अनाज, पेड़-पौधों व जानवरों से बना भूरी बाई का रचना संसार
रूबी सरकार
भारतीय भील कलाकार भूरी बाई को वर्ष 2021 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया । भील जनजाति की संस्कृति को दीवारों और कैनवास पर उकेरने वाली मध्यप्रदेश की भूरी बाई को जब महामहिम राष्ट्रपति ने नई दिल्ली में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया , तो उनके चेहरे की चमक देखते ही बनती थी।
कागज और कैनवास पर पेंटिंग करने वाली भील समुदाय की पहली महिला भूरी बाई अपने 1980 के काम का वर्णन करती हुई कहती हैं, कि यह एक परिवार है जो होली से लगभग आठ दिन पहले शुरू होने वाले भगोरिया के त्यौहार में शामिल होने जा रहा है। माता-पिता के पांच बच्चे हैं, और सभी बच्चे रो रहे हैं, त्योहार देखने के लिए अड़े हैं। माता-पिता भ्रमित हैं, उन्हें आश्चर्य है कि वे सभी बच्चों को कैसे ले सकते हैं। इसलिए वे एक बड़ा लकड़ी का लट्ठा लेते हैं, एक सिरा पिता के कंधे पर और दूसरा सिरा माता के कंधे पर रखते हैं, और बच्चे सभी लट्ठे पर बैठकर भगोरिया देखने जाते हैं।” यह उनकी अद्वितीय दृश्य शब्दावली और पितृसत्तात्मक निर्माणों को तोड़ने के लिए है।
दरअसल आदिवासी कलाकारों ने दुनिया के जितने भी चित्र खींचे, वे उनके अनुभव, उनकी स्मृति, और कल्पना में उपजे थे और उन्हें देखने वाली आंखों से भी यही सब कुछ अभीष्ट था और है।
शिखर सम्मान, अहिल्याबाई सम्मान, दुर्गावती सम्मान जैसी अनेक राजकीय और राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित भूरीबाई जब-जब सम्मानित हुई, तो वह अपने मार्गदर्शक मूर्धन्य कलाकार और कला पारखी जगदीश स्वामीनाथन को याद करना नहीं भूलीं। हमेशा कदम-कदम पर उन्हें याद कर वह भावुक हो उठती है, क्योंकि भूरी उन्हीं की खोज है। भूरी तो मेहनत-मजूरी करने अपने गृह नगर पिटोल गांव, झाबुआ से भोपाल आई थीं। भारत भवन के निर्माण के समय भूरी की कला प्रतिभा को स्वामीनाथन ने ही पहचाना तथा चित्र बनाने के लिए उन्हें लगातार प्रेरित भी किया। आर्थिक चिंता से मुक्त होकर भूरी बाई चित्र रचना कर सकें, इसके लिए स्वामीनाथन ने उन्हें अपेक्षित आर्थिक मदद भी की। रचनाशीलता के लिए वातावरण विकसित करने में स्वामीनाथन का योगदान सबके लिए अविस्मरणीय है और भूरी बाई की कलायात्रा में स्वामीनाथन की भूमिका प्रणम्य है।
फरवरी 2016 में भारत भवन की 34वीं वर्षगांठ पर भूरी बाई के चित्रों की एक वृहद प्रदर्शनी लगायी गयी थी, प्रदर्शनी में शामिल कलाकृतियां भूरी बाई की भारत भवन के परिप्रेक्ष्य में स्मृति आधारित कलाकृतियांे को शामिल किया गया था। तभी भूरी से मेरी लम्बी बातचीत भी हुई थी।
दरअसल बचपन में ही भूरीबाई के नाम के आगे लिखमा जोखारी (यानी भील समुदाय इन्हें हर मनुष्य का कर्म लिखने वाली देवी मानता है।) ने जन्म के समय ही लिख दिया था चित्तर काज। लेकिन भूरी बाई और बाकी सारी दुनिया को इस बात का पता चलने में देर लगीं । पहले तो भूरी बाई यही सोचती थीं कि उनके भाग्य में मेहनत , मजूरी , सिर पर बोझ ढोना लिखा है।
