Friday, June 9, 2023

गुजारे के लिए संघर्ष करती खेतिहर मजदूर महिलाएं






 गुजारे के लिए संघर्ष करती खेतिहर मजदूर महिलाएं


रूबी सरकार

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 70 किलोमीटर दूर रायसेन जिले के बाड़ी विकासखंड के मुख्यालय में हजारों की संख्या में महिला खेतिहर मजदूर सिर्फ इसलिए इकट्ठा हुई, कि उन्हें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना  के अंतर्गत काम नहीं मिलता। ऐसे में उन्हें हर रोज बड़े किसानों के यहां काम मांगने जाना पड़ता है। जहां रोजगार मिलने की कोई गारंटी नहीं होती। कभी-कभी उन्हें खाली हाथ वापस आना पड़ता है। उनके आजीविका का संकट आज का नहीं है, बल्कि रायसेन जिले में सदियों से असंगठित मजदूरों को रोजगार के लिए यही करना पड़ता है। इस जिले विकास भी उस तरह से नहीं हुआ, जैसे अन्य जिलों का हुआ है। जबकि यहां से पूर्व राष्ट्रपति स्व शंकर दयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री स्व अटल बिहारी वाजपेयी,पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व सुषमा स्वराज, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान , पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा जैसे दिग्गज राजनेताओं ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। उसके बाद पलट के नहीं देखा।
लिहाजा सबसे ज्यादा मजदूर इस जिले से आते हैं। ओमवती सिसोदिया सुबह 70 किलोमीटर दूर से इस आयोजन में भाग लेने आई थी। उन्होंने कहा  वह मनागढ़ ग्राम पंचायत से बच्चों को घर पर अकेला छोड़कर यहां आई हैं। उन्हें पता चला कि यहां वर्तमान विधायक सुरेंद्र पटवा आने वाले हैं, जो उनकी बातें सुनेंगे। आने के बाद पता चला  कि वह तो कहीं और विकास यात्रा के लिए निकल गए। अब जहां विकास हुआ ही नहीं , वहां विकास की क्या बात करते, इसलिए शायद नहीं आए। ओमवती ने बताया कि ग्राम पंचायत के सचिव ग्रामीणों का जॉब कार्ड रख लेते हैं, परंतु कभी काम नहीं देते। रोज सुबह हम सबको काम की तलाश में निकलना पड़ता है। साल भर तो खेत में काम नहीं मिलता । हमलोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या बनी रहती है। हमें न तो प्रधानमंत्री आवास मिला और न शौचालय का पैसा। ग्राम पंचायत गाजखेड़ी की 5त्र वर्षीय अभिलाषा के पति का देहांत हो चुका है। उसके चार छोटे-छोटे बच्चे हैं, जिसके पालन पोषण की जिम्मेदारी उस पर है। बड़ा बेटा 8वीं तक पढ़ाई करने के बाद मां के साथ मजदूरी करने जाता है। उसने विधवा पेंशन के लिए पंचायत में आवेदन दिया था, लेकिन अभी तक उसे पेंशन नहीं मिला है। जिला परिषद सदस्य लता चौहान बताती हैं कि छिंदवाड़ा जिले के बाद मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा जिला रायसेन है। यह जिला हमेशा  उपेक्षा का शिकार रहा है। यहां आय का कोई जरिया नहीं है। अधिकतर खेतिहर मजदूर है। इसे बंधुआ मजदूर भी कह सकते हैं, क्योंकि यह असंगठित मजदूर अपने जरूरतों के लिए बड़े किसानों से पैसे उधार लेते हैं और बदले में उनके खेतों में मजदूरी करते हैं। कन्वार पंचायत से 10 किलोमीटर चलकर बाड़ी विकासखंड पहुंची 55 वर्षीय सतीबाई का जॉब कार्ड ही नहीं बना। सतीबाई के तीन बेटे हैं और तीनों अलग-अलग रहते हैं। सतीबाई इस उम्र में अपने आजीविका के लिए संघर्ष कर रही हैं। कलिया बाई, मुन्नी बाई, कला बाई सबकी एक जैसी कहानी यहां सुनने को मिली। जो बड़ी उम्मीद से यहां आई थीं कि विधायक उनकी बात सुनकर समस्या का हल करेंगे। उन्हें क्या मालूम था कि विधायक की नजर में उनके वोट की कोई कीमत नहीं। असंगठित खेतिहर मजदूर सिर्फ रायसेन जिले में ही नहीं है, बल्कि 2011 की जनगणना केे अनुसार पूरे देष में खेती में लगे हुए कुल  26 करोड़ से ज्यादा लोगों में से  45 फीसदी यानी करीब 12 करोड़ किसान  और ष्षेष करीब 55 फीसदी  यानी साढ़े 14 करोड़ खेतिहर मजदूर है।  पिछले दशकों में खेती योग्य जमीन तेजी से घट रही है। फलस्वरूप भूमिहीनों की  संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। इसलिए हम कह सकते हैं कि  खेत मजदूरों  की संख्या तेजी से बढ़ी होगी। गांवों में खेती योग्य अच्छी भूमि का करीब 80 फीसद धनी और खाते-पीते और मझोले किसानों के पास है, जबकि उनकी आबादी कुल ग्रामीण आबादी में महज 19 से 15 फीसदी के बीच  है। 2011 की जनगणना के अनुसार खुद किसानी करने  करने वाले किसानों का हिस्सा 39 फीसद से भी कम है। इनमें से करीब 66 फीसद ऐसे हैं जो सीमांत या बेहद छोटे किसान  हैं। जो अपने  जीविकोपार्जन के लिए मुख्य रूप से अपनी भूमि पर निर्भर नहीं है। वे दूसरे के खेतों पर काम करके अपना  गुजारा करते हैं।  मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर  मजदूरों की बदहाली और काम व जीवन के खराब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।
