Monday, June 12, 2023

मासिक धर्म को लेकर भ्रांतियों से भरा है ग्रामीण समाज


                                                     Sonam Harda dist

 मासिक धर्म को लेकर भ्रांतियों से भरा है ग्रामीण समाज


रूबी सरकार


भारत के ग्रामीण इलाकों में करोड़ों महिलाएं और किशोरियों माहवारी की आयु में हैं। तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद आज भी गांवों में माहवारी  को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। ग्रामीण इस विषय पर खुलकर बात करने से झिझकते हैं। इस विषय को लेकर गांव में बातचीत करना सख्त मना है। यही कारण है कि गांव की किशोरियों और महिलाएं माहवारी  के दौरान एक ही कपड़े का बार-बार इस्तेमाल करती हैं । वे साफ-सफाई का ध्यान नहीं रख पाती, यही कारण है कि उन्हें कई तरह की गंभीर बीमारियों का बना रहता हैं।
 मध्यप्रदेश के लगभग सभी गांव की किशोरियों को माहवारी की बात छुपानी पड़ती है। महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर सिस्टम की उदासीनता के चलते महिलाओं में माहवारी को लेकर जागरूकता की कमी है , वहीं  पैड   का इस्तेमाल न करने से उससे होने वाली गंभीर बीमारियों से भी महिलाएं अंजान हैं। योजना के बावजूद हरदा जिले के आंगनबाड़ी केंद्रों पर सेनेटरी पैड नहीं मिलता है।
फिर भी गांवों की आदिवासी और अनुसूचित जाति की किशोरियों जब शहर के आवासीय विद्यालय में पढ़ने जाती हैं, तो वहां उन्हें आपस में इस विषय पर बात करने का मौका मिलता है।वहां वे माहवारी के दौरान वे सेनेटरी  पैड   का इस्तेमाल करती हैं, तब उन्हें  एहसास होता है कि माहवारी में यह पैड कितना सुरक्षित है। जब यही   किशोरी   छुट्टियों के दिन गांव वापस आकर इस विषय पर  बात करने की कोशिश करती, तो घर की बड़ी उम्र की महिलाएं डांट लगा देती हैं।
इन्हीं में से एक किशोरी अनुसूचित जाति की  17 वर्षीय सोनम खातरकर है, जो हरदा जिले से 25 किलोमीटर दूर  सिंधखेड़ा गांव में रहती है। सोनम बचपन से ही जिज्ञासु रही हैं। दरअसल वह अपने पिता की दूसरी पत्नी से पैदा हुई बेटी है। मजदूर पिता कमल खातरकर की दूसरी शादी की वजह से बचपन से ही उसने  घर पर अभाव और बहुत कलह देखा है। जिसने उसे मजबूत और तर्कशील बना दिया है। सोनम बताती है कि उसने बचपन में अपनी मौसी को माहवारी के दौरान हाइजीन का ध्यान न रखने का खामियाजा भुगतना पड़ा था। उनकी बच्चेदानी में संक्रमण के कारण उनका ऑपरेशन हुआ था।