गांव मोटी बावड़ी, जिला झाबुआ के एक मिट्टी की दीवार और सागौन के पत्तों से छवाए गए छप्पर वाले घर में भूरी बाई ने जन्म लिया। किसी को नहीं पता कि कौन सा वर्ष था, कौन सा महीना, कौन सी तारीख-क्या उस रोज आसमान में बादल थे! या वे खाखर के फूलने के दिन थे! खैर भूरी बाई को जन्म की तारीख, महीना, साल आदि भले ही न मालूम हो , लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, बस उसके जन्म का मकसद क्या है ! इसे लिखमा जोखारी ने बड़े साफ-साफ शब्दों में लिख दिया था।
छोटी-सी भूरी घर के आंगन में भाई-बहनों के साथ खेलती, पिता पिद्या बवेरिया डागड़े के नीचे बैठे हुक्का पीते रहते। मां लखू बाई आंगन बुहारती। घर के आगे खलिहान में लगे सेमल के पेड़ पर सरकली चिड़िया फुदकती रहती। उसी पेड़ के नीचे पलेंडी पर मां पानी के दो मटके भर कर रख देती। भूरी को याद है, हर साल बिल्ली डागड़ की छत पर ही बच्चे देती थी।
थोड़ी बड़ी हुई, तो मां के साथ खेत पर खाना लेकर जाने लगी। भादो के महीने में अनाज पकने पर हर घर में नेवोज पूजा होती है। तब नई फसल की मक्का का ही घाट बनता है। मां आटे से चौक लिखती। खाखर के पत्तों पर मक्के के घाट का नेवोज घर के देवी-देवता को चढ़ाया जाता। उन्हें महुआ की दारू की धार दी जाती। पूजा के बाद ही सारे बच्चों और फिर बड़ों की बारी आती। माता-पिता के पास खेती बहुत कम थी, उसके घर का गुजारा मुश्किल से हो पाता था। सो जल्दी ही भूरी और उनकी बड़ी बहन जमींदार के खेत पर निदाई करने जाने लगीं। दिन भर निदाई करने के बाद शाम को एक रुपया जमींदार की तरफ से मिलता था। लेकिन जमीदार के खेतों में हमेशा काम नहीं मिलता था। ज्यादातर समय दोनों बहनें पीपल के पत्तों का या सूखी, जंगल से इकट्ठा की गई टहनियों का गट्ठर ले दाहोद जाती और वहां उन्हें दो रुपए किलों के मोल से एक आदमी को बेचतीं। गांव से कोई चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर अणास रेलवे स्टेशन से दोनों बहनें सुबह 11 बजे साबरमती एक्सप्रेस पकड़ कर दाहोद पहुंचती और शाम फिर दाहोद से यही ट्रेन पकड़ कर अणास लौटती । दोनों बहनें कड़ी मेहनत करतीं, तब जाकर घर का खर्च चलता था। बाकी सारे भाई -बहन छोटे थे और पिता कुशल मिस्त्री थे, फिर भी दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाते थे।
पिटोल में दाहोद के एक सेठ की दुकान थी, जहां भूरी के पिता की उधारी चलती थी। ऐसी उधारी जो कभी पट नहीं पाती थी। फकरू सेठ के छोटे भाई का घर दाहोद में बनना था और उधारी पटाने की गरज से भूरी बाई के पिता ने अपनी दोनों बेटियों के साथ इस घर के निर्माण का काम करने दाहोद जाने को राजी हो गए। यही से भूरी बाई का निर्माण कार्यों में भाग लेना शुरू हुआ और फिर दोनों बहनें अपने चाचा के साथ भोपाल मजदूरी करने आ गईं। भूरी बाई जब भोपाल मजदूरी करने आईं, तब उनकी उम्र करीब 14 साल थी। इस बीच उसकी शादी भी हुई।
