महिला पंच-सरपंच
Ruby Sarkar
लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण इकाई है पंचायत। वर्तमान में मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था में पंच और सरपंचों के आधे पद महिलाओं के लिये आरक्षित हैं। राजनीतिक दृष्टि से महिलाओं को बराबरी का हक मिलना एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। व्यापक स्तर पर भागीदारी करने वाली महिला प्रतिनिधियों की भूमिका के बारे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है, कि जब सत्ता में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो नेतृत्वकारी महिलाएं अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए निर्णय में भागीदारी निभायेंगी और ग्रामीण विकास के वास्तविक तथा जरूरी काम करेंगी। वे प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और निर्णय जैसे अहम पहलू पर भी काम कर सकेंगी। इसके साथ ही नेतृत्वकारी महिलाएं संगठित ताकत के बल पर महिला हिंसा के विरूद्ध खुल कर काम कर सकेंगी, जिससे समाज में जड़ जमा चुकी समस्याएं जैसे लिंग आधारित भेदभाव गर्भपात , बाल विवाह, दहेज प्रथा, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसाएं भी पूरी तरह खत्म हो जायंेगी। इससे भी आगे तब स़्त्री-पुरुष गैर बराबरी का ढांचा भी ध्वस्त हो जायेगा। साथ ही अपनी भूमिका को आत्मसात कर वे ग्रामीण क्षेत्र में कई तरह के रचनात्मक काम कर सकेंगी। उनके इस कदम पर बारीकी से विष्लेषण करना जरूरी हैं। जानकार बताते हैं, कि महिला सशक्तिकरण में मध्य प्रदेश अन्य राज्यों से आगे है।
प्रदेश के विभिन्न जिलों में महिला पंच-सरपंचों द्वारा पंचायत में निभाई गई भूमिकाओं का आंकलन करें, तो तीन तरह के बदलाव साफ तौर पर देखने को मिलने है, महिला- पारंपरिक वर्चस्व केा खत्म कर पंचायत की बागडोर अपने हाथों में लेना और सामाजिक न्याय की स्थापना करना । महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने समाज में गरीब-वंचित लोगों को उनके हक दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दूसरा- सार्वजनिक सेवाओं और सुविधाओं को बेहतर बनाकर लोगों की उन तक पहुॅच बनाना । इससे कुपोषण कम करने , बच्चों को स्कूल से जोड़ने, पलायन, भुखमरी और गरीबी दूर कर रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिली है तथा तीसरा- बदलाव महिला हिंसा से मुक्ति ।महिलाओं के साथ घर और घर से बाहर होने वाली हिंसा से सुरक्षा का कोई ठोस तंत्र ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं है। सामाजिक और तकनीकी जटिलताओं के कारण कई महिलाएं हिंसा करने वालों पर कानूनी कार्रवाई नहीं कर पाती है । इस दषा में महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने महिला समूहों, साझा मंच एवं ग्रामसभा के जरिए महिला हिंसा से मुक्ति का वातावरण बनाया और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्रवाई की प्रक्रिया में भी आगे बढ़ने का प्रयास किया । जिससे हिंसा मुक्त समाज का निर्माण हो सके।
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समाज और राजसत्ता के ताने-बाने में वजूद बनाती सरपंच फूलाबाई
लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण इकाई है पंचायत। वर्तमान में मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था में पंच और सरपंचों के आधे पद महिलाओं के लिये आरक्षित हैं। राजनीतिक दृष्टि से महिलाओं को बराबरी का हक मिलना एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। व्यापक स्तर पर भागीदारी करने वाली महिला प्रतिनिधियों की भूमिका के बारे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है, कि जब सत्ता में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो नेतृत्वकारी महिलाएं अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए निर्णय में भागीदारी निभायेंगी और ग्रामीण विकास के वास्तविक तथा जरूरी काम करेंगी। वे प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और निर्णय जैसे अहम पहलू पर भी काम कर सकेंगी। इसके साथ ही नेतृत्वकारी महिलाएं संगठित ताकत के बल पर महिला हिंसा के विरूद्ध खुल कर काम कर सकेंगी, जिससे समाज में जड़ जमा चुकी समस्याएं जैसे लिंग आधारित भेदभाव गर्भपात , बाल विवाह, दहेज प्रथा, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसाएं भी पूरी तरह खत्म हो जायंेगी। इससे भी आगे तब स़्त्री-पुरुष गैर बराबरी का ढांचा भी ध्वस्त हो जायेगा। साथ ही अपनी भूमिका को आत्मसात कर वे ग्रामीण क्षेत्र में कई तरह के रचनात्मक काम कर सकेंगी। उनके इस कदम पर बारीकी से विष्लेषण करना जरूरी हैं। जानकार बताते हैं, कि महिला सशक्तिकरण में मध्य प्रदेश अन्य राज्यों से आगे है।
प्रदेश के विभिन्न जिलों में महिला पंच-सरपंचों द्वारा पंचायत में निभाई गई भूमिकाओं का आंकलन करें, तो तीन तरह के बदलाव साफ तौर पर देखने को मिलने है, महिला- पारंपरिक वर्चस्व केा खत्म कर पंचायत की बागडोर अपने हाथों में लेना और सामाजिक न्याय की स्थापना करना । महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने समाज में गरीब-वंचित लोगों को उनके हक दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दूसरा- सार्वजनिक सेवाओं और सुविधाओं को बेहतर बनाकर लोगों की उन तक पहुॅच बनाना । इससे कुपोषण कम करने , बच्चों को स्कूल से जोड़ने, पलायन, भुखमरी और गरीबी दूर कर रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिली है तथा तीसरा- बदलाव महिला हिंसा से मुक्ति ।महिलाओं के साथ घर और घर से बाहर होने वाली हिंसा से सुरक्षा का कोई ठोस तंत्र ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं है। सामाजिक और तकनीकी जटिलताओं के कारण कई महिलाएं हिंसा करने वालों पर कानूनी कार्रवाई नहीं कर पाती है । इस दषा में महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने महिला समूहों, साझा मंच एवं ग्रामसभा के जरिए महिला हिंसा से मुक्ति का वातावरण बनाया और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्रवाई की प्रक्रिया में भी आगे बढ़ने का प्रयास किया । जिससे हिंसा मुक्त समाज का निर्माण हो सके।
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समाज और राजसत्ता के ताने-बाने में वजूद बनाती सरपंच फूलाबाई
Ruby Sarkar
छतरपुर जिले की मुंगावरी गांव की आम सड़क पर आदतन एक दबंग ने कब्जा कर निर्माण कार्य शुरू कर दिया। जब यह बात सरपंच फूलाबाई को पता चली, तो फूलों ने कानून की ताकत का इस्तेमाल करते हुए दबंग के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज करवा दी। इसके बाद दबंग से सरपंच फूला की ठन गई। फूला ने गांव की महिलाओं को इकट्ठा किया और दबंग का सामना किया। फूला की ताकत के आगे दबंग की एक न चली और वह जमीन से पीछे हट गये। न्याय के लिए बतौर सरपंच फूला की यह पहली लड़ाई थी। अशिक्षित फूला इस जीत से आत्मविश्वास से भर गई । इसके बाद फूला ने एक के बाद एक सवर्णों के नाजायज कामों के खिलाफ खूब आवाज उठाई गांव की महिलाओं ने भी फूला का साथ दिया।
दरअसल अपना मतलब साधने के लिए फूला को सवर्णों ने ही पंचायत चुनाव में खड़ा किया था। फूला की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। उसकी जिंदगी दबंगों की जी हुजूरी में कट रही थी। वर्ष 2009 के त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के चुनाव की घोषणा हुई , तो ग्राम पंचायत मुंगावारी की सीट अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित कर दी गई । चूंकि फूला शांत और सहमी सी रहती थी, इसलिए गांव के दबंगों ने फूला पर ही चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाया। ताकि फूला की आड़ में वे अपना काम साध सके। आज वही फूलों के गले की फांस बन गई। दबंगों ने ही फूला का पर्चा भरा और उसने अंगूठा लगवा लिया। फूला 8 महिला प्रत्याशियों को हराकर 54 मतों से चुनाव जीत कर सरपंच बन गईं। जनवरी 2010 में गांव वालों ने विकास की बागडोर फूला के हाथों सौंप दी।
कुम्हार परिवार (अनुसूचित जाति) की महिला फूलाबाई के पास जीवन यापन के लिए एक एकड़ जमीन है। जिस पर वह खेती करती है। इसके अलावा वह पति के साथ मिट्टी के बर्तन भी बनाती है, जिससे उसके पूरे परिवार का भरण पोषण होता हैं।
सरपंच बनने के बाद अशिक्षित फूला के सामने कई चुनौतियां थी। उन्हें ग्राम सभा चलाने की कोई जानकारी नहीं थी। सवर्ण अपने व्यक्तिगत हितों के लिए उसका इस्तेमाल करने लगे। दूसरी ओर समुदाय के लोगों का साथ भी उन्हें नहीं मिल रहा था। हस्ताक्षर करना उसे आता नहीं था । तमाम चुनौतियों के बावजूद फूला हिम्मत नहीं हारी और सबसे पहले उसने हस्ताक्षर करना सीखा।
फूला बताती है, कि धार्मिक अनुष्ठानों के बहाने उसने गांव की महिलाओं को इकट्ठा करना शुरू किया। उसने अपनी गायिकी का सहारा लिया और ढोलक की थाप पर बुंदेलखंडी गीत गाने के लिए महिलाओं को एक मंच पर बुलाने लगी। सुरीली फूला ने कई मनमोहक बुंदेलखण्डी गीत ढोलक की थाप पर सुनाए। इस तरह उसने गीत-संगीत और कीर्तन के बहाने महिलाओं को बुलाकर सरकारी योजनाओं की जानकारी देने लगी और प्रस्ताव पारित कराने के लिए महिलाओं का सहयोग मांगा। आज वह गांव में गीत-संगीत महिला मण्डल की अध्यक्ष हैं।
इस बीच फूलाबाई ने महिला नेतृत्व प्रशिक्षण प्राप्त किया, जिससे उसके भीतर शक्ति का नया संचार हुआ । चुनौतियों से निपटने के लिए उसे नई ताकत मिल गई। हमेशा घूंघट की ओट में बात करने वाली फूला ग्राम सभा में मुखर होकर बोलने लगी ।
