Sunday, June 11, 2023

जमीन का पट्टा बना आजीविका का साधन,अब नहीं गुजारने पड़ते फांके के दिन

 जमीन का पट्टा बना आजीविका का साधन,अब नहीं गुजारने पड़ते फांके के दिन


Ruby Sarkar

ग्वालियर शहर से 8 किलोमीटर के फासले पर स्थित गांव बजरंगपुरा के सहरिया आदिवासी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और एकता परिषद संगठन के संस्थापक राजगोपाल पीवी के तारीफ करते नहीं थकते।
दरअसल, चार दशक पहले लगभग 32 सहरिया आदिवासी परिवार आगरा-मुंबई राष्ट्रीय राजमार्ग ग्वालियर शहर से 8 किलोमीटर के फासले पर स्थित गांव बजरंग पुरा में भरण-पोषण और रोजगार की तलाश में आकर बस गये थे। उन आदिवासी परिवारों को उस समय यह मालूम नहीं था, कि यह वन भूमि है । उन्हें  केवल यह क्षेत्र शहर के नजदीक होने के कारण अपने रोजगार की संभावना नजर आयी। आदिवासी परिवार के मुखिया रोजगार की तलाश में शहर चले जाते और महिलाएं उनका हाथ बटाने के लिए जंगल से लकड़ी चुनकर उसे ष्षहर में बेचने का काम करने लगी । समय के थपेड़ों और आर्थिक विपन्नता के मर्मान्तक प्रहारों के चलते जिस उद्देश्य से सहरिया आदिवासी परिवार ग्वालियर शहर के नजदीक आकर अपना आशियाना बनाया था, उसमें उन्हें निराशा हाथ लगने लगी। रोजगार की तलाश में शहर जाने के बाद कई-कई दिनों तक उन्हें रोजगार नहीं मिलता था। इससे ये आदिवासी परिवार निराश होने लगे। तब उन्होंने अपने घर के आस-पास की बंजर भूमि को साफ करके उस पर खेती करने का विचार किया । इस तरह   जिस दिन उन्हें शहर में रोजगार नहीं मिलता था, उस दिन सभी परिवार मिलकर अपने आस-पास की जमीन को साफ करते। धीरे-धीरे वे लगभग 144 बीघा जमीन को साफ कर उसमें खेती करने लगे । जुम्मा बताते हैं, कि सबसे पहले गांव के लोगों ने सामूहिक रूप से भूमि की सफाई की। भाड़े पर बैल लेकर आये और खेती शुरू की, यहां की जंगल, जमीन के पोर-पोर में  हमलोगों पसीना समाया है। हम सबने खुद की मेहनत से जमीन पर पसीना बहाकर आबाद किया है। सभी परिवारों ने आस-पास की लगभग डेढ़ सौ बीघा जमीन पर कब्जा कर उसे अपने जीने का सहारा बनाया। साधनहीन होने के कारण सब मिलकर जैसे-तैसे भाड़े पर बैल जुताकर इस जमीन को खेती योग्य बनाया।
आदिवासी परिवार इस जमीन पर  मक्का, अरहर, बाजरा, सरसों आदि की खेती करने लगे। क्षेत्रीय निवासी डोंगर सिंह बताते हैं, कि पट्टा मिलने से पहले जैसे ही उनकी फसल अंकुरित होने लगती थी,  वन विभाग के कर्मचारी उस जमीन को वन विभाग का बताकर उनकी फसलों को लूट ले जाते थे। आदिवासी परिवार भी अपने श्रम से तैयार बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने और बार-बार वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा फसलों को उजाड़ने के बाद भी जमीन पर खेती करते । परिणामस्वरूप वन विभाग द्वारा उनके ऊपर कई बार केस दर्ज करवाया गया , उन्हें जेल भी जाना पड़ा और जुर्माना भी भरना पड़ा है। यह सिलसिला लगातार चलता रहा।  अपने जातीय वैभव के अवमूल्यन का परिणाम तमाम यातना के साथ  आदिवासी परिवार भुगतता रहा, फिर भी हार नहीं मानी और अपना संघर्ष जारी रखा।
