अब ,इरानो भी गर्व से जाती है स्कूल
Ruby Sarkar
बच्चों के लिए पढ़ना-सीखना एक महत्वपूर्ण कौशल हासिल करना है।लेकिन बहुत सारे बच्चे जाने-अनजाने में स्कूल नहीं जा पाते । इस तरह वे अकादमिक क्षमताएं हासिल नहीं कर पाते। इसके कई कारण हो सकते हैं, जिसमें बच्चों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि , स्कूल में पढ़ना सिखाने के तरीके, शिक्षकों की भूमिका।
भोपाल स्थित जाटखेड़ी ढोलक बस्ती की स्थिति कुछ ऐसी ही है। इस बस्ती में रहने वाले परिवारों में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं है । इस बस्ती के 6-14 साल के 80 बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से नहीं जुड़े थे। इरानो भी इनमें से एक थी। बस्ती के लोग आज भी आधारभूत सुविधाओं से वंचित हैं । परिणामस्वरूप सभी विपरीत परिस्थितियां इस समुदाय विशेषकर बच्चों को हाशिए पर लाकर खड़ा कर देती है । 13 साल की इरानो उर्फ छोटी इन्हीं बच्चों में से एक है। कुछ दिन पहले तक वह कबाड़ जैसे प्लास्टिक, लोहा या अन्य कोई मूल्यवान चीज रोज बीनने का काम करती थी, जिससे उसे 50-80 रू तक मिल जाते थे ।वह अक्सर समाज की हीन दृष्टि एवं भेदभाव का शिकार होती थी और यही इरानो की दिनचर्या बन चुकी थी । उसका पढ़ाई से दूर- दूर तक कोई वास्ता नहीं था । उसे तो पढ़ाई का महत्व पता भी नहीं था । राह चलते कई भी उसे मारते थे, फब्तियां कसते, तो कोई उसे बुरी निगाह से देखते थे। नासमझ इरानों उस वक्त यह सब समझ भी नहीं पाती थी। इरानो के पिता संगीत का वाद्य यंत्र ढोलक बनाकर बेचने के लिए दूसरे राज्य या शहर कई महीनों के लिए चले जाते है और काफी लम्बे समय के बाद लौटकर आते । इरानो मुख्यतः उत्तर प्रदेश की जिला बाराबंकी की मूल निवासी है, रोजगार की तलाश में उसका परिवार मध्य प्रदेश आए थे । बस्ती के इन परिवारों को लगभग 4 बार भोपाल में विभिन्न स्थानों पर विस्थापित होना पड़ा है । इरानो की मां ष्षहजादी बानो उसे स्कूल में देखना चाहती थी, लेकिन आर्थिक तंगी चलते वह ऐसा नहीं कर पायी । जब इरानो को पता चला, कि 6 से 14 साल के सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार के तहत निशुल्क शिक्षा मिल सकता है और बस्ती के पास ही एक शासकीय प्राथमिक शाला है, जहां वह निशुल्क दाखिला ले सकती है, तो उसने बिना देरी किये पहल की और स्कूल जाकर मां का सपना पूरा करने का निर्णय लिया। ताकि वह भी शिक्षा के महत्व को जान सके ।
वैसे स्कूल चलो अभियान से वह परिचित थी, लेकिन स्कूल तक कैसे पहुॅचना है, यह उसने सरकार द्वारा चलाई जा रही जागरूकता कार्यक्रमों के जरिये जाना। आज इरानो अपने साथ-साथ अनेक बाल श्रमिकों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश कर रही है । इरानो अब कक्षा छठवीं की छात्रा है । जब मैं उससे मिली, तो उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा । वह फुले नहीं समा रही थी, उसने कहा, कि पहली बार बैंक में उसका खाता खुला है, जिसमें सरकार की ओर से 400 रुपये गण वेष के लिए जमा भी कर दिया गया है। स्कूल की ओर से उसे निःशुल्क पाठ्य पुस्तक उपलब्ध कराई गई है। स्कूल के शिक्षक भी इरानो को बेहतर शिक्षा पाने में मदद कर रहे है, ताकि वह भविष्य में सम्मानजनक और बेहतर जीवन जी सके । उसके माता-पिता भी अपनी बेटी इरानो को स्कूल जाते देखकर बहुत खुष होते है । आज देश अपने सभी बच्चों को स्कूलों में नामांकन को लेकर जूझ रहा है। ऐसे में इरानो जैसी लड़की का बस्ती के बच्चों की प्रेरणा स्रोत बनना सरकार के लिए राहत की बात है । क्षेत्रीय नागरिक नीलेश बताते हैं, कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री स्कूल तक लड़कियों की पहुंच बनाने के लिए साइकिल का सहारा लिया। साइकिल पर बैठकर लड़कियां सिर्फ स्कूल ही नहीं जाती, इससे उनके आत्मविश्वास में जबरदस्त इजाफा हुआ है। मुख्यमंत्री की इस अनोखी सोच ने लड़कियों को आगे बढ़ने में बहुत मदद की है, फिर भी शिक्षा को जमीनी स्तर पर लागू कराने में हम अभी पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाये हैं । उन्होंने कहा, दरअसल शिक्षा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए सबसे जरूरी हथियार है और किसी भी राष्ट्र के विकास में शिक्षा एक बुनियादी तत्व है, इसलिए किसी भी लोकतान्त्रिक राज्य के लिए यह जरूरी हो जाता है, कि वह इसके महत्व को समझते हुए यह सुनिश्चित करें, कि देश और समाज के सभी वर्गों को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अवसर मिले। ढोलक बस्ती के यूसुफ बताते है, कि बच्चे पढ़-लिख जाएंगे तो कामयाब हो जाएंगे । बच्चों को पढ़ाई करते देख हमें अच्छा लगता है । हमारा दिल खुश होता है। ये बच्चे देष का भविष्य है और यदि छोटी-छोटी बस्तियों के बच्चों के सर पर मुख्यमंत्री का हाथ हो, तो क्या कहने । इसी तरह अरीना बानो बताती हैं, कि इरानो को सम्मान मिला, हमें और क्या चाहिए । हम चाहते है, कि वह खूब पढ़े, खूब बढ़े । उसे देख अब बस्ती के सारे बच्चे स्कूल जाने की जिद करते है । नाच गाना भी करते है और साफ - सफाई से रहने भी लगे है । इरानो की सहेली सोनी बाई बताती है, कि स्कूल जाना अच्छा लगता है, पर कई बच्चे स्कूल नहीं जाते उन्हें मदरसा जाना अच्छा लगता है ।
अब बस्ती के सभी लोगों को विद्यार्थियों को मिलने वाली योजनाओं की जानकारी है । उन्हें गणवेष के लिए 400 रुपये के चेक मिलने के बारे में पता है । लेकिन बाकी सरकारी योजनाओं के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता ।
उल्लेखनीय है, कि भारत ने शिक्षा के अधिकार के लेकर एक लंबा सफर तय किया है और शिक्षा का अधिकार कानून -2009 इस सफऱ की मंजिल नहीं, बल्कि एक पड़ाव है ! स्वतंत्रता के बाद देश के संविधान निर्माता शिक्षा के अधिकार को संविधान में एक मूल अधिकार के रूप में शामिल करना चाहते थे, लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो सका था और इसको राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 45 के अर्न्तगत ही स्थान मिल सका तथा इसे राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया, जो कि न्यायालयों मैं परिवर्तनीय नहीं थे। वर्ष 2002 में भारत की संसद में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा नया अनुच्छेद 21.क जोड़कर इसे मूल अधिकार के रूप में अध्याय-3 में शामिल कर परिवर्तनीय बना दिया गया।इस संवैधानिक संशोधन के साथ शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा मिल गया तथा इसे नीति निर्देशक तत्वों एवं मूल कर्तव्यों में भी शामिल कर लिया गया। वर्ष 1992 के मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में देश के शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद-21 के तहत शिक्षा पाने के अधिकार को प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार बताते हुये ऐतिहासिक निर्णय दिया था, कि प्रत्येक नागरिक को शिक्षा उपलब्ध करवाना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।
लेकिन उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश 1993 के मामले में निजी कालेज संचालकों ने न्यायालय से मोहिनी जैन मामले में अदालत द्वारा दिये गये फैसले पर पुनर्विचार के लिए आवेदन दिया। इसके बाद अदालत ने शिक्षा को मूल अधिकार तो माना लेकिन इसे 14 साल तक के बच्चों तक सीमित कर दिया। इसी कड़ी में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 है, जो केंद्र तथा राज्यों के लिए कानूनी बाध्यता है ।
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