 सोनम कहती है कि मासिक धर्म एक सामान्य प्रक्रिया है , इसमें बेवजह छुआछूत और भ्रांतियां फैलाई जाती है। इस विषय पर किशोरियों को चुप्पी तोड़कर खुलकर बात करनी चाहिए । उसने कम उम्र में अपनी एक सहेली को उसके भाई से सिर्फ इस वजह से पिटते देखा है कि उसके कपड़े का दाग बाहर वालों ने देख लिया था। सोनम कहती है कि ' गांव में आज भी इस्तेमाल किए कपड़ों को अंधेरे में छिपाकर सुखाया जाता है, फिर उसे दोबारा उपयोग में लिया जाता है '। सोनम अपने गांव में इसे लेकर बेझिझक बात करने लगी। हालांकि उसकी मां नरगदी बाई और ग्रामीण उसे इसी बात को लेकर डांट लगाते है। ऊंची जाति वाले तो उससे बात भी नहीं करते। सोनम कहती है कि माहवारी के दौरान आठ किलोमीटर पैदल चलकर किशोरियां को स्कूल जाना पड़ता है। सोचिए कितनी तकलीफदेय है। इसकी परवाह किसी को नहीं है।  आंगनबाड़ी केंद्रों पर 5 रुपए में मिलने वाली  सेनेटरी पैड भी कभी नहीं मिलते देखा।  दूसरी तरफ अशिक्षा, जागरूकता की कमी और आर्थिक कारणों से महिलाएं  पैड्स का इस्तेमाल नहीं कर पातीं। सोनम अपने और आसपास के जैसे झिझि गांव की किशोरियों को इकट्ठा कर माहवारी पर चर्चा करती है। बावजूद इसके सोनम के गांव की ही 17 साल की ज्योति लोचकर  इस विषय पर बात करने से झिझकती हैं।  ज्योति, सोनम की समुदाय से आती है, परंतु वह सोनम जैसी नहीं बन पायी।   वह इसे बिल्कुल निजी मसला मानती हैं। ज्योति कहती है कि ''मां ममता लोचकर इस विषय पर बात करने से मना करती हैं '। ममता लोचकर कहती है कि 'सदियों से हम लोगों   ने यही देखा है, कभी अपने परिवार के बड़े बुजुर्गों से इस बात को लेकर बहस नहीं की'। वह कहती है कि 'यह एक बीमारी है, इसमें गंदा खून निकलता है और लड़कियां 5 दिन के लिए  अपवित्र   हो जाती है'।
वहीं दुर्गाडा गांव की मुस्कान धनोरे बताती है कि ' पिछले साल तक हमारे परिवार में माहवारी पर बात करने की मनाही थी और हम बहनें कपड़ों का ही इस्तेमाल करते थे। हॉस्टल में जाने के बाद हमने पैड्स के बारे में जाना'। मुस्कान बीए तृतीय वर्ष की छात्रा हैं । अनुसूचित जाति और मजदूर परिवार की होने के बावजूद मुस्कान के परिवार में सभी भाई बहन पढ़े-लिखे हैं। मुस्कान कहती है कि 'बचपन में मां कहती थी कि  माहवारी के दौरान बहने अपना छुआ खाने की कोई चीज भाई या परिवार के किसी पुरुष सदस्य को खिला दे, तो उस व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा '। इस बात को लेकर हम बहनंे  इतने भयभीत रहते थे कि एकदम अलग-थलग रहते थे। क्योंकि हमें अपनी रक्षा के लिए पुरुष सदस्य की जरूरत जो है '। मुस्कान की बड़ी बहन गांधी फेलोशिप के तहत झारखंड में अध्ययन कर रही हैं। मुस्कान बताती है कि इतने सालों में इतना ही परिवर्तन आया कि हम लोग अपनी मां से माहवारी को लेकर बात कर सकते हैं। हाइजीन का ध्यान रख सकते है। समझ लीजिए गांव में 20 फीसदी ही जागरूकता आई है।  