आदिवासियों ने वन विभाग द्वारा उनके साथ की जा रही ज्यादतियों की कहानी कई सामाजिक संगठनों को सुनाई और बजरंगपुरा के मुखिया जुम्मा आदिवासी ने अपने गांव के 32 परिवारों को लेकर लड़ाई लड़ने का संकल्प लिया। उनके इस संघर्ष में एकता परिषद के संस्थापक और गांधीवादी राजगोपाल पी. व्ही ने भी साथ दिया।  नैतिकता के आधार पर उन्होंने इस संबंध में कई बार मुख्यमंत्री से बात की । उन्होंने कहा, कि मध्यप्रदेश में लगभग 23 हजार गांव या तो जंगल में बसे हुए हैं या फिर जंगल की सीमा पर। आदिवासियों के अधिकारों के संघर्ष की प्रक्रिया में सबसे अहम मांग यही रही है, कि इन्हें जंगल में रहने और  आजीविका के लिए वन संसाधनों पर अधिकार मिले। भारत में जमीन के लिए आदिवासी परिवारों के संघर्ष को देखते हुए सरकार को वंचित समुदाय के हक में ‘‘वन मान्यता अधिनियम 2006’’ को मान्यता देनी पड़ी। जिसका परिणाम यह हुआ कि दिसम्बर 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज व्यक्ति को उस भूमि का अधिकार-पत्र देने की घोषणा की। जिसके तहत  मध्यप्रदेश सरकार ने बजरंगपुरा के 20 परिवारों को उनके कब्जे की जमीन का अधिकार पत्र दे दिया। आज बजरंगपुरा के सहरिया  आदिवासी अपनी भूमि पर परंपरागत खेती कर रहे हैं। उनकी जमीन का समतलीकरण एवं मेढ़ बंधान न होने के कारण बरसात के समय उपजाऊ मिट्टी बह जाती थी और भूमि कटाव की समस्या बनी रहती थी। इस समस्या से निपटने के लिए गांव कमेटी की बैठक में अध्यक्ष जुम्मा आदिवासी ने सरकार और सामाजिक संगठनों से सहायता मांगी महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना, महात्मा गांधी सेवा आश्रम और ग्रामीण विकास प्रतिष्ठान की मदद से 17 परिवारों को 121 बीघा जमीन के  समतलीकरण एवं भूमि बंधान के लिए एक लाख रुपये की राशि स्वीकृत की गई और इस राशि से आदिवासी परिवारों ने जमीन का समतलीकरण कर मेड़ बंधान किया। इस तरह इन लोगों ने यह साबित कर दिया, कि अगर सोच अच्छी हो, तो सरकार भी साथ देने को मजबूर हो जाती है। जुम्मा बताते हैं, कि आज 32 आदिवासी परिवार लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सहृदयता और अपने संघर्ष के बलबूते पर हाईवे की बेशकीमती जमीन के मालिक बनने के काफी करीब हैं। सरकार द्वारा पारित वनाधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन ने इन परिवारों की किस्मत ही बदलकर रख दी है। हालांकि हाइवे की कीमती जमीन का मालिक बन पाने में इनके सामने अभी भी छोटे-मोटे प्रशासनिक गतिरोध हैं, लेकिन वन अधिनियम की भाषा एवं प्रावधानों के हिसाब से इन अवरोधों की कोई खास अहमियत नहीं रह गई है। कानून की मंशा के हिसाब से उन्हें इस जमीन के पट्टे दिये जाने की बात अब वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी मान चुके हैं।
पुराने दिनों को याद कर सुन्दरा, कमलाबाई, पप्पू आदिवासी आदि बताते हैं, कि जब उन्हें यहां आकर गुजारे लायक मजदूरी नहीं मिली, तो भरण-पोषण के लिए यही एक सहारा था । सन् 1972 से हम लड़ाई लड़ रहे थे, अब जाकर शिवराज के शासन में हमें आजीविका का साधन मिला। हमारे लिए जमीन का मतलब खेती या आवास के लिए एक पट्टा मात्र नहीं है। सजल आंखों से कमलाबाई बीच में ही बात काटकर कहती है, कि सदियों से हमारे पूर्वज भी इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहें और इस धरोहर का हम भी अपने  वन   अधिकार और भावनात्मक रूप से जुड़कर इसका संरक्षण और संवर्धन करना चाहते हैं। जमीन हमारे अस्तित्व से जुड़ी है, जमीन है तो हम है। हमारा परिवार समाज और सबकुछ है यह जमीन ।
 करोड़ों रुपये की इस बस्ती को आदिवासियों ने बड़ी श्रद्धा के साथ बजरंगपुरा नाम दिया है। अपने पिता के साथ यहां आकर बसा आदिवासी मुखिया जुम्मा आज खुद बूढ़े हो चुके हैं। उम्र के ढलान पर वह  आस-पास बसे दबंग से बलपूर्वक सामना कर रहे हैं, जो उनकी खड़ी फसल को आज भी उजाड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। फिर भी उसे उम्मीद है, कि उनके जीवन में खुशियों का नया सवेरा दस्तक देने वाला है। 