फृला बताती हैं, कि आंगनबाड़ी जाति, स्कूल जाति, भोजन देखत, खाना बटआउत सबका हक मिलो चाइ्य (वह आंगनबाड़ी जाती हैं, स्कूल की निगरानी के लिए जाती हैं। वहां मध्यान्ह भोजन का हाल देखती हैं, उसे बटवाती हैं। वह बताती हैं, कि सबको बराबरी से हक मिलना चाहिए। ) प्रशिक्षण में मिली जानकारी वह महिलाओं को बताती हैं और ग्राम सभा में महिलाओं के दम पर प्रस्ताव पास कराती है। फूला की बदौलत आज गांव की महिलाएं प्रस्ताव पर खुलकर बहस करती हैं। फूला का पति बैजनाथ कुम्हार भी उसका सहयोग करता है। राजनीतिक साझेदारी के इस सफर में संघर्ष झेल चुकी महिलाओं में से कई महिलाएं ऐसी हैं, जो पूरी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए आगे बढ़कर काम कर रही हैं । फूला भी उन्हीं में से एक है।
चार संतान की मां फूला शिक्षा का महत्व समझने लगी है, उसने बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सबसे पहले 8वीं तक की स्कूल को माध्यमिक बनाने का प्रस्ताव ग्राम सभा से पारित करवाया। इसके बाद प्रस्ताव की प्रति विकास खण्ड और कलेक्टर के पास भेजा। लेकिन लालफीताशाही के चलते फाइल इधर-उधर दौड़ती रही। जब कार्रवाई नहीं हुई , तो फूला ने दिसम्बर, 2010 के गांव की महिलाओं की बैठक कर मुख्यमंत्री के नाम एक आवेदन तैयार किया। जिस पर सरपंच सहित ग्राम की पंच एवं अन्य महिलाओं ने हस्ताक्षर किए। अगस्त 2011 में जब मुख्यमंत्री जिले के दौरे पर ग्राम रजपुरा आये, तो फूला ने बेझिझक वहां उपस्थित होकर आवेदन मुख्यमंत्री के हाथों सौंप दिया और निवेदन किया कि हमारे गांव की लड़कियां 8 वीं के बाद पढ़ नहीं पाती हैं। इसलिए गांव का स्कूल 10 वीं तक किया जाए । मुख्यमंत्री ने फूला को आश्वासन दिया, कि उसके आवेदन पर शीघ्र अमल होगा । इस तरह फूला के सतत प्रयास से गांव के स्कूल का उन्नयन हुआ । आज इस विद्यालय में गांव की 150 से ज्यादा लड़कियां 9वी , 10वीं की पढ़ाई कर रही हैं। बेटियों का एक सपना फूला ने मुख्यमंत्री के जरिये पूरा किया ।
मुगावारी ग्राम पंचायत को कुपोषण मुक्त बनाने की फूला ने सतत अभियान चलाया । पीड़ित परिवारों से लगातार मिलती रही और उनके बच्चों को पोषण आहार केंद्र भेजने के लिए प्रेरित करती रहीं। इस अभियान के लिए वे स्वयं एवं गांव की महिलाओं ने शपथ ली थी। आज ग्राम पंचायत मुंगावारी पूर्ण कुपोषण मुक्त है।
मासूम सी दिखने वाली फूला बताती हैं, कि बचपन में माता-पिता ने उनका नाम पाना रखा था। शादी के बाद ससुराल वाले उसे राधा और फूला पुकारने लगे और आज सारा गांव उसे सभापति या सरपंचन साहब कहते हैं। उसकी बहादुरी के चर्चे भी खूब है।
इन दिनों फू ला गांव को स्वच्छ ग्राम पंचायत बनाने में जुटी हुई हैं। वह खुले में शौच न करने की विद्या बालन की अपील गौर से सुनती है। विद्या की तरह उसने भी महिलाओं को खुले में शौच मुक्त अभियान से जोड़कर संवेदनशीलता का परिचय दिया। वे हर काम को पूरी रुचि एंव निष्ठा के साथ कर रही हैं। उसने अपने गांव में 307 परिवारों को चिन्हित कर उनके घर शौचालय बनवाया है। वह प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की निगरानी भी नियमित करती हैं और बड़ी संख्या में वृद्ध महिलाओं को समाज कल्याण की योजनाओं से जोड़कर उन्हें लाभ पहुंचा रही हैं।