घटती आमदनी के कारण हजारों खेतिहर मजदूर कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं और आर्थिक बदहाली, कर्ज का बोझ और निराशा बड़े पैमाने पर उन्हें अपनी जान लेने जैसा  कदम उठाने पर मजबूर कर रहे हैं। किसानों की आत्महत्या के सवाल पर संसद से लेकर सड़क तक चर्चा हुई है, फिर भी खेतिहर मजदूरों  की दुर्दशा को लगातार नजरअंदाज  किया जाता है। इस तबके के आत्महत्या के आंकड़े ही 2013 तक प्रकाशित और उपलब्ध नहीं थे। जबसे इसके अलग से आंकड़े  उपलब्ध है, तब से देखें तो  2014 में 6750 खेतिहर मजदूरों ने  आत्महत्या की, 2015 में 4505, 2016 में  5019 और 2019 में 4324 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की है। देष में किसानों की आत्महत्याओं पर काफी चर्चा हुई है लेकिन खेतिहर मजदूरों की आत्महत्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया  बल्कि उन्हें मामूली और सामान्य घटनाएं बताने की भी कोशिश होती रही है।
 देश के 94 फीसद असंगठित मजदूरों में खेतिहर मजदूर सबसे अधिक बिखरा, असंगठित, शोषित, उत्पीड़ित और  अशिक्षित हिस्सा है। इन सबके बावजूद खेतिहर मजदूरों के आर्थिक हितों की हिफाजत के लिए देश की कानून व्यवस्था और संविधान कोई व्यवस्थित ढांचा मुहैया  नहीं कराता है। देश भर में ग्रामीण मजदूरों के लिए कोई एक रूप सार्वभौमिक कानूनी ढांचा मौजूद नहीं है। सरकार ने गांवों से उजड़ने वाले मजदूरों के ष्षहरों में प्रवास को रोकने और कम करने के  लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना  शुरू की थी। लेकिन यह  योजना खुद ही सरकार द्वारा बनाए गए अन्य कानूनों का उल्लंघन करती है। इस योजना के  तहत मिलने वाले काम  के बदले मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी तक नहीं दी जाती। ऊपर  से यह योजना वर्ष में मात्र 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देती है। इसलिए वास्तव में यह रोजगार गारंटी है ही नहीं क्योंकि रोजगार का  अर्थ ही यह है कि साल भर, नियमित तौर  पर रोज मिलने वाला काम। मनरेगा से होने वाली आय ग्रामीण मजदूरों के केवल भुखमरी  के स्तर पर जिंदा  रख सकती है और यह भी तब  होगा। जब यह योजना भ्रष्टाचार  से मुक्त होकर  लागू हो। हालत यह है  कि इस योजना के लिए आवंटित राशि का अच्छा खासा हिस्सा इस्तेमाल ही नहीं होता और जो होता है, उसका भी बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार भेंट चढ़ जाता है।
गांव के गरीब मजदूरों के लिए सरकार के पास श्रम कानूनों का कोई ढांचा मौजूद नहीं है। राष्ट्रीय ग्रामीण श्रम आयोग ने सरकार से ऐसे कानूनी ढांचे की सिफारिश की थी जो ग्रामीण मजदूरों के लिए चाहे वे खेतिहर मजदूर हो  या फिर गैर खेतिहर मजदूर, इस बात की गारंटी करें कि  उनके कार्य दिवस आई घंटे के हो उन्हें साप्ताहिक अवकाश मिले उनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए पीएफ और ईएसआई कार्ड योजना शुरू की जाए और उनके आवास आदि के लिए भी  सरकार जिम्मेदारी लेकर योजना बनाए। लेकिन  आज तक इन सिफारिशों पर अमल नहीं हुआ। ग्रामीण मजदूरों से के कसम करने की परिस्थितियों भी घातक होती है। एक  आकलन के अनुसार औद्योगिक दुर्घटनाओं  में जितने शहरी मजदूर की जान गंवाते हैं या अपंग होते हैं, ग्रामीण मजदूर भी  काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में लगभग उतनी ही तादाद में जान गंवाते या अपंग होते हैं। हालांकि शहरी मजदूरी के लिए सामाजिक सुरक्षा के कुछ कानून तो है लेकिन ग्रामीण मजदूरों के के लिए अब तक ऐसे कानून ही नहीं है इसलिए वे  केाई कानूनी लड़ाई लड़ ही नहीं सकते। यहां तक कि खेतिहर मजदूरी का अभी तक कोई सरकारी मानक या पैमाना निर्धारित नहीं है। ऐसे में खेतिहर मजदूर पूरी तरह से बाजार की ताकतों तथा धनी और मझोले किसानों के रहम पर निर्भर रहते हैं।
बाजार में तेजी होने पर कई बार उसे संतोषजनक मजदूरी  मिलती है लेकिन 12-12 घंटे कमरतोड़ मेहनत के बाद। लेकिन ज्यादातर  की किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती। देश में  खेती का सेक्टर लंबे समय से संकटग्रस्त है और इसका  सबसे बुरा प्रभाव देश के गरीब खेतिहर मजदूरों पर पड़ता है, जिसकी मजदूरी लगातार गुजारे के स्तर से भी नीचे जा रही है। कोरोना काल के बाद यह संकट और अधिक गहरा गया है कानूनों के जरिए कोई भी सरकारी विनियमन न होने के  कारण ये खेतिहर मजदूर पूरी तरह से बाजार की दया पर निर्भर है। 
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 5 march 2023 Amril Sandesh , Raipur



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