रात में बिजली, महिला किसानों के लिए परेशानी का सबब
रूबी सरकार
यूं तो महिलाओं के साथ कई तरह से भेदभाव किया जाता है, परंतु सिंचाई के लिए रात में बिजली की उपलब्धता , यह महिला किसानों के साथ अमानवीय है। महिलाएं सुरक्षा कारणों से रात में खेत नहीं जातीं।
कृषि एक ऐसा क्षेत्र है, जहां 80 फीसदी काम महिलाएं करती हैं। बावजूद इसके सरकार महिला किसानों को केंद्र में रखकर सरकार कोई निर्णय नहीं लेती। यहां तक कि उन्हें महिला किसान का दर्जा भी नहीं दिया जाता। किसान के नाम पर सिर्फ पुरुष चेहरे ही उभर कर आते है। मीडिया भी महिला किसानों की बात को ठीक से सामने नहीं लाती। सरकार के साथ-साथ समाज भी उनके साथ भेदभाव करता है। बीते साल खेती से जुड़ी हजारों महिलाओं ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली में दस्तक दी थी. उनकी मांग थी कि जो महिलाएं खेती करती हैं, सरकार उन्हें किसान का दर्जा दे. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन महिला किसान अधिकार मंच ने भी कहा था कि मौजूदा दौर में देश की कृषि व्यवस्था में महिलाओं की बढ़ती भूमिका आंकड़ों में भी उभर कर सामने आनी चाहिए।
किसान मजदूर संगठन के अध्यक्ष लीलाधर सिंह राजपूत बताते हैं कि मध्यप्रदेश में खेतों में काम करने वाले लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी 33 फीसदी से अधिक है। वहीं ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार खेती की जमीन पर महिलाओं का नियंत्रण 13 फीसदी से कम है। इसका मतलब उनके पास जमीन का हक नहीं है। छानबीन करने पर यह भी सामने आया कि मध्यप्रदेश में कई महिला किसान ऐसी है, जिनके पतियों ने कर्ज के चलते आत्महत्या कर ली, ऐसे में महिलाओं को जमीन का स्वामित्व नहीं मिला। उनके लिए विधवा पेंशन मात्र 600 रुपए छोड़ दे, तो कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं है। जबकि इन महिलाओं को खेतों के अलावा परिवार की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है.। खेती की जमीन न होने के कारण उन्हें न तो सरकारी लाभ मिलते हैं और न ही सामाजिक सुरक्षा. अक्सर उन्हें बैंक से ऋण नहीं मिल पाते. सब्सिडी पर उर्वरक और फसल खराब होने पर सरकारी बीमा भी नहीं मिल पाता. सरकारी कागजों में वे किसान नहीं होतीं. इससे कृषि क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की सही संख्या को आंकना मुश्किल होता है।
महिलाओं की सेल्फ एंप्लॉयड किसानों में हिस्सेदारी 48 फीसदी है। खेती में शारीरिक श्रम भी बहुत ज्यादा है- जमीन तैयार करना, बीज चुनना, रोपाई करना, खाद डालना, फिर कटाई, मढ़ाई वगैरह में बहुत मेहनत होती है। इसके बाद अगर एकल महिला हैं, तो उन्हें खाद-बीज के लिए लाइन में खड़ा होना। समर्थन मूल्य पर फसल बेचने के लिए पंजीयन कराना, मंडी में जाकर लाइन में लगना। बैंक खातों की तफ्तीश, जनधन खाता है तो 10 हजार से अधिक ट्रांजेक्शन नहीं हो सकता। तीन फसल वालों को अलग-अलग पंजीयन, हर बार पोर्टल में कुछ न कुछ परिवर्तन होना। इस तरह की सैंकड़ों परेषानियां का उन्हें सामना करना पड़ता है। सरकार को महिला किसानों के लिए कुछ खास सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए। ताकि उनकी परेशानी कुछ कम हो। लेकिन उनका निर्णय हमेशा महिलाओं के खिलाफ चला जाता है। अब सर्दी के दिनों में रात में खेतों में पानी देना, महिलाओं के लिए लगभग असंभव है।
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से 60 किलोमीटर दूर शोभापुर गांव की 60 वर्षीय महिला किसान मंजू पालीवाल बताती हैं कि जब पुरुष दूसरे रोजगारों की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन करते हैं, ग्रामीण इलाकों में खेती संभालने का काम महिलाएं ही करती हैं। मंजू एकल महिला हैं, जब वह विधवा हुई थी , उस वक्त उनकी उम्र 35 थी,। दो छोटे-छोटे बच्चे थे। चार एकड़ कृषि भूमि से उनका गुजारा चलता था। एकल महिला के लिए रात में सिंचाई के लिए खेत में जाना उनके लिए नामुमकिन है। महिलाओं के लिए बैंक की औपचारिकताएं पूरी करना भी कठिन काम है। रोज नियम बदल दिए जाते है।अब बैंक खातों का आधार से लिंक करवाना, यह सब महिलाओं के लिए आसान नहीं है। ग्रामीण महिलाएं इतनी पढ़ी-लिखी नहीं होती। छोटी खेत वाली एकल महिलाओं के लिए यह मुश्किल भरा काम है। जो बागवानी करती हैं, उनके लिए अलसुबह सब्जी लेकर मंडी जाने में दिक्कत है, ऐसे में वह बिचौलियों का सहारा लेती है। इससे उनका बहुत नुकसान होता है। इसके अलावा उन्हें छेड़छाड़, छींटाकशी, अनहोनी का डर हमेशा सताता रहता है। क्योंकि अक्सर इस तरह घटनाएं होती है। परंतु महिलाएं लोकलाज के कारण चुप रह जाती है। जब शहर की महिलाओं के साथ यह सब होता है तो फिर ग्रामीण महिलाएं कैसे सुरक्षित रह सकती है। उपर से सरकार का यह फरमान कि रात में सिंचाई के लिए बिजली।