जुम्मा बताते है, कि अधिकारी आज भी इस जमीन का अधिकार-पत्र देने में तरह-तरह की अड़चन डालने की कोशिश करते हैं। ईश्वर देव बाई बताती हैं, कि ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित कराने में हमारा पसीना छूट रहा था ।  जैसे-तैसे यह प्रस्ताव ग्राम सभा में पारित हो गया तो वन अधिकारियों ने सड़क किनारे की कीमती जमीन होने के कारण सड़क से दूर ऐसी जमीन के पट्टे बना कर तैयार कर दिया जिस पर कभी हमारा कब्जा ही नहीं था। वन अधिकारियों ने इसके पीछे तर्क दिया, कि हाइवे के किनारे की जमीन काफी कीमती है, इस कारण इस जमीन का पट्टा नहीं दिया जा सकता। लेकिन आदिवासियों को मुख्यमंत्री के आश्वासन पर भरोसा था  और उनके पास वन विभाग द्वारा चलाये गये मुकदमे के दस्तावेज और जुर्माने की रसीद भी उपलब्ध था, इसलिए संगठित होकर वन विभाग की इस प्रक्रिया का विरोध करते हुए पट्टा लेने से इंकार कर दिया, क्योंकि अधिनियम में कहीं भी इस प्रकार का प्रावधान नहीं है।
बहरहाल आदिवासी परिवार आज उस भूमि पर परम्परागत खेती कर रहे हैं और पूरी जमीन का समतलीकरण एवं मेढ़ बंधान न होने के कारण बरसात के समय उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। साथ ही जमीन के कटाव की समस्या बनी रहती है।
एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रन सिंह परमार बताते हैं, कि अभी जो बाधाएं हैं, उन्हें दूर करना राज्य का दायित्व है । अभी सरकार को आदिवासियों के सिंचाई के लिये पानी का साधन जुटाना है, क्योंकि जमीन ढलान पर होने की वजह से बरसात का पानी बह जाता है, पूरी जमीन खुली है, कहीं भी भूमि बंदी नहीं है। साथ ही इनके पास जुताई के साधन नहीं है। पूरी जमीन समतल न होने से खेती करने के लायक नहीं है। मुख्यमंत्री से यही उम्मीद है, कि जमीन के पट्टे के साथ-साथ सिंचाई के लिए डीजल पम्प, बोरवेल चलाने के लिए  फेज-3 की लाइट और सिंचाई की सुविधा बढ़ाने के लिए पाइप लाइन स्प्रिंग कल, जिससे कम पानी से आदिवासियों को ज्यादा फसल प्राप्त कर सके । इसके साथ ही इन्हें निशुल्क खाद-बीज मिलने चाहिए और बारिश का पानी रोकने के लिए वाटरशेड, स्टॉप डेम । तभी इस समाज को स्वावलंबी बनाया जा सकेगा। उन्होंने कहा, कि अभी भी बहुत सी जमीन ऐसी है, जहां आदिवासी-दलितों को कब्जा नहीं मिल पा रहा है । उनकी जमीन पर दबंगों का कब्जा है, ऐसी बेनामी जमीन पर सरकार को रोक लगाये । श्री सिंह इस इलाके में बरसात के पानी का संरक्षण और संवर्धन बड़े पैमाने पर करने का सुझाव दिया ; उन्होंने किसानों को फसल का वाजिब दाम दिलवाने के लिए हर क्षेत्र में वेयरहाउस खोलने और पीने के पानी सुविधा उपलब्ध कराने का सुझाव भी दिया । उन्होंने कहा, इतना सब होने के बाद कुछ हद तक कुपोषण पर काबू पाया जा सकेगा।  
बहरहाल आदिवासियों ने यह तय किया, कि 15 फुट लंबाई×50 फुट चौड़ा तथा 8 फीट ऊंचा एक स्टॉप डेम बनाया जाये। इससे करीब 25 एकड़ जमीन की नमी बढ़ेगी तथा सिंचाई भी होगी। इसके साथ ही 3 हजार, 725 वर्ग फुट का स्टॉप डैम बनाने का भी उनका इरादा है।
उल्लेखनीय है, कि सहरिया मध्यप्रदेश की उन जनजातियों में से एक है, जो विकास की दृष्टि से अत्यन्त पिछड़ी और अपनी आदिमता की अंतिम पहचान की स्थिति में है । सामाजिक बदलाव, ष्षहरी सभ्यता तथा भौतिक साधनों के तीव्र आक्रमण के कारण सहरिया समाज की आदिम पहचान प्रायः खो गई है। सहरियाओं के पास न निजी बोली शेष है और न सांस्कृतिक विरासत।  

No comments:

Post a Comment