उसे दुःख है, तो बस दारु खोरी बंद न कर पाने की। वह बताती है, कि दारु खोरी पहले से कम हुई है, परंतु पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। गांव के पुरुष कहते हैं, कि सरपंच साहब आप दारू कैसे बंद करवाहो! विधवा महिलाएं उसके पास पेंशन की अर्जी लेकर आती है, कहती हैं- सरपंच साहब हाथ टूटा है, आदमी मर गयो, हमें पेंशन बधवा दो। हवा लग गई, लरका खाये नई देत।
गांव के बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए फूला राष्ट्रीय राजमार्ग के पास स्थित विद्यालय में चारदीवारी इसलिए बनवाती हैं, ताकि छुट्टी होने के बाद बच्चे एक साथ दौड़कर रास्ता न पार कर सकें। 42 वर्षीय सरपंच फूला के पास गांव के बीच मिट्टी से बना हुआ एक कच्चा मकान है । बच्चों की परवरिश वह खेती और मिट्टी के बर्तनों को बेचकर करती हैं। फूला कहती है, उसे काम करने का हौसला मुख्यमंत्री की ओर से मिला। प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के साथ ही खुलकर बेझिझक निर्णय लेती हैं। उसे विश्वास है, कि समाज में जड़ जमा चुकी समस्याएं जैसे लिंग आधारित भेदभाव, गर्भपात, बाल-विवाह, दहेज प्रथा, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसाएं भी एक दिन महिला जनप्रतिनिधियों के प्रयास से खत्म हो जायेंगी। फूला को उत्कृष्ट कार्य के लिए एक राष्ट्रीय अखबार ने एक हजार, एक सौ रुपये का चेक भेजा था, बैंक में खाता न होने के चलते वह उस चेक को भुना नहीं पाई थी । आज वही फूला गांव के लोगों का बैंक में खाता खोलवाती है।
छतरपुर जिले की मुंगावरी गांव की आम सड़क पर आदतन एक दबंग ने कब्जा कर निर्माण कार्य शुरू कर दिया। जब यह बात सरपंच फूलाबाई को पता चली, तो फूलों ने कानून की ताकत का इस्तेमाल करते हुए दबंग के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज करवा दी। इसके बाद दबंग से सरपंच फूला की ठन गई। फूला ने गांव की महिलाओं को इकट्ठा किया और दबंग का सामना किया। फूला की ताकत के आगे दबंग की एक न चली और वह जमीन से पीछे हट गये। न्याय के लिए बतौर सरपंच फूला की यह पहली लड़ाई थी। अशिक्षित फूला इस जीत से आत्मविश्वास से भर गई । इसके बाद फूला ने एक के बाद एक सवर्णों के नाजायज कामों के खिलाफ खूब आवाज उठाई गांव की महिलाओं ने भी फूला का साथ दिया।
दरअसल अपना मतलब साधने के लिए फूला को सवर्णों ने ही पंचायत चुनाव में खड़ा किया था। फूला की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। उसकी जिंदगी दबंगों की जी हुजूरी में कट रही थी। वर्ष 2009 के त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के चुनाव की घोषणा हुई , तो ग्राम पंचायत मुंगावारी की सीट अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित कर दी गई । चूंकि फूला शांत और सहमी सी रहती थी, इसलिए गांव के दबंगों ने फूला पर ही चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाया। ताकि फूला की आड़ में वे अपना काम साध सके। आज वही फूलों के गले की फांस बन गई। दबंगों ने ही फूला का पर्चा भरा और उसने अंगूठा लगवा लिया। फूला 8 महिला प्रत्याशियों को हराकर 54 मतों से चुनाव जीत कर सरपंच बन गईं। जनवरी 2010 में गांव वालों ने विकास की बागडोर फूला के हाथों सौंप दी।