रीवा जिले से 65 किलोमीटर दूर हर्जनपुर गांव की कोल आदिवासी शोभा बताती हैं कि उनके पति रामलोचन शहद निकालने का काम करते थे। अचानक उनसे क्या अन्याय हुआ कि वह देवी के प्रकोप का शिकार हो गए और पैर दर्द को लेकर ही चल बसे। त ब उसकी उम्र मात्र तीस साल थी । उसे एक एकड़ में खेती कर तीन बच्चों का भरण-पोषण करना था। पति के रहते वह कभी बाहर काम करने नहीं गई। लेकिन अब उसके सामने मुसीबतों का पहाड़ था। वह खेती के साथ-साथ मजदूरी भी करने लगी। सुधा कहती है कि पुरुषों के मुकाबले उसे कम मजदूरी दी जाती है और ठेकेदार की गलत निगाह भी उसे परेशान करती है। परंतु उसके सामने परेशानी यह है कि उसे बच्चों की परवरिश करनी है। वह काम छोड़ भी नहीं सकती। वह कहती है कि सरकार परेशानी कम करने के बजाय और बढ़ जाती है। खाद-बीज के लाइन लगाए कि मजदूरी करे, मंडी में फसल बेचना है तो पोर्टल में पंजीयन करवाए। बार-बार इन कामों में पैसा खर्च होता है। समय पर खाद-बीज मिलता नही ंतो खेती चौपट हो जाती है। सुधा ने कहा कि खाद-बीज के लिए लड़की को लाइन में लगाते हैं। इससे उसकी पढ़ाई छूट जाती है। लड़के अवारा निकल गए। वह किसी काम के न रहे। एक विधवा कित्तो को पालंेगे! डपर से जवान विधवा हो तो सबकी गिद्द दृष्टि लगी रहती है। अपनी व्यथा सुनाते-सुनाते उसकी आंखें भर आई, बोली क्या-क्या खुलकर बताएं। जैसे-तैसे जिंदगी की गाड़ी चल रही है। उसने कहा कि पति के निधन के बाद जमीन भी उसके नाम नहीं हो पायी । इसके लिए पटवारी पैसे मांगते हैं। इसी गांव की 40 साल की विमला देवी ने 9 महीने पहले अपने पति को खो दिया । वह बताती है कि हमारा तो सब िदन संघर्ष करते हुए निकल गया। बड़े संघर्ष के बाद जमीन का विभाजन हुआ । एक टुकड़ा मिला । अभाव में बच्चों को पढ़ा नहीं पाए। सबको मजदूरी में लगा दिए।
पढ़ी-लिखी महिला किसान बृंदा तलाकशुदा है। वह बताती है कि खेती से जुड़े फैसले लेने में कभी भी महिलाओं को बराबरी से शामिल नहीं किया जाता. खेती में भी अक्सर वे सहायक कामों में लगाई जाती हैं और अक्सर वहां भी पुरुषों के मुकाबले कम कमाती हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उन्हें पुरुषों के मुकाबले कमजोर समझा जाता है। जेंडर को लेकर जो पूर्वाग्रह कायम हैं, उसका सीधा असर पड़ता है। इसके अलावा दलित और आदिवासी महिला किसानों की स्थिति और बदतर है। दूसरी महिलाओं के मुकाबले वे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ज्यादा अलग-थलग पड़ जाती हैं। दलित महिलाओं के पास तो खेती की जमीन भी नहीं है, वह अधिकतर खेत मजदूर हैं। इसके अलावा जाति के आधार पर उन्हें अलग से भेदभाव झेलना पड़ता है. इस भेदभाव की वजह से अपनी जमीन पर उन्हें अधिकार नहीं मिलता. उनकी उपज को खरीदार नहीं मिलते। उनकी जीविका पर असर होता है। हां इतना जरूर है कि इन संघर्षों से कई मायनों में महिलाएं मजबूत हुई हैं. उनकी कुशलता और आत्मविश्वास बढ़ा है।
फेमिनिस्ट इकोनॉमिक्स की एक टर्म है, फेमिनाइजेशन ऑफ एग्रीकल्चर. यानी कृषि क्षेत्र का स्त्री पक्ष. जब नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद कृषि गतिविधियां कम हुईं और पुरुषों ने ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में पलायन शुरू किया तो खेती का भार गांव में छूट जाने वाली महिलाओं पर पड़ा। 2013 में एक अंग्रेजी दैनिक में छपी खबर में बताया गया था कि 2001 से 2011 के बीच 77 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया था. इसके बाद 2015 में प्रवास पर एक वर्किंग ग्रुप बनाया गया जिसने 2017 में एक रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि गांवों से शहरों में करीब 10 से 20 करोड़ लोगों ने पलायन किया है। इनमें ज्यादा संख्या पुरुषों की है। इसी से कृषि का फेमिनाइजेशन हुआ। 2011 की जनगणना कहती है कि 2001 से 2011 के बीच महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या में 24 फीसदी का इजाफा हुआ। यह 4 करोड़ 95 लाख से बढ़कर 6 करोड़ 16 लाख हो गई। अगर लगभग 9 करोड़ 80 लाख महिलाएं खेती से जुड़े रोजगार करती हैं तो उनमें से 63 प्रतिशत खेतिहर मजदूर हैं यानी दूसरे के खेतों में काम करती हैं। फिर भी उनकी आवाज सरकार के सामने कमजोर पड़ जाती है।
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