हरदा शहर का रहने वाला 22 वर्षीय गोंड जनजाति का युवा अनिल सरयाम  बताते हैं कि ' हमारी दो बहनें हैं । हमारे परिवार में उन 5 दिनों में बहनों को अलग कमरे में रखा जाता है। बचपन में इस बात को जानने की बहुत उत्सुकता थी, परंतु झिझक थी।  अब बहनों से पूछ लेते हैं। लोगों की मानसिकता का क्या कहे, जब बहनें अलग कमरे में रहती हैं, तो दोस्त हमें ही ताना मारते थे। बड़े भाई, मां या पिता से कभी इस संबंध में कोई बात नहीं की '। मां कृपा बाई आज भी मासिक धर्म की बात पूछने पर कहती हैं कि ' बाहर यही सब सीखने जाते हो। यह सब गंदी बातें है। इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए '। 'अब तो मेरी भांजी हमारे परिवार के साथ रहती है और मैं मां से छुपाकर उसके लिए सेनेटरी पैड खरीदकर लाता हूं '। कृपाबाई कहती हैं कि ' यह सब शादी के बाद लड़के अपने आप जान जाते हैं इस विषय पर पहले से जानने की जरूरत क्या है'।
हरदा जिले के झंुड गांव का रहने वाला आशीष सरवरे भी अनुसूचित जाति से हैं। उसने बताया ' हमारे घर पर मासिक धर्म के दौरान रसोई और पूजा घर में जाने की मनाही है। लेकिन मां सरिता सरवरे आंगनबाड़ी सहायिका हैं, इसलिए हमारे घर पर इस विषय को लेकर  चर्चा होती रहती है '। आंगनबाड़ी सहायिका सरिता कहती हैं कि ' मध्यप्रदेश सरकार की उदिता योजना के तहत किशोरियों को 5 रुपए में सेनेटरी पैड बांटने का नियम हैं। परंतु जब हमारे पास ही स्टाक नहीं है, तो हम कहां से देंगे। इसलिए पिछले एक साल से हमारे केंद्र में सेनेटरी पैड नहीं बंटा '।
मध्यप्रदेश महिला बाल विकास विभाग के संयुक्त संचालक सुरेश तोमर बताते हैं कि ' दरअसल आंगनबाड़ी में पैसों का कलेक्शन करने में दिक्कत आ रही थी। दूसरी बात गांव में मजदूरों के पास इतने पैसे नहीं होते  िक वे 5 रुपए में एक सेनेटरी पैड खरीद पाएं, इसलिए खरीदार भी नहीं मिलते । यही कारण है कि अब आंगनबाड़ी केंद्र में सेनेटरी पैड नहीं है ' ।उन्होंने कहा कि ' शहरों के स्कूल  -कॉलेजों में भी डिस्पेंसिंग मशीन लगाई गई थी। वह भी सफल नहीं हुआ। सरकार के लिए व्यापार करना मुश्किल है। पैड न मिलने की संभवत यही वजह हो सकती है '।
वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ शीला भंबल कहती हैं कि 'मासिक धर्म के दौरान महिलाओं में 70 फीसदी संक्रमण साफ-सफाई के उचित तरीके नहीं अपनाने से होता है । क्योंकि माहवारी   के दौरान जननांग मार्ग में हार्मोनल बदलाव आने से कुछ परिवर्तन होते हैं और पुराने कपड़ों का इस्तेमाल इस संक्रमण में कई गुना बढ़ा देती है। यौनांगों की साफ-सफाई नहीं होने से महिलाओं में गर्भाशय ग्रीवा सर्विक्स कैंसर के मामले भी देखे जा रहे हैं और यह ह्यूमन पेपिलोमा वायरस से होता है। इन सब बीमारियों के इलाज में इतना खर्च आता है कि तब समझ आएगा कि इससे अच्छा होता कि एक सेनेटरी पैड ही खरीद लेते। अगर महिलाएं सूती कपड़ा इस्तेमाल कर भी रही हैं तो उसे अच्छे से साफ कर कड़क धूम में सुखाना चाहिए या फिर उस पर गर्म आयरन चला लेना चाहिए। परंतु शर्म के मारे महिलाएं ऐसा नहीं करती , इसलिए उन्हें चाहिए  िक वह एक बार उपयोग में लाए गए कपड़े को  डिस्पोज कर दें। यही सही तरीका है। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि देश की अधिकतर महिलाएं सेनेटरी पैड्स नहीं खरीद सकती हैं। इसलिए सरकार को सस्ती दरों पर पैड्स उपलब्ध कराने की नीति पर ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा स्कूली छात्राओं को स्कूल में माहवारी के बारे में जानकारी देने की पहल भी जरूरी है। यह एक ऐसा विषय है, जहां पिता और भाई को भी बेटियों के साथ इस विषय पर  बात करनी चाहिए।  यह बहुत संवेदनशील मामला है। इसके लिए महिलाओं और स्वयंसेवी संस्थाओं को सरकार को पत्र लिखना चाहिए कि सरकार गरीब महिलाओं को मुफ्त में सेनेटरी पैड्स उपलब्ध कराएं' ।
हरदा के सामाजिक कार्यकर्ता विष्णु जायसवाल बताते हैं कि ' ग्रामीण क्षेत्रों में माहवारी के दौरान महिलाओं को रसोई घर में घुसने और पूजा कार्यों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाती है। इसे पवित्रता और अपवित्र के दायरे में बांध दिया गया है । इसलिए इस विषय पर अधिक से अधिक जागरूकता लाए जाने की जरूरत है। इसे सामाजिक वर्जना नहीं बनाना चाहिए' ।

                                                                          20 November 2022


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