कुम्हार परिवार (अनुसूचित जाति) की महिला फूलाबाई के पास जीवन यापन के लिए एक एकड़ जमीन है। जिस पर वह खेती करती है। इसके अलावा वह पति के साथ मिट्टी के बर्तन भी बनाती है, जिससे उसके पूरे परिवार का भरण पोषण होता हैं।
सरपंच बनने के बाद अशिक्षित फूला के सामने कई चुनौतियां थी। उन्हें ग्राम सभा चलाने की कोई जानकारी नहीं थी। सवर्ण अपने व्यक्तिगत हितों के लिए उसका इस्तेमाल करने लगे। दूसरी ओर समुदाय के लोगों का साथ भी उन्हें नहीं मिल रहा था। हस्ताक्षर करना उसे आता नहीं था । तमाम चुनौतियों के बावजूद फूला हिम्मत नहीं हारी और सबसे पहले उसने हस्ताक्षर करना सीखा।
फूला बताती है, कि धार्मिक अनुष्ठानों के बहाने उसने गांव की महिलाओं को इकट्ठा करना शुरू किया। उसने अपनी गायिकी का सहारा लिया और ढोलक की थाप पर बुंदेलखंडी गीत गाने के लिए महिलाओं को एक मंच पर बुलाने लगी। सुरीली फूला ने कई मनमोहक बुंदेलखण्डी गीत ढोलक की थाप पर सुनाए। इस तरह उसने गीत-संगीत और कीर्तन के बहाने महिलाओं को बुलाकर सरकारी योजनाओं की जानकारी देने लगी और प्रस्ताव पारित कराने के लिए महिलाओं का सहयोग मांगा। आज वह गांव में गीत-संगीत महिला मण्डल की अध्यक्ष हैं।
इस बीच फूलाबाई ने महिला नेतृत्व प्रशिक्षण प्राप्त किया, जिससे उसके भीतर शक्ति का नया संचार हुआ । चुनौतियों से निपटने के लिए उसे नई ताकत मिल गई। हमेशा घूंघट की ओट में बात करने वाली फूला ग्राम सभा में मुखर होकर बोलने लगी ।
फृला बताती हैं, कि आंगनबाड़ी जाति, स्कूल जाति, भोजन देखत, खाना बटआउत सबका हक मिलो चाइ्य (वह आंगनबाड़ी जाती हैं, स्कूल की निगरानी के लिए जाती हैं। वहां मध्यान्ह भोजन का हाल देखती हैं, उसे बटवाती हैं। वह बताती हैं, कि सबको बराबरी से हक मिलना चाहिए। ) प्रशिक्षण में मिली जानकारी वह महिलाओं को बताती हैं और ग्राम सभा में महिलाओं के दम पर प्रस्ताव पास कराती है। फूला की बदौलत आज गांव की महिलाएं प्रस्ताव पर खुलकर बहस करती हैं। फूला का पति बैजनाथ कुम्हार भी उसका सहयोग करता है। राजनीतिक साझेदारी के इस सफर में संघर्ष झेल चुकी महिलाओं में से कई महिलाएं ऐसी हैं, जो पूरी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए आगे बढ़कर काम कर रही हैं । फूला भी उन्हीं में से एक है।
चार संतान की मां फूला शिक्षा का महत्व समझने लगी है, उसने बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सबसे पहले 8वीं तक की स्कूल को माध्यमिक बनाने का प्रस्ताव ग्राम सभा से पारित करवाया। इसके बाद प्रस्ताव की प्रति विकास खण्ड और कलेक्टर के पास भेजा। लेकिन लालफीताशाही के चलते फाइल इधर-उधर दौड़ती रही। जब कार्रवाई नहीं हुई , तो फूला ने दिसम्बर, 2010 के गांव की महिलाओं की बैठक कर मुख्यमंत्री के नाम एक आवेदन तैयार किया। जिस पर सरपंच सहित ग्राम की पंच एवं अन्य महिलाओं ने हस्ताक्षर किए। अगस्त 2011 में जब मुख्यमंत्री जिले के दौरे पर ग्राम रजपुरा आये, तो फूला ने बेझिझक वहां उपस्थित होकर आवेदन मुख्यमंत्री के हाथों सौंप दिया और निवेदन किया कि हमारे गांव की लड़कियां 8 वीं के बाद पढ़ नहीं पाती हैं। इसलिए गांव का स्कूल 10 वीं तक किया जाए । मुख्यमंत्री ने फूला को आश्वासन दिया, कि उसके आवेदन पर शीघ्र अमल होगा । इस तरह फूला के सतत प्रयास से गांव के स्कूल का उन्नयन हुआ । आज इस विद्यालय में गांव की 150 से ज्यादा लड़कियां 9वी , 10वीं की पढ़ाई कर रही हैं। बेटियों का एक सपना फूला ने मुख्यमंत्री के जरिये पूरा किया ।
