएगा।
बड़ी संभावना है कि कोरोना-कोविड19 के संक्रमण काल के दौरान हुए अनुभवों के बाद इन पांच करोड़ मजदूरों में से अधिसंख्य मजदूर लम्बे समय तक वापस पलायन पर नहीं जायेंगे या नहीं जाना चाहेंगे। यही वक्त है ऐसी नीतियां बनाने का, जिनसे स्थानीय स्तर पर छोटे और ग्रामीण उद्योगों का विकास हो. पारंपरिक उद्योगों के विकल्पों (मसलन हथकरघा, वन और कृषि आधारित उद्योग आदि) की संभावनाओं की मैपिंग की जाए और उनका विकास किया जाये।
लॉक डाउन के बाद सरकार चाहे तो गांधी का सपना साकार कर सकती है। गांव को मजबूत कर ग्रामोद्योग को बढ़ावा दे सकती है।
मनरेगा को प्रत्यक्ष रूप से कृषि और इससे सम्बद्ध कार्यों से जोड़ा जाये। मसलन 50 फीसदी कृषि मजदूरी का भुगतान मनरेगा से किया जाये ताकि आर्थिक संकट में फंसे किसानों पर से आर्थिक बोझ कम हो और कृषि उत्पादों की उत्पादन लागत भी कम हो। गांव के लोग आत्मनिर्भर बनें, तो शहरों में पानी, बिजली स्लम्स आदि का दबाव खत्म होगा। इसके अलावा उद्योगों में मजदूरों का शोषण रूकेगा। कोरोना काल ने मजदूरों के गांव की ओर पलायन के जो दृश्य दिखाये वह आंखें खोलने के लिए काफी है ।कोरोना ने असुरक्षा बढ़ाकर इंसान को बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पंचायती राज दिवस के मौके पर देशभर के सरपंचों से चर्चा करते हुए यही कहा, कि कोरोना वायरस ने हमें सबसे बड़ा सबक सिखाया है, कि हमें आत्मनिर्भर बनना है। इस वायरस ने काम करने के तरीके को बदला है। प्रधानमंत्री ने पंचायत, जिले व राज्य को आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ अपनी जरूरतों के लिए बाहरियों का मुंह न देखने की बातें बताई। अगर इसी तर्ज पर ग्रामोद्योग को बढ़ावा मिले और शहरों में उसके लिए बाजार उपलब्ध कराये जाने की दिषा में काम हो, तो भागकर गांव जाने वाले मजदूर वहीं रहेंगे। इसके लिए सरकार को योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा।
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