भूरी बाई अपनी बहन, ननद और गांव के अन्य लोगों के साथ भारत भवन के निर्माण के समय मजदूरी कर ही रही थी, कि एक दिन मूर्धन्य चित्रकार स्वामीनाथन की नजर इन लोगों पर पड़ी और उन्होंने पूछा, कि तुम लोग किस समाज से हो। क्या तुम अपने समाज की रीति-रिवाज चित्र के जरिये हमें बता सकते हो। चूंकि भील समुदाय घर की दीवारों पर चित्र बनाया करते थे, लिहाजा सभी ने उसी तरह के चित्र भारत भवन के पास मंदिर के चबूतरे पर बनाए और हर दिन इन चित्रों के 10 रुपए नगद मिलने लगे। स्वामी जी को भूरी के चित्र बहुत पसंद आये और उन्होंने भूरी के साथ-साथ और भील चित्रकारों को अपने घर बुलाया । 10 चित्र बनाने के बाद इन लोगों को प्रति चित्र 1500 रुपए मिले। भूरी को विश्वास ही नहीं हुआ, कि आराम से बैठकर चित्र बनाने के लिए कोई उन्हें इतने रुपए देगा। इस तरह भूरी आगे बढ़ती गई। एक दिन उसे पता चला, कि उसे राज्य सरकार का शिखर सम्मान मिला है। शिखर सम्मान मिलने के बाद भूरी बाई को सभी पहचानने लगे और समाज में भी उनकी इज्जत बढ़ गई। देश में कई जगहों से चित्र बनाने के लिए बुलावे आने लगे। अब तक भूरी के 6 बच्चे हो चुके थे। इस बीच वह बीमार पड़ी, उसके बचने की उम्मीद नहीं थी। तब वह आदिवासी लोक कला परिषद के तत्कालीन निदेशक कपिल तिवारी से मिलीं और अपनी तकलीफ बताई। श्री तिवारी ने लम्बे समय तक भूरी के इलाज का बंदोबस्त ही नहीं किया, बल्कि बतौर आदिवासी कलाकार उसे नौकरी भी दे दी। इसके बाद से तो भूरी के काम के चर्चे पूरी दुनिया में होने लगे। शिखर सम्मान के बाद वर्ष 2010 में उसे राष्ट्रीय दुर्गावती सम्मान से नवाजा गया । भूरी कहती है कि बचपन से ही आसमान में हवाई जहाज को उड़ता देख उन्हें उसमें बैठने का मन करता था। आखिरकार उनकी यह इच्छा भी पूरी हो गई। आज भूरी बाई अपने बच्चों के साथ रहती है। पति का स्वर्गवास हो चुका है।
कोई 45 साल पहले लिखमा जोखरी ने भूरी बाई के नाम के आगे चित्तर काज लिखा था , इसे भूरी बाई ने दिनों-दिन बढ़ती लगन से करती जा रही है। भूरी बाई लाखों आदिवासी कलाकारों की प्रेरणास्रोत हैं। आज राजधानी भोपाल में सैंकड़ों आदिवासी कलाकार छोटे-छोटे गांव से आकर यहां अपनी पेंटिंग्स के जौहर दिखा रही हैं, सम्मान और पैसा दोनों उन्हें मिल रहा है।, इससे उनके सपने बड़े हो गए हैं। वे सब आत्मनिर्भर हो गई हैं।
भूरी बाई बताती हैं कि बचपन से त्यौहार या शादी-ब्याह के मौके पर वे घर की दीवार पर मुट्ठी को सफेद मिट्टी में डूबा कर ठप्पे बनाती थीं, जिन्हें सरकला कहते हैं। वे इसके साथ-साथ पेड़-पौधे, जानवर भी बनाती थीं। भूरी बाई कहती है कि आज ज ब वह चित्र बनाती हैं तो धरती से पैदा होने वाले इतनी तरह के अनाज पेड़-पौधों के प्रति एक आभार का भाव महसूस करती हैं। चित्रों में यह बनाना एक तरह से उन्हें बचपन में माता-पिता द्वारा नए अन्न की पूजा-करने जैसा लगता है। भूरी काम करते हुए आज भी जगदीश स्वामीनाथन के आर्शीवाद को सतत महसूस करती है और उन्हीं से काम की प्रेरणा पाती हैं । 21 Nov 2021
आदिवासी चित्रकारी में बसा है भूरी बाई का रचना संसार
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