मुगावारी ग्राम पंचायत को कुपोषण मुक्त बनाने की फूला ने सतत अभियान चलाया । पीड़ित परिवारों से लगातार मिलती रही और उनके बच्चों को पोषण आहार केंद्र भेजने के लिए प्रेरित करती रहीं। इस अभियान के लिए वे स्वयं एवं गांव की महिलाओं ने शपथ ली थी। आज ग्राम पंचायत मुंगावारी पूर्ण कुपोषण मुक्त है।
मासूम सी दिखने वाली फूला बताती हैं, कि बचपन में माता-पिता ने उनका नाम पाना रखा था। शादी के बाद ससुराल वाले उसे राधा और फूला पुकारने लगे और आज सारा गांव उसे सभापति या सरपंचन साहब कहते हैं। उसकी बहादुरी के चर्चे भी खूब है।
इन दिनों फू ला गांव को स्वच्छ ग्राम पंचायत बनाने में जुटी हुई हैं। वह खुले में शौच न करने की विद्या बालन की अपील गौर से सुनती है। विद्या की तरह उसने भी महिलाओं को खुले में शौच मुक्त अभियान से जोड़कर संवेदनशीलता का परिचय दिया। वे हर काम को पूरी रुचि एंव निष्ठा के साथ कर रही हैं। उसने अपने गांव में 307 परिवारों को चिन्हित कर उनके घर शौचालय बनवाया है। वह प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की निगरानी भी नियमित करती हैं और बड़ी संख्या में वृद्ध महिलाओं को समाज कल्याण की योजनाओं से जोड़कर उन्हें लाभ पहुंचा रही हैं।
उसे दुःख है, तो बस दारु खोरी बंद न कर पाने की। वह बताती है, कि दारु खोरी पहले से कम हुई है, परंतु पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। गांव के पुरुष कहते हैं, कि सरपंच साहब आप दारू कैसे बंद करवाहो! विधवा महिलाएं उसके पास पेंशन की अर्जी लेकर आती है, कहती हैं- सरपंच साहब हाथ टूटा है, आदमी मर गयो, हमें पेंशन बधवा दो। हवा लग गई, लरका खाये नई देत।
गांव के बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए फूला राष्ट्रीय राजमार्ग के पास स्थित विद्यालय में चारदीवारी इसलिए बनवाती हैं, ताकि छुट्टी होने के बाद बच्चे एक साथ दौड़कर रास्ता न पार कर सकें। 42 वर्षीय सरपंच फूला के पास गांव के बीच मिट्टी से बना हुआ एक कच्चा मकान है । बच्चों की परवरिश वह खेती और मिट्टी के बर्तनों को बेचकर करती हैं। फूला कहती है, उसे काम करने का हौसला मुख्यमंत्री की ओर से मिला। प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के साथ ही खुलकर बेझिझक निर्णय लेती हैं। उसे विश्वास है, कि समाज में जड़ जमा चुकी समस्याएं जैसे लिंग आधारित भेदभाव, गर्भपात, बाल-विवाह, दहेज प्रथा, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसाएं भी एक दिन महिला जनप्रतिनिधियों के प्रयास से खत्म हो जायेंगी। फूला को उत्कृष्ट कार्य के लिए एक राष्ट्रीय अखबार ने एक हजार, एक सौ रुपये का चेक भेजा था, बैंक में खाता न होने के चलते वह उस चेक को भुना नहीं पाई थी । आज वही फूला गांव के लोगों का बैंक में खाता खोलवाती है।
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